रोजी-रोटी जिंदा रहने की जरूरत है

अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)
गुरुवार, 30 जुलाई 2020 (16:41 IST)
सब लोग एक समान आर्थिक परिस्थिति के नहीं होते हैं। आज की हमारी दुनिया में अति संपन्न से लेकर अति विपन्न आर्थिक परिस्थिति के लोग अपना-अपना जीवन अपने हिसाब से जी रहे हैं। भारत में लोकतंत्र और लिखित संविधान है। लोकतंत्र में लोगों को गरिमामय तरीके से जीवन जीने का अधिकार है, पर यह अधिकार कोई दिखावटी गहना नहीं है। यह अधिकार लोगों की जिंदगी में जीवंत रूप से दिखाई भी देना चाहिए।
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लोकतंत्र में लोगों के जीवन जीने के अधिकार की प्राणप्रण से सुरक्षा करना यह राज्य के सबसे अंतिम श्रेणी से लेकर सर्वोच्च श्रेणी के कर्मचारी अधिकारी और चुने हुए जनप्रतिनिधियों तक का प्राथमिक दायित्व और मूलभूत कर्तव्य है। कोरोना काल की विशेष परिस्थिति हो या लॉकडाउन जैसा जीवन सुरक्षा का आपातकालीन उपाय हो, इसमें राज्य और आम जनता दोनों से ही अतिरिक्त सावधानी की अपेक्षा होती है। पर राज्य या समाज दोनों को सामान्य काल हो या आपातकाल, मनमानी लापरवाही या भेदभाव करने का हक नहीं है।
भारत के संविधान में यह भी स्पष्टता है कि सारे प्रावधान और कानून लोक सुरक्षा, व्यवस्था और लोक कल्याण के लिए हैं। यह सब होते हुए यह भी आज के भारत और हमारे शहरों में सभी लोगों के पास हर परिस्थिति में अनिश्चितकाल तक बिना कोई रोजगार या काम-धंधा किए खुद की और परिवार की दोनों समय की रोटी और जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरा करना संभव नहीं है। यह भी आज के जीवन की सच्चाई है। आप यदि बड़े शहर या गांव में रहते हैं तो आपके दैनिक जीवन में खाने-कमाने की एक निरंतर प्रभावी कड़ी या चेन का आपके पास बने रहना जरूरी है।
 
पिछले 4 माह से भारत शासन और इंदौर जिला प्रशासन ने जो-जो उपाय सुझाए या लागू किए, उसे भारत के अधिकांश और हमारे इंदौर के हर हैसियत और आयु के नागरिकों ने आजीविका और भोजन का संकट होने पर भी किसी तरह निभाया है और आगे भी निभाएंगे। पर इसका यह अर्थ नहीं है कि शासन-प्रशासन, जनप्रतिनिधि और सभी क्षेत्रों के आगेवान लोग और नागरिकगण इस सवाल को अनदेखा करें। लोगों को प्रतिदिन निरंतर रोजी-रोटी मिले, यह भी महामारी से सुरक्षा जैसा ही हम सबकी पहली प्राथमिकता का लोकदायित्व है। पर इसे प्राणप्रण से पूरा करने का काम शासन-प्रशासन का पहला है, नागरिक तो इसमें प्रतिबंधों के अधीन मददगार होंगे ही।
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एक महत्व की बात यह है कि देश में खाने की आवश्यक वस्तुओं का कोई अभाव नहीं है। अभाव है कोरोना काल में निर्बाध रूप से हर व्यक्ति तक जीवनावश्यक भोजन सामग्री की वितरण व्यवस्था का। लॉकडाउन खोला ही इसलिए गया कि लोग रोजगार कर सकें और जीवनावश्यक वस्तुएं खरीद सकें। हमारे शहरों में बाजार की कार्यप्रणाली कैसी है, क्या यह हम सबको पता नहीं है? दुकान खुलेगी और लोग सामान खरीदने जाएंगे। किसी समय ज्यादा लोग जाएंगे, कभी कम जाएंगे, यह सामान्य काल की बात है। कोरोनाकाल में एकसाथ कम समय में ज्यादा लोग खरीदी करने न पहुंचें, इसकी कोई कार्ययोजना हमारे पास है ही नहीं, हम खोजेंगे भी नहीं और हम बनाएंगे ही नहीं तो भीड़ तो होगी ही।
 
कोरोना काल में हुए सर्वे से यह तथ्य उजागर हुआ कि हमारे इंदौर शहर की आबादी 40 लाख है। तो इसका अर्थ यह है कि हमारे शहर के शासन-प्रशासन व जनप्रतिनिधियों को प्रतिदिन 40 लाख लोगों की जीवनावश्यक जरूरतों को शहर का बाजार बिना भीड़, भगदड़ और सुरक्षित दूरी के साथ कैसे पूरा कर सकता है, इस चुनौती को हम सब स्वीकार करें और कार्ययोजना बनाए। इंदौर सरकारी शहर नहीं है, असरकारी शहर है। इसे मनमाने दंडात्मक उपायों और प्रतिबंधात्मक आदेशों से नहीं चलाया जा सकता।
 
बाजार और नागरिक दोनों ही शासन-प्रशासन से न तो अबोला रखें और न ही भयभीत भी हों। सबको एक-दूसरे को समझना चाहिए और जो-जो कमियां हमने पिछले 4 माह में शासन-प्रशासन और नागरिक व्यवहार में महसूस की हैं, उसे सभी खुले मन से दूर करें, बजाय आलोचना-प्रत्यालोचना में उलझने के। सारे अधिकारी, कर्मचारी, जनप्रतिनिधि व सभी क्षेत्रों के आगेवान लोग तथा आम नागरिक हम सब न तो एक जैसी सोच वाले हैं और न ही एक जैसी समझ और स्वभाव वाले हैं। फिर भी हम सब एक मामले में एकसमान हैं। वह यह कि हम सबकी चुनौती एक ही है। हम सबको कोरोना काल की चुनौती का मुकाबला मिल-जुलकर ही करना है। इसका कोई विकल्प नहीं है। यह बात हम सबको समझनी है।
 
एक बात हमको यह तय करनी होगी कि हम कोरोना काल में एक-दूसरे की हर तरह से मदद करेंगे। विशेष रूप से उन नागरिकों की, जो रोज काम करने के बाद ही या कमाने के बाद ही घर के भोजन की व्यवस्था कर पाते हैं। इंदौर उत्पादन नहीं, खरीदो-बेचो का शहर है। इस कारण शासन-प्रशासन और लोगों में लोभ-लालच की वृत्ति का प्रतिशत ज्यादा है। इस समय चाहे हम कोई भी हो, हमें लोभ-लालचवश ज्यादा कमाई करने का काल नहीं मानना चाहिए। हमारे पास अपने आप पर नियंत्रण करने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है।
 
कोरोना काल में लोभ-लालच, लूट-खसोट, पद का दुरुपयोग और दु:खी-दर्दी, बीमार, भूखे व रोजगारविहीन लोगों के साथ व्यवस्था के नाम पर अराजकता जैसे दृश्य खड़े करना न तो राज की सभ्यता हो सकती है, न सामाजिक, राजनीतिक और व्यावसायिक समाज की। कोरोना काल में लोगों को सस्ती, सुलभ और सुरक्षित वितरण व्यवस्था कैसे उपलब्ध कराएं, इसके नए तरीके खोजना सबसे जरूरी काम है। निहत्थे नागरिकों को किसी भी व्यवस्थागत कारण से परेशान करना, उनकी आजीविका के साधनों को नष्ट करना सभ्य और लोककल्याणकारी तरीका नहीं है।
 
रोटी और रोजी की ताकत से ही घर, समाज और व्यवस्था ठीक से चलती है। इसलिए यहां शासन-प्रशासन के कर्ताधर्ताओं की जवाबदारी सबसे ज्यादा है। होना यह चाहिए कि लोगों के लिए रोजी-रोटी पाने के अवसर को कोरोना की लड़ाई में प्राथमिक जरूरत समझा जाए। जैसे इस काल में राज्य ने स्वयं अपनी आमदनी के स्रोतों पेट्रोल-डीजल के भाव और शराब की दुकानों पर शराब विक्रय को राजकीय आय को बढ़ाने की दृष्टि से प्रारंभ किया है तो यही दृष्टि नागरिकों की रोजी-रोटी की जरूरत के बारे में भी स्वीकार करना चाहिए।
 
कोरोना के वैक्सीन की खोज जारी है। शायद जल्दी सफलता मिले, पर रोजी-रोटी के अवसरों की खोज नहीं होनी है। वे राज और समाज के पास हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हम इस मामले में महामारी से बचने के सुरक्षा उपायों की तरह रोजी-रोटी की निरंतर उपलब्धता को कहीं भी कमजोर और लुप्त न होने दें। कोरोना काल हम सबके धीरज की परीक्षा का काल है। इसमें हम चाहे राज हो या समाज, सबको धीरज के साथ ही संविधान में प्रदत्त गरिमामय जीवन को जिंदादिली से जीना है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी है। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं है और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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