इस समय पूरे देश में उबाल है। वास्तव में जम्मू के कठुआ में एक आठ साल की बच्ची आसिफा के साथ बर्बरता की जो घटना सामने आई है वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अंदर से हिला देने वाली है। अभी तक जो कुछ सामने आया है उसे सच मान लें तो इसकी तुलना यदि किसी घटना से की जा सकती है तो दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुई निर्भया कांड से। सामान्यतः जब भी ऐसी वीभत्स घटना कहीं घटती है तो पूरे देश में गुस्सा पैदा होता है और एक ही आवाज उठती है कि दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। ऐसी प्रतिक्रिया बिल्कुल स्वाभाविक है। कठुआ मामले में पुलिस ने जो आरोप पत्र दाखिल किया है उससे गुस्सा और बढ़ा है। इसमें बच्ची को पकड़कर बंधक बनाए रखने, नशीली दवाएं खिलाने, लगातार बलात्कार करने और फिर मार दिए जाने का जो विवरण है वह एकदम जमे हुए खून में भी उबाल पैदा कर देता है। आरोप पत्र में एसपीओ के बारे में कहा गया है कि जब सब उसकी हत्या करने जा रहे थे तो उसने कहा कि थोड़ा रुक जाओ एक बार ओर बलात्कार कर लूं और उसने किया। यही नहीं उन लोगों ने उसकी हत्या करने के बाद पत्थरों से कुचला। एक आठ साल की लड़की के साथ ऐसा होने की कथा हमारे सामने आएगी तो प्रतिक्रिया क्या और कैसी होगी? किंतु सम्पूर्ण जम्मू और कठुआ का माहौल देखिए तो अलग ही तस्वीर है। वहां जांच करने वाली पुलिस टीम के खिलाफ भी चारों ओर आक्रोश है। पूरा जम्मू शत-प्रतिशत बंद रहा है। जम्मू बार एसोसिएशन खुलकर आरोपियों के पक्ष में आ गया है। धरना-प्रदर्शन हो रहा है। लोग सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं।
इस तरह दो तस्वीर है। पुलिस के आरोप पत्र को स्वीकार कर लें तो ऐसा लगेगा कि जम्मू के लोग और पूरा बार एसोसिएशन बलात्कारियों के पक्ष में खड़ा है जो शर्मनाक है। जिस तरह वकीलों ने न्यायालय में आरोप पत्र पेश करने से रोकने की कोशिश की उससे भी पहली नजर में क्षोभ पैदा होता है। किंतु विचार करने वाली बात है कि आखिर इतने लोग आरोपियों के पक्ष में क्यों खड़े हैं? क्या उनके अंदर की मनुष्यता मर गई है कि उस आठ वर्ष की मासूम के साथ हुई बर्बरता को महसूस नहीं कर रहे? क्या इतनी संख्या में लोग बलात्कारियों और हत्यारों का समर्थन कर सकते हैं? दुनिया में ऐसा नहीं होता कि एक साथ इतनी बड़ी संख्या जिसमें वकील समुदाय भी शामिल है और सभी पार्टियों के नेता भी, बलात्कारी और हत्यारे का खुलेआम साथ देते दिखें। जो प्रदर्शन हो रहे हैं उसमें लगभग सभी पार्टियों के नेता शामिल होते है। भाजपा के दो मंत्रियों ने क्या इसलिए इस्तीफा दे दिया कि मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती ने बलात्कारियों एवं हत्यारों को बचाने की इनकी मांग नहीं मानी? अगर कोई ऐसा मानता है तो उसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। सामान्य सोच में यह तर्क गले नहीं उतरता कि ये दो मंत्री या अन्य पार्टियों के नेता अपराधियों को बचाना चाह रहे हैं। कोई यदि किसी अपराधी या अपराधियों के साथ हो तो भी सार्वजनिक रुप से इतना आक्रोश प्रकट हुए सामने नहीं आता। जाहिर है, इस पूरे कांड पर जो कुछ हमारे सामने लाया गया है उससे जरा अलग नजरिए से भी विचार करने की आवश्यकता है।
मृत बच्ची का कुचला हुआ शरीर यदि बरामद हुआ है तो उसके अपराधी कोई या कुछ लोग तो हैं। जो हैं उन्हें कानून के कठघरे में खड़ा किया ही जाना चाहिए। इसे यदि कोई सांप्रदायिक रंग देता है तो वह निश्चय ही मनुष्य कहे जाने लायक नहीं है। किंतु, सजा तो वाकई उन्हीं को मिलनी चाहिए तो असली अपराधी हैं। पुलिस के आरोप पत्र को यदि थोड़ी भी गहराई से देखें तो उसमें कई प्रश्न ऐसे पैदा होते हैं जिनका उत्तर नहीं मिलता। इसी तरह उसमें कुछ ऐसी बातें भी हैं जो सामान्य तौर पर गले नहीं उतर सकती। जिस व्यक्ति सांझीराम को मुख्य आरोपी बनाया गया है वह सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारी है। उसके बारे में कहा गया है वह अपने आसपास बकरवाल समुदाय को बसते देखना नहीं चाहता था इसलिए उसने ऐसी योजना बनाई ताकि इसके डर से वो वहां से भाग जाएं। यानी एक बच्ची के साथ बलात्कार करके हत्या कर दी जाए तो बकरवाल समुदाय के लोग वहां से चले जाएंगे? पुलिस ने पूरे अपराध का आधार इसी को बनाया है। क्या आपको लगता है कि वाकई ऐसा हो सकता है? किसी समुदाय की एक मासूम लड़की के साथ बर्बरता हो जाए और वह पूरा समुदाय वहां से चला जाए ऐसी कल्पना तो कोई मूर्ख ही कर सकता है। वहां अगर तनाव है तो रोहिंग्याओं और बंगलादेशियों को लेकर। बकरवालों के वहां बसने का भी विरोध हुआ है किंतु उसे इस अपराध का आधार बना देना आसानी से पचता नहीं। इसलिए इस पूरी पुलिस कथा का आधार ही प्रश्नों के घेरे में है। इसको साबित करना भी कठिन होगा।
आगे की कथा देखिए। सांझीराम पहले अपने नबालिग भांजे को घोड़ा चराने वाली उस आठ वर्षीय लड़की का अपहरण और बलात्कार करने के लिए तैयार करता है। वह एक दोस्त को इसमें मिलाता है और दोनों मिलकर ऐसा कर भी देते हैं। दोनों उसे बेहोश कर मंदिर में बंधक बना लाते हैं। उस मंदिर की जो तस्वीर आई है उसमें कोई अलग से कमरा नहीं है। उसकी खिड़कियों में केवल ग्रील है कोई दरवाजा नहीं। उस मंदिर में कहां और कैसे लड़की को रखा गया होगा इसका उत्तर नहीं मिलता। आरोप पत्र में एक टेबुल की चर्चा है जिसके नीचे लंबे समय तक किसी को रखना संभव ही नहीं। उस मंदिर में लगातार लोग पूजा के लिए आते हैं और किसी को लड़की के वहां होने का पता नहीं चलता। 17 जनवरी को लड़की की लाश मिलती है और 15 जनवरी को वहां भंडारा हुआ था। उसमें कितने लोग आए होंगे। किसी की नजर बंधक लड़की पर नहीं गई! इसी तरह सांझीराम का भांजा मुजफ्फरनगर में उनके बेटे को फोन करता है कि तुम भी आ जाओ यदि लड़की के साथ बलात्कार करना है। वह मुजफ्फरनगर से सीधे वहां पहुच भी जाता है और बार-बार बलात्कार करता है। सांझीराम भी उससे बलात्कार करता है। यानी एक व्यक्ति अपने बेटे से बलात्कार करवाता है, अपने भांजे से बलात्कार करवाता है और स्वयं भी करता है। आप सोचिए, इस कथा पर आप यकीन कर सकते हैं? कोई बाप ऐसा होगा जो स्वयं अपने बेटे से बलात्कार करवाए? सांझीराम का बेटा विशाल मुजफ्फरनगर में जहां पढ़ता है वहां का रिकॉर्ड बता रहा है कि जिस दिन यानी 12 जनवरी को उसके कठुआ में होने की बात आरोप पत्र में है उस दिन उसकी परीक्षा थी जिसमें वह उपस्थित था। अब कुछ लोग कह रहे हैं कि उसकी जगह कोई और परीक्षा दे रहा था। यानी उसका प्रभाव इतना व्यापक था कि उसके पास बालात्कार करने के लिए फोन आया और उसने मिनटों में अपनी जगह दूसरे को परीक्षा में बिठाने का इंताजम करके स्वयं फुर्र हो गया! अगर सांझीराम ने लड़की हत्या की या करवाई तो मंदिर से अपने घर के रास्ते पर वह भी घर से करीब 60 मीटर की दूरी पर ही क्यों फेंका? वह उसे जंगल में पीछे फेंक सकता था।
आरोप पत्र में ऐसी और भी बातें हैं जो तर्कों, तथ्यों और व्यावहारिकताओं की कसौटी पर खरे नहीं उतरती। वैसे भी उतनी संख्या में लोग यदि सही न्याय की मांग कर रहे हैं तो केवल पुलिस टीम के आरोप पत्र के आधार पर उनकी अनसुनी कर देना किसी दृष्टि से उचित नहीं है। यह भी तो संभव है कि जम्मू कश्मीर में संमप्रदायिक आग भड़काने के लिए कुछ लोगों ने साजिशन बच्ची के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर मंदिर से कुछ गज की दूरी पर शव फेंक दिया हो। ऐसा करने वाले यह सोच सकते हैं कि यदि एक मुसलमान लड़की के साथ हिन्दुओं और उसमें भी मंदिर के अंदर अंजाम देने की खबर के बाद पूरे प्रदेश में आग लग सकती है। हम इस संभावना को खारिज नहीं कर सकते हैं। इसलिए लोग यदि सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं तो उसे स्वीकारा जाना चाहिए। किंतु मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती उसी आरोप पत्र के आधार पर फास्ट ट्रैक न्यायालय में मामला चलवाने पर अड़ी हुईं हैं। कुछ लोग इसे सांप्रदायिक रंग देकर आग भड़काने में भी लगे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कह दिया है कि दोषी बख्से नहीं जाएंगे। दोषी किसी सूरत में बख्से नहीं जाने चाहिएं। किंतु इतने व्यापक स्थानीय जन समुदाय की भावनाओं को नजरअंदाज करना तो न्याय का तकाजा नहीं है। जम्मू के लोग भी तो यही कह रहे हैं कि मृतका बच्ची के साथ सही न्याय हो एवं दोषियों को सजा मिले। अगर लोगों को पुलिस जांच पर विश्वास नहीं है तो मामले को तत्क्षण सीबआई को सौंपा जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश के उन्नाव का मामला सीबीआई को सौंपा जा सकता है तो फिर कठुआ का क्यों नहीं।