बठिंडा से उठा बवाल बवंडर नहीं बन पाया!

श्रवण गर्ग

बुधवार, 12 जनवरी 2022 (16:40 IST)
देश के आम नागरिकों को कुछ भी सूझ नहीं पड़ रही है कि कोरोना की नई लहर में अपनी स्वयं की रक्षा की कोशिशों के बीच वे प्रधानमंत्री के पंजाब दौरे के दौरान उनके सुरक्षा इंतज़ामों में हुई चूक को लेकर किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करें। घटना निश्चित ही काफ़ी गंभीर रही होगी, क्योंकि प्रधानमंत्री का पंजाब के अफ़सरों को कथित तौर पर यह कहना कि 'अपने सीएम को थैंक्स कहना कि मैं बठिंडा एयरपोर्ट तक ज़िंदा लौट पाया', काफ़ी मायने रखता है। नरेन्द्र मोदी को उनके गुजरात और दिल्ली के 20 साल के शासनकाल के दौरान इस तरह से 'ऑन-द-स्पॉट' नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए पहले कभी देखा या सुना नहीं गया। यह भी तय है कि इस तरह की किसी चूक की कल्पना भाजपा के शासन वाले राज्य में क़तई नहीं की जा सकती।
 
प्रधानमंत्री की सलामती के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जाप और पूजा-पाठ में जुटे मुख्यमंत्री और अन्य नेता इस बात से शायद परेशान होंगे कि पंजाब की घटना को लेकर लोग सामूहिक रूप से विलाप क्यों नहीं कर रहे हैं। बठिंडा एयरपोर्ट की घटना के ब्योरे जब विस्तार से जारी हुए (या करवाए गए) तब चुनावी तैयारियों में जुटे सत्तारूढ़ दल के नेताओं को उसके सहानुभूति की लहर में तब्दील हो जाने की उम्मीदें रही होंगी, पर वैसा नहीं हुआ।
 
इसमें दो मत नहीं कि प्रधानमंत्री के क़द के व्यक्ति की सुरक्षा व्यवस्था में जो चूक हुई है, वह चिंताजनक है। इस तरह की चूकों का असली ख़ामियाज़ा भी अफ़सरों को ही भुगतना पड़ता है। ममता बनर्जी और चरणजीत सिंह चन्नी में जितना फ़र्क़ है, उतना तो ये अफ़सर भुगतने भी वाले हैं। यह कहना कठिन है कि बठिंडा की घटना का राजनीतिक असर पंजाब विधानसभा के चुनाव परिणामों पर या भाजपा और कैप्टन अमरिंदर सिंह के पक्ष में कितना पड़ेगा? भाजपा को फ़ायदे के बजाय नुक़सान भी हो सकता है। प्रधानमंत्री के फ़िरोज़पुर के हुसैनीवाला से बग़ैर रैली किए दिल्ली वापस लौट आने का परिणाम यह भी हो सकता है कि नवजोत सिंह सिद्धू की मंशा के विपरीत चन्नी और ज़्यादा मज़बूती के साथ चंडीगढ़ स्थित विधानसभा में लौट आएं।
 
चुनाव परिणामों की बात को फ़िलहाल छोड़ दें तो बठिंडा एयरपोर्ट पर जो भी हुआ, उससे कुछ दूसरे सवाल भी उपजते हैं। पहला यह कि किसी भी जीते-जागते लोकतंत्र में उस देश के मतदाताओं/नागरिकों द्वारा अपनी मांगों को लेकर किए जाने वाले शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शनों को देश के अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों की जान पर ख़तरे की आशंका से जोड़कर देखना अथवा प्रचारित करना प्रजातांत्रिक मूल्यों और व्यवस्थाओं में किस सीमा तक उचित समझा जाना चाहिए। क्या दुनिया की अन्य लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी हमारी तरह का ही सोच क़ायम है?
 
दूसरा यह कि सुरक्षा व्यवस्था में चूक इस के अनुभव के बाद क्या प्रधानमंत्री पंजाब की किसी अन्य चुनावी सभा या कार्यक्रम में सड़क मार्ग से भाग लेना बंद कर देंगे? अगर अपनी मांगों को लेकर किसान असंतुष्ट हैं तो संभव है कि बठिंडा के फ़्लायओवर जैसे प्रदर्शनों का सिलसिला कभी बंद ही न हो। नाराज़ तो पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट-मुसलिम किसान भी हैं। तो क्या प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य बड़े नेता इस क्षेत्र का चुनावी दौरा नहीं करेंगे? पश्चिमी उत्तरप्रदेश ही नहीं, पूर्वांचल भी किसानों की नाराज़गी के दौर से गुज़र रहा है जबकि वहां इस तरह का कोई आंदोलन ही नहीं है।

 
सवाल यह भी बनता है कि किसी भी विशिष्ट अथवा अतिविशिष्ट व्यक्ति की सुरक्षा-व्यवस्था को भेद पाने की एक ऐसे संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र में कोई कैसे हिम्मत कर सकता है, जो हमारे जांबाज़ सैनिकों की नज़रों में चौबीसों घंटे क़ैद रहता है? घटनास्थल पाक सीमा से सिर्फ़ 23 किलोमीटर दूर बताया गया है। जिस फ़्लाईओवर का ज़िक्र घटना के संदर्भ में किया जा रहा है, वहां प्रधानमंत्री को 15 से 20 मिनट रुकना पड़ा था। भारतीय वायुसेना के बहादुर जवान तो 5 मिनट से कम समय में अपना रक्षा कवच वहां खड़ा कर सकते हैं। प्रदर्शनकारी तो क्या, कोई परिंदा भी प्रधानमंत्री के क़ाफ़िले तक पहुंचने की हिम्मत नहीं कर सकता था।
 
इतना ही नहीं, एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) के विशेष तौर पर प्रशिक्षित कोई 3 हज़ार जवानों के ज़िम्मे केवल एक ही काम है। वह यह कि केवल एक व्यक्ति यानी प्रधानमंत्री को सुरक्षा प्रदान करना। एसपीजी का सालाना बजट 600 करोड़ से अधिक का बताया जाता है। जांच का असली विषय तो यह होना चाहिए कि सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रहे तमाम वीडियो में भाजपा के जिन कार्यकर्ताओं को प्रधानमंत्री के क़ाफ़िले के नज़दीक उनकी जय-जयकार करते हुए दिखाया जा रहा है, वे वहां तक कैसे पहुंच पाए?
 
पंजाब के अफ़सरों को प्रधानमंत्री ने जो भी कहा होगा, उसकी आधिकारिक पुष्टि होना अभी बाक़ी है। हो सकता है कि इस संबंध में प्रधानमंत्री के कुछ बोलने तक वह पुष्टि न भी हो। अभी तो एक संवाद एजेंसी द्वारा जारी खबर पर ही सारा बवाल मचा हुआ है। मोदी की दिल्ली वापसी के बाद का घटनाक्रम भी यहीं तक सीमित है कि उन्होंने राष्ट्रपति से मुलाक़ात की। घटना की जांच के बिंदुओं में भी सुरक्षा व्यवस्था में चूक ही शामिल है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बठिंडा के पुलिस प्रमुख व 5 अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से इसी बाबत जवाब-तलब किया है।
 
संवाद एजेंसी के समाचार को अगर (खंडन जारी होने तक) सही मान लिया जाए तब भी प्रधानमंत्री की 'त्वरित टिप्पणी' को एक 'ओवर-रिएक्शन' मानते हुए नागरिकों द्वारा घटना पर ज़्यादा चिंता प्रकट नहीं करने को उचित ठहराया जा सकता है। चुनावों के ऐन पहले इस तरह की 'ऑन-द-स्पॉट' टिप्पणियों को परिणामों को लेकर सत्तारूढ़ दल की ऊहापोह के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है। इन ऊहापोह में यह आशंका भी शामिल की जा सकती है कि घटना का कोई चुनावी लाभ तो प्राप्त नहीं हो, उलटे एक और अल्पसंख्यक समुदाय सत्तारूढ़ दल से अब पूरी तरह ही दूर छिटक जाए।
 
आंदोलनकारियों के संगठन 'संयुक्त किसान मोर्चा' ने प्रधानमंत्री की जान को ख़तरे संबंधी लगाए गए आरोपों को पंजाब की जनता और आंदोलन का अपमान बताते हुए कहा है कि असली ख़तरा तो उनकी (किसानों की) जानों को अजय मिश्रा टेनी जैसे 'अपराधियों' से है, जो केंद्र में मंत्री भी बने हुए हैं और खुलेआम घूम भी रहे हैं। 
 
सुरक्षा इंतज़ामों को लेकर प्रधानमंत्री के कथित तौर पर 'आपा खो देने' को यही मानते हुए स्वीकार कर लिया जाना चाहिए कि मोदी इस समय दोहरे दबाव में हैं : एक तरफ उन्हें उत्तरप्रदेश और 3 अन्य राज्यों (उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर) में अपनी पार्टी की सरकारें बचानी है और पंजाब को कांग्रेस से मुक्त कराना है। दूसरी तरफ उन्हें कोरोना के ताज़ा प्रकोप से नागरिकों की जानें सुरक्षित करना है। उनकी बाक़ी समस्याएं अपनी जगह पूर्ववत क़ायम हैं ही।
 
चुनाव की तारीख़ों का ऐलान हो चुका है। अत: बठिंडा एपिसोड को मतदान संपन्न हो जाने तक भुला दिया जाना चाहिए। 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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