राष्ट्र की चैतन्यता के प्रखर स्वर हैं पंडित दीनदयाल

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
पं.दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीति के कुशल शिल्पी तो थे ही इसके साथ ही वे भारतीय धर्म-दर्शन-संस्कृति के श्रेष्ठ विचारक थे। उन्होंने भारतीय परम्परा में एकात्म मानववाद जिसमें ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ के चतुर्विध पुरुषार्थों की विवेचना कर भारतीय संस्कृति के नवस्वरुप को प्रतिष्ठित कर राष्ट्र को नई दिशा दिखलाने का कार्य किया है।

उनके दर्शन में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय दर्शन की विशुद्ध परम्परा और भारतीय जन की अनुभूति परिलक्षित होती है।

उन्होंने भारतभूमि को चैतन्य -भावात्मक-सृजनात्मक एवं आत्मीयता की अनंत गहराइयों में समाए हुए स्नेहबोध से पुष्ट ‘मातृत्व भाव’ को आधार मानकर राष्ट्रनिर्माण भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति की सनातन काल से अविरल प्रवाहित हिन्दू धर्म संस्कृति की जड़ों में भारतवर्ष की सम्पूर्ण उन्नति के मूलबिन्दु को व्याख्यायित कर नवमार्ग दिखलाया है।

उन्होंने सर्वथा भारत के राष्ट्रजीवन के विकास के लिए भारतीय धर्म-दर्शन-राजनीति एवं सुव्यवस्थित आर्थिक संरचनाओं पर जोर डाला है जिसमें अंतिम पायदान तक के व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का स्पष्ट चिंतन है।
उन्होंने पश्चिम आयातित विचारों एवं दर्शनों का वृहद अध्ययन कर विभिन्न तर्कों के आधार पर विश्लेषित कर उसे भारत के लिए प्रतिकूल तथा भारतीयता के लिए अहितकर माना है।

जबकि अपने राष्ट्र के समृध्दिशाली सांस्कृतिक एवं राजनैतिक इतिहास के उच्च आदर्शों, ईश्वरीय अवतारों, महापुरुषों, दार्शनिकों, विचारकों यथा-महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरूगोविंद सिंह जैसे समस्त राष्ट्रपुरुषों को जीवनादर्श के रुप में स्वीकार्य किया है।

दीनदयाल जी कहते हैं कि- ‘विदेशों से ली गई विचार प्रणालियों में हमारे राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति प्रकट नहीं हो सकी है। इसलिए राष्ट्रमानस को छूने में वे असफल रही हैं। इन विदेशी विचारों से हमारे लोगों में त्याग, परिश्रम, बलिदान की प्रेरणा नहीं मिल सकी। यही कारण है कि आज देश में हताशा का वातावरण दिखाई देता है। राष्ट्र का आत्मविश्वास ढह गया है। कार्य प्रेरणाएं समाप्त हो गई हैं और करोड़ों लोगों का यह समाज परावलम्बी बना जी रहा है’

उनके विचारों में हमेशा राष्ट्रप्रेम के बीज और राष्ट्रीयता के साथ भारतीय जनमानस की समृद्धि की भावाभिव्यक्ति की प्रधानता रही है।

पंडित जी ने समाजवाद और पूंजीवाद दोनों के शोषण एवं दमनकारी कलेवर की कलई खोलते हुए विश्व की वस्तुस्थितियों के आधार पर विवेचना कर इन्हें भारतीय मूल्यों के ह्रास के लिए जिम्मेदार एवं गैर मानवतावादी बतलाते हुए इन्हें ‘यन्त्रवादी’ करार दिया है जिसमें केवल यान्त्रिक प्रक्रिया है जो मानवतावादी हो ही नहीं सकती।
उनका मानना था कि समाजवाद लाने में लोकतंत्र की हत्या स्वमेव हो जाती है जिसको वैश्विक युध्दों की विभीषिका में सम्पूर्ण विश्व ने देखा है।

वे प्रखर राष्ट्रवादी थे उन्होंने अपने दर्शन एवं वक्तव्यों में स्पष्ट कहा है कि- सम्पूर्ण विश्व को हिन्दू जीवनादर्श ही राह दिखला सकते हैं तथा निराशा एवं विभ्रम की स्थिति से उबारेंगे।

उनके मत में-विश्व समस्याओं का हल समाजवाद या पूंजीवादी लोकतंत्र में नहीं,  वरन् हिन्दूवाद है, यही एक ऐसा जीवन दर्शन है जो जीवन का विचार करते समय उसे टुकड़ों में नहीं बांटता है, अपितु सम्पूर्ण जीवन को इकाई मानकर उसका विचार करता है।

उनका एकात्म मानववाद का दर्शन मानव जीवन के सम्पूर्ण विकास और कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाला है, जो साम्यवाद और पूंजीवाद के खोखलेपन में छिपे हुए यन्त्रवाद को अपूर्ण और मानव जीवन के लिए अहितकारी सिध्द करता है।

दीनदयाल जी में प्रगाढ़, मुखर राष्ट्रवाद था जिसके प्रति वे स्पष्टवादी थे- उन्होंने भारत के राष्ट्रवाद को विश्व के राष्ट्रवाद से अलग चैतन्य, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को प्राणतत्व माना है। यह राष्ट्रवाद भारतीय सभ्यता के आरंभ से रहा है जिसकी महत्ता को उन्होंने स्थापित कर लोकव्यवहार में लाने का अभूतपूर्व कार्य किया है।

उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद को भारतीय संस्कृति के रुप में व्यक्त किया है तथा यह बतलाया है कि इस राष्ट्र की संस्कृति ही ‘राष्ट्र की आत्मा’ है।

यह भारतीय संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि ‘हिन्दू संस्कृति’ है जो राष्ट्र को एकसूत्रता में पिरोकर अखण्ड बनाए हुए है। उन्होंने इसका प्रमाण देते हुए बतलाया है कि- इतिहास साक्षी है कि जहां से ‘हिन्दू संस्कृति’ और ‘हिन्दू धर्म’ कमजोर हुआ है वह हिस्सा भी देश से कट गया है।

हम आप यह आंकलन कर सकते हैं कि उनका वैचारिक विश्लेषण कितना ज्यादा यथार्थपरक और दूरदर्शी होने के साथ ही राष्ट्रीयता की भावनाओं को समेटे हुए था।

पंडित जी ने भारतीय संविधान में ‘संघात्मक’ की बजाय ‘एकात्मकता’ के तत्व को श्रेयस्कर मानकर शिरोधार्य करने की बात की है। उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए ‘समाजवादी’ एवं ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को औचित्यहीन तथा पाश्चात्य अवधारणा को जबरदस्ती थोपा हुआ बतलाया है। इसके भी मत में उन्होंने डॉ. अम्बेडकर को उद्धृत किया था कि उन्होंने इन शब्दों को अस्वीकृत कर दिया था।

उन्होंने ‘पंथनिरपेक्ष’ व ’समाजवादी’ शब्द के पीछे छिपी हुई मंशा एवं तुष्टिकरण के प्रयासों के फलस्वरूप जन्म लेने वाली जिन समस्याओं की ओर सबका ध्यानाकर्षित करते थे, उनसे राष्ट्र आज भी जूझ रहा है तथा दिन-प्रतिदिन इसका विकृत और गंभीर स्वरूप बढ़ता ही चला जा रहा है।

पंडित जी के लिए राजनैतिक शुचिता सर्वोपरि थी तथा सत्ता प्राप्ति का उद्देश्य ही राष्ट्रहित था। उन्होंने राजनीति का अभिप्राय ही ‘राष्ट्र’ को माना है जिसमें सत्तासुख कहीं भी नहीं है, बल्कि यदि राजनैतिक नीतियों से राष्ट्रहित नहीं होता है तो वे ऐसे तमाम संगठन, राजनीति दल या सत्ता को समाप्त कर देना ही उचित समझते थे।

उन्होंने राजनीति की स्वस्थ प्रणाली के लिए राजनीतिक में-दर्शन, नेता, नीति और कार्यकर्ता के चार प्रमुख स्तंभों के परस्पर समन्वय और धरातलीय कार्यों को महत्ता प्रदान कर भारत की उन्नति के लिए- ‘इदं राष्ट्राय इदं न मम्’ के सूत्रवाक्य को आत्मसात करने के लिए पथ प्रशस्त किया है।

उन्होंने व्यक्ति से अधिक दल को, दल से अधिक सिध्दांत को, सिद्धांत से ज्यादा लोकतंत्र को और लोकतंत्र एवं राष्ट्र में गतिरोध होने पर ‘राष्ट्र’ को महत्व दिया है। पंडित जी ने धर्म को भारत का प्राण और राष्ट्र के समेकित विकास के लिए भारतीय जनता की आकांक्षाओं में ‘धर्मराज्य या रामराज्य’ को प्रत्येक भारतवासी की अन्तरात्मा का मूलस्वर माना है।

उनका सम्पूर्ण दृष्टिकोण एकदम सुस्पष्ट, प्रखर और उच्च आदर्शों एवं नीतियों पर आधारित है जो कि भारतीय जन की अन्तरात्मा के भाव हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति एवं विभाजन के पश्चात गांधी एवं नेहरू की जिद के कारण मुस्लिम जनसंख्या का पाकिस्तान में प्रत्यर्पण न होने के साथ ही लगातार तुष्टिकरण से उपजी –‘हिन्दू –मुस्लिम’ समस्याओं का निदान बतलाते हुए उन्होंने कहा है कि यह तभी संभव होघा जब मुस्लिमों की हठधर्मी -राजनीति का पराभव संभव होगा और उनके आदर्श और प्राण भारतीय राष्ट्र की ऐक्यता के प्रति जब निष्ठावान होंगे।

दीनदयाल जी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक -आध्यात्मिक, धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना को स्थापित करने वाले महान शिल्पी थे जिन्होंने अपने दूरदर्शी दृष्टिकोण, दार्शनिक चिन्तन, कुशल राजनैतिक नेतृत्व, प्रखरता एवं ओजस्विता के माध्यम से इस राष्ट्र के विकास के लिए ‘एकात्म मानववाद’ की राह से राष्ट्र में नई वैचारिक एवं राजनैतिक चेतना का सूत्रपात कर राष्ट्रोन्नति का मार्ग दिखलाया है।

उनका सम्पूर्ण दृष्टिकोण विशद्, व्यावहारिक और सम्पूर्ण विश्व को नई राह दिखलाने वाला है जिसमें लोकमंगल की लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति का मूलमंत्र विद्यमान है।

पंडित जी ने अपने व्यक्तित्व एवं कृतित्व से भारत ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में भारतीय चैतन्यता को आलोकित करने का कार्य किया है, यह राष्ट्र उनका सदैव ऋणी रहेगा।

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