भारतीय इतिहास में जब कभी भी महानता का जिक्र होता है तो उसमें एक ऐसे महान योध्दा का स्मरण स्वतः ही मानस पटल पर अंकित हो जाता है।
जिसने अपने पौरुष, साहस, धैर्य एवं अपने धर्म की रक्षा एवं संरक्षण हेतु कभी भी किसी से समझौता नहीं किया और सभी परिस्थितियों में अपने राष्ट्र, संस्कृति एवं कर्तव्य के प्रति अडिग दृढ़ निश्चयी रहे।
राजस्थान के मेवाड़ का वह कुलदीपक जिसने अपने प्रकाश से सम्पूर्ण देश को प्रकाशित कर सभी को चकाचौंध कर दिया।
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को सन् 1540 में कुम्भलगढ़ किले में हुआ। हालांकि जन्म स्थान को लेकर मतांतर है किन्तु कुम्भलगढ़ की अत्यधिक मान्यता है।
महाराणा उदय सिंह एवं जयवंता बाई की वीर साहसी संतान के रूप में महाराणा प्रताप ने सिसोदिया राजवंश की कमान सम्हालने के बाद जिस तरह अपने उत्तरदायित्वों को निष्ठा के साथ निभाया उसकी बानगी आज भी दी जाती है।
स्वातंत्र्योत्तर काल के बाद से ही भारतीय इतिहास को मार्क्सवादी इतिहासकारों ने सत्ता के संरक्षण में व्यापक स्तर पर मनचाहे ढंग से स्वार्थ एवं विदेशी धन की लालच में विकृत करने का कार्य द्रुत गति से बढ़ाते आए इसी क्रम में उन्होंने भारतीय इतिहास के किसी भी महानायक को प्रतिष्ठित एवं श्रेष्ठता नहीं प्रदान कि बल्कि मनगढ़ंत तर्कों के माध्यम से उनकी छवि को धूमिल करने का कुत्सित प्रयास करते रहे।
अपनी स्वमूर्धन्यता सिध्द करने के लिए उन्होंने महाराणा प्रताप को भी नहीं बख्शा अरबी तुर्क लुटेरे अकबर को महान बतलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी जबकि अकबर जिहादी एवं इस्लामी अहमन्यताओं के साथ भारत की विशाल सभ्यता एवं संस्कृति पर लगातार कुठाराघात करता रहा जिसके बर्बरतापूर्ण कृत्यों की जानकारी मात्र से अन्तरात्मा दहल उठती है।
अकबर के कुकृत्यों को छिपाने का प्रयास भी इन इतिहासकारों ने किया यह सब उद्धृत करने की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि शैक्षणिक पाठ्यक्रमों के साथ-साथ सभी संस्थानों में अकबर को महान बताने का चलन चल चुका था जिससे देश के भविष्य छात्रों के दिमाग में अकबर क्रूर और लुटेरा निकृष्ट तुर्क की छवि न होकर उसकी महानता की पहचान दिखे।
इसमें भी यह तथ्य छिपा हुआ है कि जब अकबर महान सिध्द हो जाएगा तो भारतीय वीर शासक उसके समक्ष बौने ही साबित होंगे।
जबकि यह वही अकबर है जो अनेकानेक षड्यंत्रों, लोभ, युध्दों, सन्धि-आग्रह के उपरांत भी आजीवन महाराणा प्रताप को पराजित नहीं कर सका।
अकबर की विशाल सेना, उच्चतम तकनीकी की आयुध सामग्रियों के बाद भी हर बार महाराणा प्रताप से मुंह की खानी पड़ी।
महाराणा प्रताप अपने नाम की तरह ही प्रतापी थे जिन्होंने अपनी शूरवीरता से अल्प संसाधनों एवं सेना के बलबूते अकबर को नाकों चने चबवा दिए।
राणा प्रताप ने अपने पिता महाराणा उदय प्रताप सिंह की इजाद की हुई छापामार-गुरिल्ला पध्दति को अपनाकर जिस तरह से मुगलों पर लगातार आक्रमक होकर प्रहार करते रहे उससे मुगल कभी भी यह नहीं समझ पाए कि इनका सेनाबल कितना है।
महाराणा प्रताप कितने बलवान थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनका भाला 72 किलो और कवच 82 किलो ढाल तलवार सहित लगभग 208 किलो का वजन अपने शरीर पर धारण कर चलते थे यह सब किसी अजूबे से कम नहीं लगता लेकिन यह आर्यावर्त की भूमि की विशेषता रही है कि उसने ऐसे असंख्य वीरों को जन्म दिया जिसके शौर्य से सम्पूर्ण विश्व परिचित हुआ।
राणा प्रताप के गूढ़तम रहस्यों में से यह भी एक है कि वे अरावली की पहाड़ियों एवं मेवाड़ राज्य के जंगल के चप्पे-चप्पे से परिचित थे और जहाँ से चाहे वहां से अल्प समयांतराल में आ जाते थे।
यह किसी वरदान से कम नहीं था वह जितने वीर-धीर उतने ही उदार प्रवृत्ति के साथ -साथ नारी का सम्मान करते थे। कई बार युध्दों के उपरांत मुगलों को परास्त करने से उनकी स्त्रियां भी इनके कब्जे में आ गईं किन्तु उन्होंने ससम्मान वापस भेज दिया जबकि इसके इतर मुगल युध्द जीतने के बाद पराई स्त्रियों की इज्जत लूट लेते थे एवं उन्हें अपने हरम में भर देते थे।
राणा प्रताप के जीवन में आदिवासी भीलों का योगदान अविस्मरणीय एवं जिनकी कार्यक्षमता एवं पारस्परिक सहयोग से एक ऐसी सेना का निर्माण किया जिसका मनोबल उच्च शिखर पर रहता था और इन्हीं भीलों के साथ राणा प्रताप ने मेवाड़ राज्य की अस्मिता की लड़ाई लड़ी।
भील भी कम स्वामीभक्त नहीं थे वे राणा प्रताप के लिए प्राण न्यौक्षावर करने के लिए तत्पर रहते थे। क्योंकि उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि राणा अपने निजी स्वार्थ एवं गद्दी के लिए मुगलों से नहीं लड़ रहे बल्कि वे अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र रखने के लिए प्राणों की बाजी लगाए हुए हैं।
महाराणा प्रताप को अकबर सन्धि-मित्रता एवं लोभ किसी भी तरह से अपने आधीन करना चाहता था इसके लिए उसने अपने कई राजदूतों या सन्देशवाहकों को भेजा जिनमें राजा टोडरमल, मान सिंह, अब्दुर्रहीम खान खाना को भेजा लेकिन राणा प्रताप ने इन सभी से मिलना तक भी स्वीकार नहीं किया और सभी खाली हाथ निराशा की पोटली लिए अकबर के पास लौट गए।
मानसिंह के आने पर राणा प्रताप ने उसके साथ भोज करने से भी इंकार कर दिया था। राणा प्रताप ने मानसिंह को सन्देशा कहलवाया कि अपने फूफा अर्थात अकबर के साथ क्यों नहीं आए। इससे मान सिंह तिलमिला उठा और परिणाम भुगतने की बात कही जिस पर राणा ने पुनश्च कहलवाया कि यदि राजपूत बनकर आओगे तो बाहर तक आतिथ्य करते हुए भेजा जाएगा लेकिन यदि मुगलिया मोहरे बनकर तने तो जो बन पड़ेगा वह सब किया जाएगा।
इससे तो साफ-साफ राणा प्रताप के व्यवहार एवं अकबर सहित मुगल सल्तनत के प्रति कटुता दिखलाई देती है क्योंकि उनके लिए चाहे वह कोई हिन्दू शासक ही क्यों न रहा हो अगर उसने अपनी मातृभूमि एवं स्वाभिमान को विदेशी शक्ति के सामने समर्पित कर दिया है तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
अकबर ने हमेशा की तरह राणा प्रताप के विरुद्ध अपने विभिन्न हथकंडे अपनाता रहा। अपने पुत्र जहांगीर, मानसिंह तथा आसफ खां के नेतृत्व में हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युध्द जो सन्1576 में लड़ा गया।
जहां राणा प्रताप शत्रु सेना से घुड़सवारों, पैदल योध्दाओं, विभिन्न युध्द अस्त्रों में कहीं भी समानता नहीं थी। लेकिन शत्रु के प्रति आक्रोश का लावा धधक रहा था उसकी तपिश में मुगल सेना राजपूती सेना के प्रहार से झुलसने लगी थी।
ऐतिहासिक तथ्यों की दृष्टि से देखा जाए तो जहां अकबर की सेना के पास 10,000 घुड़सवार, हजारों पैदल सैनिक बन्दूकें, तोपें, वहीं दूसरी ओर राणा प्रताप के पास 3000 घुड़सवार, लगभग हजार की संख्या में पैदल सैनिक युध्द के मैदान में थे। मुगलों की सेना 80,000 तो वहीं इसके मुकाबले लगभग 22000 राजपूत लड़ रहे थे। अकबर की ओर से आमेर सरदार मानसिंह लड़ाकों के साथ राणा प्रताप के विरुद्ध मदान्ध होकर मारकाट कर रहा था।
क्या यह सब राणा प्रताप के अपार साहस और शक्ति को नहीं प्रदर्शित करता। वहीं राणा प्रताप की सेना भले ही संख्याबल में कम रही हो लेकिन इनके अपार साहस और जुझारू शक्ति के आगे मुगलों के दांत खट्टे हो गए थे।
हल्दीघाटी के युध्द का राणा प्रताप की ओर से मुस्लिम सरदार हकीम खां सूरी कर रहे थे इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि राणा प्रताप ने कालांतर में धर्मांतरित जन को भी राष्ट्रीयता एवं मातृभूमि प्रेम की गाथा पढ़ाने में सफल हुए एवं अकबर को अस्वीकार कर राणा प्रताप जैसे महान व्यक्तित्व का सहयोग देना मुनासिब समझा रहा।
क्या राणा प्रताप इसलिए महान कहलाने के योग्य हैं कि वे राजपूत एवं अकबर के विरुद्ध युध्द लड़ते रहे तो मेरा व्यक्तिगत यही उत्तर होगा जी! नहीं, यह बस पर्याप्त होगा, क्योंकि राणा प्रताप को समझने के लिए यह जानना जरूरी होगा कि किन परिस्थितियों में उन्होंने अपने निर्णयों के प्रति अडिग रहे और आजीवन अकबर के मनोमस्तिष्क में अपना दबदबा कायम करने में सफल हुए।
कई सन्दर्भों के माध्यम से यह कहा जाता है कि हल्दीघाटी के युध्द में राणा प्रताप एवं अकबर दोनों में से किसी की भी विजय नहीं हुई कुछेक इतिहासकारों का मानना है कि अकबर की सेना ने विजय प्राप्त की तो कइयों का यह मानना है कि राणा प्रताप ने विजय प्राप्त की।
प्रसंग ऐसे उठते हैं कि युध्द के मैदान में राणा प्रताप ने जब अपने घोड़े चेतक से मानसिंह के हाथी पर चढ़कर प्रहार किया तो मानसिंह झुक गया एवं उसके हाथी की सूड़ पर लगे तलवार से राणा प्रताप घायल हो गए जिससे उन्हें बचाने के लिए बींदा के झाला मानसिंह ने राज्यचिन्ह छुड़ाकर स्वयं का प्राणार्पण कर राणा प्रताप के जीवन को बचाया।
राणा प्रताप का अश्व चेतक अपने अंतिम समय तक अपने स्वामी के कुछ इशारा करने से पहले ही उनकी बातों को समझ जाता था जिसका जिक्र श्यामनारायण पाण्डेय ने अपनी कृति हल्दीघाटी में कुछ इस तरह किया था भले ही अतिशयोक्ति लगे किन्तु चेतक की वीरता एवं स्वामीभक्ति के सामने यह अतिशयोक्ति भी कम हो जाती है-
जो तनिक हवा से बाग हिली¸ लेकर सवार उड़ जाता था। राणा की पुतली फिरी नहीं¸ तब तक चेतक मुड़ जाता था।
चेतक ने अपनी जीर्ण अवस्था में भी राणा प्रताप को नाले के पार उतारकर अपने प्राणोत्सर्ग कर दिए किन्तु अपने स्वामी पर कभी भी आंच नहीं आने दी। क्या पशु एवं इंसान के मध्य इतने प्रगाढ़ संबंधित एवं समन्वय की कल्पना हम कर सकते हैं? नहीं लेकिन राणा प्रताप का यह साहचर्य प्रेम किसी मानवीय सम्बन्ध से कम नहीं था जिसकी कीर्ति चिरकाल तक सदैव स्मरणीय रहेगी।
किन्तु बारीकी से यदि निष्कर्ष पर जाएं तो हल्दीघाटी के युध्द में राणा प्रताप की सेना ने विजय प्राप्त की क्योंकि कोई भी युध्द बिना संधि या विजय के समाप्त नहीं होता और यदि अकबर की जीत मानी जाए तो वह अन्त तक राणा प्रताप एवं उनके सम्पूर्ण सैन्य ठिकानों को ध्वस्त किए बिना वापस नहीं लौटती और फिर राणा प्रताप के लिए दोबारा उठ खड़ा हो पाना मुश्किल सा हो जाता।
यह भी इतिहास रहा है कि इतिहास को तलवार की नोक एवं धन के लोभ पर लिखवाया गया है एवं एक बार इतिहासकार के रूप में स्थापित हो जाने के बाद मनगढ़ंत तरीके से ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत करने का नाजायज अधिकार भी स्वयं मिल जाता है।
इसीलिए सम्भवतः अकबर का महिमामंडन कर महाराणा प्रताप के शौर्य को कम आंकने का कुत्सित प्रयास किया गया किन्तु राणा वह हैं जिनकी शूरता का कोई शानी नहीं हुआ और इसीलिए वो महान हैं।
अंग्रेजी इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने सन् 1582 के मुगल व राणा प्रताप के बीच हुए दिवेर के युध्द को मेवाड़ का मैराथन की संज्ञा दी थी।राणा प्रताप के जीवन संघर्ष में भामाशाह एक ऐसे किरदार हैं, जिन्होंने अपने राजकोष सहित सम्पूर्ण धन को राणा प्रताप के संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया जिनका योगदान इतिहास में अविस्मरणीय रहेगा। क्या यह सब अपने आप में राणा प्रताप की महानता का परिचायक नहीं है?
हमारे देश के मार्क्सवादी इतिहासकारों ने हमेशा राणा प्रताप को उपेक्षित करते हुए मात्र उन्हें अपने राज्य को स्वतंत्र रखने वाला बताते आए जबकि राणा प्रताप ने राज्य की लड़ाई नहीं लड़ी वर्ना अकबर के सन्धि पत्र पर भी उनका राज्य शासन यथावत चलता तो उन्हें फिर युध्दों और संघर्षों की क्या जरूरत आन पड़ती?
उनके जीवन काल में सन्-1579 से लेकर1585 तक का समय सबसे महत्वपूर्ण एवं पक्ष में रहा जब राणा प्रताप ने एक-एक कर अपने सम्पूर्ण राज्य को मुगलों की आधीनता से स्वतंत्र करवा लिया एवं जनसामान्य के जीवन में पुनश्च खुशहाली का वातावरण तैयार किया।
लगभग बारह वर्षों के लम्बे संघर्ष एवं कूटरचित षड्यंत्रों के बाद भी अकबर राणा को झुकाने में असफल रहा एवं उसे हर बार राणा प्रताप की चातुर्यता, रणनीति ,कौशल के आगे नत होना पड़ा।
एक समय ऐसा आया जब मुगलों को राणा प्रताप के नाम से डरते देखा गया यहां तक कि अकबर को भी भयभीत होकर अपनी राजधानी आगरा से लाहौर करनी पड़ी थी। खराब स्वास्थ्य की वजह से राणा प्रताप की सन् 1597 में उनकी राजधानी चावंड में मृत्यु हो गई इसके बाद ही अकबर ने आगरा को पुनः राजधानी बनाया।
राणा की महानता का अंदाजा भी इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु पर आजीवन उनका शत्रु रहा अकबर भी आंसू बहाने में विवश हुआ क्योंकि राणा प्रताप जैसा आजीवन शूरवीर, धर्मनिष्ठ, स्वाभिमानी राजा उसे कोई दूसरा नहीं मिला अकबर की तात्कालिक मनोदशा को उसके दरबारी दुरसा आढ़ा ने उद्धृत करते हुए लिखा था कि-
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली!! न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी!!
"हे! वीर राणा प्रताप सिंह तुम्हारी मृत्यु पर सम्राट ने दांतों के बीच जीभ दबाई और भारी मन से श्वास छोड़ते हुए अश्रुपात किए, क्योंकि राणा प्रताप तुमने कभी भी अपने घोड़ों पर मुगलों की गुलामी का दाग नहीं लगने दिया।
तुमने अपनी पगड़ी अर्थात मेवाड़ के शौर्य को किसी के आगे नहीं झुकाया भले ही इसके लिए तुम्हें अपना वैभव एवं राज्य ही क्यों न त्यागना पड़ा हो।
तुम्हारी रानियां कभी भी नवरोजे में नहीं गई और राणा! तुमने कभी भी बादशाह की आधीनता स्वीकार नहीं की एवं अपने राज्य के बच्चे तक को अधीनस्थ नहीं होने दिया।
तुमने अपने जीवन काल में इस संसार में अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ने एवं गर्व से चलने में सफल हुए।
तुम्हारे! समक्ष बादशाह अर्थात अकबर हार गया और तुम सभी प्रकार से उसे जीतने में कामयाब रहे।
प्रत्येक वर्ष की भांति हमेशा राणा प्रताप की जयंती मनाई जाती है, लेकिन अतीत के उन पृष्ठों को आखिर क्यों नहीं खोला जाता जिनमें राणा प्रताप के जीवन संघर्षों एवं कीर्ति का विस्तृत आवरण ढंका हुआ है। शैक्षणिक संस्थाओं में राणा प्रताप को महज दो लाइनों में आखिर कब तक पढ़ाया जाता रहेगा?
इसकी चिंता यदि वर्तमान में नहीं तो आने वाली पीढ़ियां सबकुछ भुला देंगी उन्हें तो तब यह सब बातें महज एक कोरी कल्पना ही लगेंगी।
भारतीय इतिहास के ऐसे महान स्वाभिमानी वीर महापुरुष जिन्होंने आजीवन राज्य एवं उनके निवासियों की स्वतंत्रता, धर्म के प्रति निष्ठा रखते हुए आक्रांताओं को अपने शक्ति-सामर्थ्य से धूल चटाते रहे। आजीवन धर्म, जन एवं राष्ट्र की अस्मिता के लिए अपने जीवन को खपाने वाले राष्ट्रदूत महाराणा प्रताप महान को नमन्!
वीर पुरूषों को सच्ची श्रध्दांजलि एवं उनका पुण्यस्मरण यही होगा कि उनके जीवनवृत्त के समस्त पहलुओं का विस्तृत विवेचन हो जिसकी प्रेरणा से इस अमर राष्ट्र के शक्तिचेतना पुनश्च जागृत हो एवं राष्ट्रनिर्माण का यज्ञ पूर्वजों को नमन् करते हुए सफलता प्राप्त करे!
नोट: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।