नीतीश कुमार नेता नहीं दिशासूचक यंत्र हैं

सुशोभित सक्तावत
गुरुवार, 27 जुलाई 2017 (14:53 IST)
तीन घटनाओं ने नीतीश कुमार को सेकुलरों का "राजदुलारा" बना दिया था।
 
2013 : नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने पर नीतीश द्वारा एनडीए का त्याग।
2014 : नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर नीतीश द्वारा बिहार के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा।
2015 : नरेंद्र मोदी के विरुद्ध "महागठबंधन" का नेतृत्व करते हुए नीतीश के द्वारा बिहार में ऐतिहासिक जीत।
 
कोई "मिट्टी का माधौ" भी अगर नरेंद्र मोदी के विरुद्ध खड़ा हो जाए तो वह सेकुलरों का प्रिय बन जाता है, फिर ये तो "नीतीशे कुमार" थे।
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लेकिन चूंकि सेकुलरों की याददाश्त कमज़ोर होती है, इसलिए उन्होंने इससे पहले हुई वे तीन और घटनाएं अत्यं‍त सुविधाजनक रूप से भुला दी थीं, जिनकी वजह से नीतीश उनकी आंख का कांटा बने हुए थे।
 
1994 : लालू यादव से अलग रास्ता अपनाते हुए नीतीश के द्वारा "समता पार्टी" का गठन, जिसने 1996 के आम चुनावों में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी बनने का पथ प्रशस्त किया।
 
1996 : "समता पार्टी" द्वारा भाजपा के साथ गठजोड़, जिसके कारण नीतीश कुमार 1998-99 में केंद्र की भाजपानीत सरकार में मंत्री बने।
 
2005 : नीतीश की "जदयू" द्वारा भाजपा के साथ गठजोड़ किया, जिसके बाद अगले आठ सालों तक नीतीश बिहार में इस गठजोड़ के मुख्यमंत्री रहे।
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नीतीश कुमार आदमी नहीं दिशासूचक यंत्र हैं! हवा का रुख़ किस तरफ़ बह रहा है, यह जानना है तो नीतीश कुमार की दशा देख लीजिए।
 
लालू यादव ने रामविलास पासवान को उनकी राजनीतिक अवसरवादिता के लिए "मौसम-विज्ञानी" बताया था। सरकार किसी की भी हो, पासवान हमेशा केंद्र में मंत्री बनते हैं। लेकिन पार्टी कोई भी हो, नीतीश हमेशा बिहार के मुख्यमंत्री बने रहते हैं। नीतीश पासवान से भी आगे की चीज़ हैं!
 
26 मई 2014 को जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ ले रहे थे और अरविंद केजरीवाल मानहानि के मामले में दो दिन की जेल की सज़ा काट रहे थे, तब मुख्यमंत्री पद का त्याग कर एक महान नैतिक आदर्श स्थापित करने वाले नीतीश कुमार को सेकुलर खेमा कितने स्नेह, कितनी आशाओं से देख रहा था, वह मुझे याद है।
 
ये और बात है कि कुछ समय बाद नीतीश को महसूस हुआ कि जीतनराम मांझी के बजाय वे ही अगर बिहार के मुख्यमंत्री बने रहें तो यह श्रेयस्कर होगा। तब जीतन मांझी भाजपा के संपर्क में थे और भाजपा की बोली बोल रहे थे, ठीक वैसे ही, जैसे आज नी‍तीश भाजपा की बोली बोल रहे हैं।
 
जिस दिन नीतीश ने बिहार का चुनाव जीता था, उस दिन सेकुलर खेमे में कैसा जश्न मनाया गया था, किन लोगों ने क्या क्या कहा था, वह भी मुझे अभी तक अच्छी तरह याद है!
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उस दिन मैंने एक पोस्ट लिखी थी, जिसने मुझे अपने सेकुलर मित्रों की आंख का कांटा बना दिया था।
 
मैंने लिखा था : "आपका यह जश्न मेरी समझ से परे है। नीतीश कुमार हद्द दर्जे के "अपॉर्चूनिस्ट" हैं। बीजेपी के लिए इन्होंने लालू को छोड़ा था, आज लालू के लिए इन्होंने बीजेपी को छोड़ दिया! आगे ये फिर वैसा नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी है? बिहार में जंगलराज की वापसी हुई है। आपका जश्न मेरी समझ से परे है। इतने छोटे आपके अरमान हैं?"
 
बाद उसके, मेरे अनेक सेकुलर मित्रों ने मुझे "प्रच्छन्न संघी" और "प्रच्छन्न भक्त" की संज्ञा प्रदान की थी, जिसे मैंने मुस्कराते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
 
आज जब मेरे भाजपाई मित्र नीतीश कुमार की "घरवापसी" का जश्न मना रहे हैं तो मैं उनसे भी यही कहना चाहूंगा :
 
"आपका यह जश्न मेरी समझ से परे है। नीतीश कुमार हद्द दर्जे के "अपॉर्चूनिस्ट" आदमी हैं। बीजेपी के लिए इन्होंने लालू को छोड़ा था, फिर लालू के लिए इन्होंने बीजेपी को छोड़ दिया! अब ये फिर लौट आए हैं, लेकिन आगे ये वैसी पलटी नहीं खाएंगे, इसकी क्या गारंटी है? पिछले तीन सालों से ये मोदी-विरोधी राजनीति के सबसे बड़े प्रतीक थे। ऐसे आदमी से संबंध बहाली पर आपका जश्न मेरी समझ से परे है!"
 
अब आप चाहें तो मुझे "प्रच्छन्न वामी" और "प्रच्छन्न सेकुलर" की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं, मैं उसे भी मुस्कराते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दूंगा!
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जब तक नीतीश मोदी के विरुद्ध थे, वे वामियों को प्रिय थे, संघियों को अप्रिय।
जैसे ही नीतीश मोदी के साथ आ गए, वे संघियों को प्रिय हो गए, वामियों को अप्रिय।
इस दुनिया में महत्व इस बात का नहीं है कि कौन सही है या कौन ग़लत।
महत्व इस बात का है कि कौन आपके साथ है और कौन आपके साथ नहीं।
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कहते हैं कि नरेंद्र मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी को आज तक इस बात के लिए माफ़ नहीं किया है कि 2013 में उनका पूरे मन से समर्थन करने में उन्होंने कोताही दिखाई थी। तो फिर 2013, 14 और 15 में तीन बार मोदी पर वार करने वाले नीतीश के प्रति इतना अनुराग क्यों?
 
वास्तव में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी विचारधारा की नहीं, सुविधा की राजनीति करती है। वे अवसरवादी राजनीति को प्रश्रय देते हैं। कश्मीर में इसी तर्ज पर इन्होंने "पीडीपी" के साथ गठजोड़ बनाया। इस गठजोड़ की उपलब्धियां शून्य हैं। कश्मीर से "धारा 370" हटाना तो दूर, ना तो वहां भारत-विरोधी भावनाओं को शांत किया जा सका, ना आतंकवाद का ख़ात्मा किया जा सका, ना ही पंडितों का पुनर्वास किया जा सका। वैसी ही सुविधा की राजनीति के चलते अब भाजपा जदयू के साथ बिहार में गठजोड़ बनाने जा रही है।
 
जब भाजपा और उसके समर्थकों का जश्न पूरा हो जाए, तो उन्हें स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि : जिस यादव-मुस्ल‍िम गठजोड़ ने लालू यादव को 80 सीटें जिताकर विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनाया था, वो अगर आज ख़ुद को छला हुआ महसूस कर रहा है, तो उसके राजनीतिक असंतोष का लाभ कौन उठाने वाला है? इस वर्ग के "कंसोलिडेशन" की संभावनाएं अब पहले से और बलवती हो गई हैं!
 
दूसरे, राजनीति में दो साल बहुत लंबा समय होता है। कौन जाने, दो साल बाद नीतीश कुमार कहां और किसके साथ होंगे। 2019 की दिल्ली अभी बहुत दूर है! जो राजनीति विचारधारा के बजाय अवसरवाद पर केंद्रित हो जाती है, वह अपने लक्ष्यों से कितना दूर भटक जाती है, इसका अभी आपको अनुमान नहीं है।
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[पुनश्च : मैं पवन के. वर्मा और केसी त्यागी जैसे जदयू "आइडियोलॉग्स" की बातों को ध्यान से सुनता रहा हूं। काफ़ी समय से ये लोग टीवी पर जाकर और अख़बारों में लिखकर भाजपा की नीतियों की आलोचना करते रहे हैं और इसी कारण जदयू ने इन्हें राज्यसभा में बैठा रखा है। यह देखना रोमांचक होगा कि अब ये क्या भाषा बोलते हैं। शरद यादव की तो ख़ैर बात ही रहने दें]
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