संघ ने जितनी व्यापक तैयारी से 3 दिन का राष्ट्रीय समागम आयोजित कर अपने से जुड़े जितने विषय हैं, जिन-जिन मुद्दों पर आलोचना होती है, सब पर विस्तार से बात रखी, उपस्थित मुद्दों पर भी मत रखा और अगर कुछ कमी रह गई तो उसे प्रश्नों के द्वारा पूरा किया। उसके बाद दुराग्रहरहित व्यक्तियों का मन साफ हो जाना चाहिए। यह भारत में किसी संगठन द्वारा अपनी विचारधारा और मत को इतने व्यापक पैमाने पर और विस्तार से रखने वाला पहला कार्यक्रम था।
संघ ने अपने विरोधी राजनीतिक दलों और कुछ बुद्धिजीवियों को भी निमंत्रण दिया था। संघ द्वारा विरोधियों के साथ संवाद करने की एक लोकतांत्रिक पहल थी जिसे ठुकराना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था। संवाद लोकतंत्र का प्राणतत्व है। यह अत्यंत ही गैरलोकतांत्रिक आचरण था। आप देश के सबसे बड़े संगठन परिवार के मातृ संगठन को अछूत बनाकर कब तक रख सकते हैं?
प्रश्न उठता है कि संघ को आज इसकी आवश्यकता महसूस क्यों हुई? जिस ढंग से संघ पर अनेक आरोप लगाए जाते है, उसके विचारों की मनमानी व्याख्या होती है, हर बात में राजनीतिक दल तथा बुद्धिजीवियों का एक वर्ग संघ को घसीटता है, उसके सारे कार्यों को केवल सत्ता पाकर विचार लादने के लक्ष्य के रूप में वर्णित किया जाता है, बहुत सारे लोग संघ या उसके दूसरे संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं, उनके मन में भी भ्रांतियां पैदा हो जातीं हैं, तो इन सब पर एक बार समागम करके विस्तार से अपना पक्ष रख दिया जाए।
पिछले कुछ वर्षों में हिन्दुत्व के नाम पर जगह-जगह उच्छृंखल तत्व जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, सोशल मीडिया पर हिन्दुत्व के नाम पर जैसी अनर्गल बातें की जा रही हैं, उनको भी संदेश देना जरूरी था कि संघ का हिन्दुत्व दर्शन क्या है? संघ परिवार के भीतर भी ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है, जो अपनी विचारधारा के बारे में भ्रमित रहते हैं इसीलिए संघ ने उसे सोशल मीडिया पर भी लाइव प्रसारित किया था ताकि देश-विदेश में जहां भी लोग चाहें, वे सुन सकते हैं।
इसके बाद यह प्रश्न उठता है कि मोहन भागवत द्वारा इतनी विस्तृत व्याख्या और स्पष्टीकरण के बाद क्या वाकई संघ का नया चेहरा आएगा? वैसे तो भागवत ने संघ की स्थापना से बात आरंभ की और बताया कि कैसे इसके संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के क्रांतिकारी आंदोलन से कांग्रेस में आने और फिर संघ की स्थापना से शुरुआत की। इससे निष्कर्ष निकलता है कि डॉ. हेडगेवार ने जो कुछ सूत्र रूप में दिया, संघ उसी को आगे विस्तृत कर रहा है।
यहां ध्यान रखिए, 1942-43 तक संघ के प्रति ऐसा विद्वेष और नफरत का भाव नहीं था, जो आज है। कांग्रेसी, क्रांतिकारी सब मिलते थे। सुभाषचन्द्र बोस ने भी हेडगेवार से जब वे अंतिम समय में बीमार थे, मुलाकात की। संघ ने सीधे किसी आंदोलन में भाग न लेकर सिर्फ देशभक्त, निर्भीक और समर्पित स्वयंसेवकों के निर्माण का दायित्व अपने ऊपर लिया था। वह स्वयंसेवक किसी आंदोलन में भाग ले सकता था, किसी संगठन का सदस्य भी बन सकता था। आज संघ के ज्यादातर आनुषंगिक संगठन स्वयंसेवकों ने ही समय-समय पर खड़े किए। भागवत ने यहां तक कह दिया कि स्वयंसेवक चाहे तो किसी राजनीतिक दल का भी सदस्य बन सकता है।
यह मान लेना कि संघ ने बदलाव नहीं किया है, गलत होगा। पहले कु.सी. सुदर्शन तथा अब भागवत ने अपने नेतृत्व में विचार और व्यवहार के स्तर पर संघ को बदला है। विरोधी आज भी 1966 की 'बंच ऑफ थॉट' या 'विचार नवनीत' को गलत उद्धृत करके संघ को कठघरे में खड़ा करते हैं। 52 वर्षों में बहुत कुछ बदला है। भागवत ने साफ किया कि वो बातें उस समय की परिस्थितियों में कही गईं। हम बंद संगठन नहीं हैं।
उनकी बातों से स्पष्ट है कि हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की मूल अवधारणा पर तो कायम है किंतु इसकी व्याख्या धीरे-धीरे ज्यादा स्पष्ट और मान्य हुई है। किसी भी संगठन का क्रमिक विकास होता है। स्वामी दयानंद ने जो आर्य समाज स्थापित किया वह आज उस रूप में नहीं है। स्वामी विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन काफी बदल चुका है। हालांकि संघ और इन दोनों संगठनों में अंतर यह है कि ये आज सिमटते हुए संप्रदाय जैसे रह गए हैं, जबकि यह न संप्रदाय बना न सिमटा, इसका सतत विस्तार हुआ है। यह बताता है कि देश, काल, परिस्थिति के अनुसार मूल हिन्दुत्व पर टिके रहते हुए ही उसकी व्याख्या को धीरे-धीरे ज्यादा स्पष्ट किया है।
संघ की सबसे ज्यादा आलोचना हिन्दुत्व को लेकर ही होती है। हिन्दुत्व कोई मजहब या कोई पूजा की पद्धति नहीं है। यह जीवन-दर्शन है, जो विविधताओं से परिपूर्ण है। भागवत ने ठीक ही कहा कि हिन्दुत्व ऐसा नहीं है जिसमें दूसरे मजहब न समा सकें। यदि मुसलमान इसमें नहीं आ सकते तो यह हिन्दुत्व होगा ही नहीं? यह उन लोगों के लिए संदेश है, जो हिन्दुत्व के नाम पर विकृत तरीके की सोच और व्यवहार के शिकार हैं।
हिन्दुत्व पर आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद, दयानंद, महर्षि अरविंद, महात्मा गांधी, मदनमोहन मालवीय आदि ने काफी विस्तार से विचार दिया है। इसके पूर्व वेद, उपनिषद से लेकर पुराणों में विशद वर्णन है। मोहन भागवत के भाषण का निष्कर्ष यही है कि संघ ने इन सारे का एक समुच्चय रूप देकर परिस्थिति के अनुरूप बनाया है। भागवत ने कहा कि विविधता हिन्दू संस्कृति की शक्ति है, इसे कमजोरी के रूप में नहीं देखा जा सकता। उन्होंने कहा कि विश्व में हिन्दुत्व की स्वीकार्यता बढ़ रही है। पर भारत में पिछले डेढ़ से दो हजार सालों में धर्म के नाम पर अधर्म बढ़ा, रूढ़ियां बढ़ीं इसलिए भारत में हिन्दुत्व के नाम पर रोष होता है। धर्म के नाम बहुत अधर्म का काम हुआ है इसलिए अपने व्यवहार को ठीक करके हिन्दुत्व के सच्चे विचार पर चलना चाहिए।
उनसे पूछा गया कि हिन्दुत्व, हिन्दूनेस और हिन्दुइज्म क्या तीनों एक ही हैं? उन्होंने उत्तर दिया- नहीं, इज्म यानी वाद एक बंद चीज मानी जाती है, उसमें विकास के लिए खुली राह नहीं होती है। हिन्दुत्व एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। हिन्दुत्व अन्य मतावलंबियों के साथ तालमेल कर चल सकने वाली एकमात्र विचारधारा है। भारत में रहने वाले सभी अपने हैं। मेरी दृष्टि में हिन्दुत्व की इससे बढ़िया व्याख्या नहीं हो सकती। कहा गया है- 'यस्तु सर्वाणि भूतानि, सर्वभूतेषु च आत्मन:' यानी सभी में एक ही तत्व है। सब मुझ में हैं और मैं सब में हूं। इसमें किसी के प्रति भेदभाव की गुंजाइश कहां है? एक उदाहरण अथर्ववेद के 'पृथिवी सूक्त' का दिया जा सकता है। इसमें ऋषि से श्ष्यि प्रश्न करते हैं।
'ऋषिवर! हमारी इस धरती के निवासियों का सृजनात्मक स्वरूप क्या है?'
ऋषि उत्तर देते हैं- 'नाना जाति: नाना धर्मा: नाना वर्णा:, नाना वर्चस यथोकसम्' अर्थात हमारी इस धरती पर विविध जातियों, विविध धर्मों, विविध वर्णों और विविध भाषा-भाषियों का निवास है।
शिष्य कौतुहल से भरकर फिर प्रश्न करते हैं- 'यदि हमारी इस भूमि के निवासियों में इतनी विविधता है, तब यहां एकता कैसे संभव होगी?'
ऋषि उत्तर देते हैं- 'यदि इस एक सिद्धांत पर लोग आचरण करें कि 'माता: भूमि: पुत्रोअहम् पृथिव्या' अर्थात यह भूमि माता-पिता की, इस पृथ्वी की हम संतान हैं, तो सहजभाव से सब परस्पर भाई-भाई बन जाते हैं और तब सरलता से 'विविधता में एकता' हो सकती है।'
शिष्य फिर पूछते हैं- 'क्या एकता के लिए इतना यथेष्ट है?'
ऋषि उत्तर देते हैं- 'नहीं, उन्हें एक बात और करनी होगी और वह यह कि 'वाच: मधु' अर्थात जब परस्पर बात करें, वाणी में मिठास हो, कटुता या हिंसा न हो।'
मोहन भागवत ने हिन्दुत्व के इसी व्यापक स्वरूप को संघ का सिद्धांत बताया है। हिन्दू राष्ट्र का यह अर्थ नहीं कि हम संविधान नहीं मानते और जबरन परिवर्तन कर अन्य मजहबों के अधिकार छीन लेंगे। दूसरे, इसे हम हिन्दू राष्ट्र मानते हैं, बनाने की आवश्यकता ही नहीं। उन्होंने गोरक्षा से लेकर जनसंख्या नीति, भाषा, शिक्षा नीति, जातिभेद और छुआछूत, अंतरजातीय एवं अंतरधर्मीय विवाह, महिलाओं के सशक्तीकरण, यहां तक कि समलैंगिकता पर भी विचार प्रकट किए और सब में बनाई गई छवि के विपरीत बिलकुल प्रगतिशील और उदार विचार।
गोरक्षा के नाम पर हिंसा की उन्होंने तीखी आलोचना की। कहा कि कानून हाथ में लेने वालों पर ही कार्रवाई होनी चाहिए। गोरक्षा करने वाले गाय को घर पर रखें, उसे खुला छोड़ेंगे तो आस्था पर सवाल उठेगा इसलिए गो संवर्धन पर विचार होना चाहिए। अच्छी गौशाला चलाने वाले कई मुसलमान भी हैं।
भाषा के बारे में उन्होंने कहा कि हम अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देना शुरू करें। भारत की सभी भाषाएं हमारी अपनी हैं। किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं है। अंग्रेजी का हौवा जो हमारे मन में है उसको निकालना चाहिए। देश का काम अपनी भाषा में हो, इसकी आवश्यकता है। हिन्दी की बात पुराने समय से चली है। अधिक लोग इसे बोलते हैं इसीलिए चली है। लेकिन इसका मन बनाना पड़ेगा, कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। उन्होंने जाति व्यवस्था को जाति अव्यवस्था कहा, अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने की बात की। आरक्षण को अभी आवश्यक बताया लेकिन कहा कि समस्या आरक्षण की राजनीति है।
इस प्रकार देखें तो संघ ने अपने को पूरी तरह खोलकर देश के सामने रख दिया है। थोड़े शब्दों में कहें तो उन्होंने चारित्र्य संपन्न देश जिसके नागरिक सुशील हों, ज्ञान-संपन्न देश, संगठित समरस, समतायुक्त, शोषणमुक्त समाज को भविष्य का भारत बताया है। उन्होंने एक ऐसे आदर्श देश का लक्ष्य पेश किया है, जो दुनिया के गरीब, वंचित और पिछड़े देशों की प्रगति के लिए सक्रिय रहने के साथ विश्व कल्याण के लिए काम करे। हमारे महापुरुषों ने ऐसे ही भारत की कल्पना की थी।
दुराग्रही, कुंठाग्रस्त, मानसिक ग्रंथि के शिकार निहित स्वार्थी बुद्धिजीवी, सक्रियतावादी, विधिवेत्ता तथा राजनीतिक दल कुछ भी कहें, संघ ने व्यापक पैमाने पर सबको संदेश दिया है और चूंकि यह सबके समझने लायक है, सकारात्मक है इसलिए इसका मनोवैज्ञानिक असर होगा। नए समर्थक पैदा होंगे। हां, इससे हिन्दुत्व के नाम पर दूसरे मजहब से नफरत करने वाले, उन पर वैचारिक हमला करने वाले निराश और क्षुब्ध होंगे। किंतु काम करने वालों को बिलकुल स्पष्ट दिशा मिल गई है कि संघ क्या है, क्या चाहता है और कैसे काम करना चाहता है। यह समय की मांग थी और योजनापूर्वक व व्यवस्थित तरीके से बात रखकर भागवत ने नए दौर की शुरुआत की है।