हर आदमी का एक कोना होता है, जब भी वह किसी बुरे वक्त और दर्द से गुजरता हैं तो उसी कोने का रुख करता है। इस तरह के कोने या खोह कोई किताबें हो सकती हैं, या हमारे प्रिय लेखक हो सकते हैं या उनकी पंक्तियां हो सकती हैं। हम यह सोचकर उनकी तरफ जाते हैं कि यह हमें किसी डॉक्टर की मानिंद दवा देंगे या किसी औघड़ की तरह गंडा-ताबीज मिल जाएगा।
मिर्जा गालिब ऐसे ही दर्दों के मारों के, दीवानों के और जिंदगी से जूझती हुई अवाम के रहनुमा हैं, उसके डॉक्टर हैं। लेकिन यह जरूरी नहीं कि गालिब के पास जाने से दर्द कट ही जाए, दूर हो ही जाए, यह बढ भी सकता है, उस हद तक कि दर्द का मजा-सा आने लगता है।
ठीक वैसे ही जैसे किसी डॉक्टर के क्लिनिक पर पहुंचकर इंतजार करने भर से दर्द कम होने लगता है। या दर्द से लड़ने का हौंसला सा मिलने लगता है।
गालिब यही करते हैं, साल के अंत में इसी तरह गालिब याद आ रहे हैं, दो कारण हैं। साल 2020 की त्रासदी की वजह से और दिसंबर की 27 तारीख को अपनी पैदाईश की वजह से। गालिब की इसी याद के इस याद में पीछे-पीछे चले आते हैं उनके शेर।
जैसे गालिब इसी त्रासदी से भरे साल 2020 के लिए लिख गए हों
हुई मुद्दत की गालिब मर गया पर याद आता है वो हरेक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता
हर किसी के मन में बस यही एक ख्याल है कि ये न होता तो क्या होता
गालिब का एक दूसरा शेर भी कुछ इसी साल के लिए लिखा महसूस होता है। बल्कि यह शेर तो हर साल याद चला आता है।
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हालांकि इस शेर में गुलजार ने भी अपना छौंक लगाया है, लेकिन यह याद इसी उम्मीद के साथ आता है कि नया साल पुराने साल से बेहतर होगा, अच्छा होगा। इस शेर में नए साल के बेहतर होने की उम्मीद है।
ठीक वैसे ही जैसे ही हम किसी ज्योतिष के पास पहुंचकर आने वाले वक्त के लिए उम्मीदमंद हो जाते हैं।
गालिब यही करते हैं बुरे वक्त में उम्मीद करना भी सिखाते हैं और उस दर्द का मजा भी देते हैं। ऐसे में गालिब के बहाने आने वाले साल के लिए बेहतर उम्मीद ही कर सकते हैं।
इस साल को अलविदा कहने और त्रासदी को भूलने के लिए गालिब का यही एक शेर दोहरा सकते हैं