लोगों के मन में एक सवाल है। सवाल छोटा नहीं बड़ा है। लोग जानना चाहते हैं इतनी बड़ी संख्या यानी हज़ारों-लाखों में नेता और कार्यकर्ता 139 साल पुरानी कांग्रेस छोड़कर 44 साल की उम्र की भाजपा में क्यों शामिल हो रहे हैं? सवाल के जवाब कई हो सकते हैं और उलट सवाल भी! मसलन, कांग्रेस आज तो काफ़ी बेहतर स्थिति में है और जो लोग छोड़ रहे हैं वे पार्टी के ख़राब समय में भी उसके साथ बने रहे हैं!
पिछले दो चुनावों (2014 और 2019) के पहले और बाद में भी इस तरह से भगदड़ नहीं मची! क्या भाजपा (या मोदीजी) को इन लोगों की तब इतनी ज़रूरत नहीं थी जितनी कि आज है? यह ज़रूरत किन कारणों से पड़ रही है? भाजपा हार के कगार पर है इसलिए? भाजपा के असली सदस्यों की संख्या ही बीस करोड़ के लगभग बताई जाती है। संघ और आनुषंगिक संगठनों के सदस्यों की संख्या अलग से है।
ऊपर के सवाल का जवाब तलाशने के लिए कुछ तथ्यों की खोज करना पड़ेगी! पहला तो यह कि जिन भी नेताओं के चालें या कहे में आकर ये कार्यकर्ता अपनी नई राजनीतिक अयोध्या की यात्रा पर निकल रहे हैं उनके नाम, जाति, पते, धंधे और धार्मिक प्रतिबद्धताएं क्या हैं? सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और ईमानदारी का रिकॉर्ड कैसा रहा है? समाज के सबसे वंचित तबकों, जिनमें कि अल्पसंख्यक भी शामिल हैं, के प्रति उनका नज़रिया संरक्षणवादी है अथवा समावेशी?
प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी दैनिक इण्डियन एक्सप्रेस ने हाल में प्रकाशित एक खोजपूर्ण खबर में बताया कि 2014 के बाद से अब तक विपक्षी पार्टियों के पच्चीस ऐसे बड़े-बड़े नेता जो भ्रष्टाचार के मामलों से जुड़ी जांचों में फंसे हुए थे भाजपा में शामिल हो गए। इनमें से 23 नेताओं को जांचों से राहत भी मिल गई। इनमें सबसे ज़्यादा दस कांग्रेस के थे। शेष में एनसीपी और शिवसेना के चार-चार, तृणमूल और टीएमसी के तीन-तीन और सपा-वाईएसआर के एक-एक थे।
अपनी दूसरी भारत जोड़ो न्याय यात्रा की समाप्ति पर 17 मार्च को मुंबई के शिवाजी पार्क में हुई विशाल जनसभा में राहुल गांधी ने बिना किसी का नाम लिए एक खुलासा किया था कि किस तरह कांग्रेस के एक बड़े नेता उनकी मां (सोनिया गांधी) के सामने पहुंचकर रोने लगे कि वे अगर भाजपा में शामिल नहीं हुए तो उनका पूरा परिवार तबाह हो जाएगा। राहुल के इस खुलासे के तुरंत बाद महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने सार्वजनिक रूप से सफ़ाई दी थी कि उन्होंने सोनिया गांधी से कोई मुलाक़ात नहीं की। सारी दुनिया को पता है कि मुंबई की आदर्श हाउसिंग सोसाइटी में फ़्लैटों के घोटाले के बाद चव्हाण को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था।
आज़ादी के बाद से ही संघ-जनसंघ (भाजपा) की विचारधारा वाले लोगों ने भी कांग्रेस में महत्वपूर्ण जगहें बना लीं थीं। जनसंघ के एक संस्थापक श्यामाप्रसाद मुखर्जी तो नेहरू के नेतृत्व में बने पहले मंत्रिमंडल (1947-1950) में वाणिज्य और उद्योग मंत्री थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और भारत के प्रथम गवर्नर जनरल सी राजागोपालाचारी द्वारा दक्षिणपंथी स्वतंत्र पार्टी की स्थापना (1959-1974) ही कांग्रेस के बढ़ते समाजवादी नज़रिए की प्रतिक्रिया में की गई थी। तत्कालीन उत्तेजना का कारण कांग्रेस के अवाडी और नागपुर संकल्पों में व्यक्त पार्टी का वामपंथी रुख़ था।
अब समझा जा सकता है कि राजाजी के पड़पोते सीआर केसवन 22 वर्षों तक तमिलनाडु कांग्रेस में रहने के बाद पिछले साल भाजपा में क्यों शामिल हो गए! आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाए कि भाजपा ने 10 अप्रैल को अपने जिन नौ उम्मीदवारों की दसवीं सूची जारी की उसमें बलिया से देश के पूर्व प्रधानमंत्री और कट्टर कांग्रेसी रहे चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को उम्मीदवार बनाया गया है।
कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने वालों में इस भय की तलाश की जा सकती है कि राहुल के नेतृत्व में खड़ी हो रही नई समावेशी पार्टी में छद्म हिंदुत्व के लिए छुपने की जगहें ख़त्म होती जा रही हैं! क्या कल्पना की जा सकती है कि जो व्यक्ति कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के तौर पर मीडिया की तमाम बहसों में छाया रहता था, जिसे पार्टी ने दो बार सिर्फ़ हारकर दिखाने के लिए टिकट दिया था, उसके अंदर छुपी बैठी हिंदुत्व की कुंडली अचानक से जाग उठी और वह भागकर भाजपा में भर्ती हो गया।
प्रो. गौरव वल्लभ नामक यह व्यक्ति कांग्रेस से त्याग पत्र देते हुए दो पन्नों के पत्र में लिखता है :…मैं जन्म से हिंदू और कर्म से शिक्षक हूं।पार्टी व गठबंधन से जुड़े कई लोग सनातन के विरोध में बोलते हैं और पार्टी का उस पर चुप रहना उसे मौन स्वीकृति देने जैसा है। वे आगे लिखते हैं : हम एक ओर जाति आधारित जनगणना की बात करते हैं और दूसरी ओर संपूर्ण हिंदू समाज के विरोधी नज़र आते हैं। प्रो. साहब कहते हैं : आर्थिक मामलों पर कांग्रेस का स्टैंड हमेशा देश के वेल्थ क्रिएटर्स (यहां अदाणी, अंबानी पढ़ा जा सकता है) को नीचा दिखाने का, उन्हें गाली देने का रहा है।
शिवसेना से दो बार सांसद रहने के बाद कांग्रेस में शामिल होकर मुंबई प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रह चुके संजय निरुपम ने पार्टी इसलिए छोड़ दी कि मुंबई की सीटों को लेकर उद्धव ठाकरे से समझौता किया गया जिसके कारण उत्तर-पश्चिम मुंबई की सीट उन्हें नहीं मिल पाई। 'जय श्री राम' का उद्घोष करते हुए निरुपम ने कांग्रेस के पांच पॉवर सेंटर्स भी गिना दिए। (सोनिया गांधी, खड़गे, राहुल, प्रियंका और वेणुगोपाल)।
कांग्रेस के नए घोषणा पत्र, जिसके प्रति गौरव वल्लभ ने आपत्ति ज़ाहिर की है, ने खादी के भीतर कट्टर हिंदुत्व के गंडे-ताबीज़ छुपाए बैठी सभी सांप्रदायिक-राष्ट्रवादी ताक़तों के लिए हर तरह की गुंजाइशें ख़त्म कर दीं हैं। घोषणा पत्र पिछड़ों और वंचितों के हक़ में सत्ता के हस्तांतरण की बात करता है। राहुल के इर्दगिर्द जो नए चेहरे नज़र आने लगे हैं उनके कारण पार्टी में दशकों से कुंडली मारकर बैठे हुए सत्ताधारियों की नींदें हराम हो गई हैं।
ये लोग उन चेहरों से अलग हैं जो किसी वक्त पार्टी में अंदरुनी लोकतंत्र और सत्ता के विकेंद्रीकरण की मांग तो करते थे, पर भाजपा में नहीं गए। राहुल गांधी की लड़ाई सिर्फ़ भाजपा के सवर्णवाद से ही नहीं बल्कि अपनी ही पार्टी में दीमकों की तरह चिपके बैठे कट्टर हिंदुत्व और पूंजीवाद के समर्थकों से भी है। ये लोग चुपचाप तरीक़ों से पार्टी के तहख़ानों में घुसकर हिन्दुत्ववादी ताक़तों के लिए मुखबिरी करते रहे हैं।
जयश्री राम के उद्घोष के साथ संजय निरुपम जब दावा करते हैं कि भारत अब एक धार्मिक राष्ट्र बन गया है और नेहरू की धर्मनिरपेक्षता ने हिंदुओं को उनके धर्म के प्रति भयभीत कर दिया था तो समझा जा सकता है कि कांग्रेस की हार के बुनियादी कारण क्या रहे होंगे! हो सकता है आने वाले समय में लड़ाई ग़रीबों की वकालत करने वाली एक धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस और उन भगोड़े कांग्रेसियों के बीच हो जो अब भाजपा में भर्ती होकर उसके हिंदुत्व को भी भ्रष्ट कर रहे हैं! (इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)