उच्चतम न्यायालय द्वारा मुस्लिम महिलाओं के गुजारे भत्ते के संदर्भ में दिए फैसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सहित कई मुस्लिम संस्थाओं और व्यक्तियों की प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही है जैसे एक साथ तीन तलाक संबंधी फैसला पर थी। तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ता मांग सकती हैं। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 तथा अब भारतीय न्याय संहिता धारा 144 में गुजारा भत्ता प्राप्त करने का प्रावधान है जो सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होती है।
निश्चित रूप से इस फैसले ने 1985 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए शाहबानो मामले के फैसले की स्मृतियां ताजा कर दी है जब इसी तरह के फैसले के विरुद्ध देश भर में मुस्लिम संस्थाओं और संगठनों ने सड़कों पर विरोध प्रदर्शन शुरू किया था। सबका एक ही स्वर था कि न्यायालय हमारे मजहबी मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
हमारे परिवार, शादी विवाह, तलाक, संपत्ति आदि मामले शरिया कानून के अनुसार चलेंगे और उसमें न्यायालय का हस्तक्षेप हमें स्वीकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने तब शाहबानो के पति मोहम्मद अहमद खान को धारा 125 के अंतर्गत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। उसके बाद राजीव गांधी सरकार ने सन् 1986 में मुस्लिम महिला तलाक पर (अधिकारों का संरक्षण) कानून पारित कर इस फैसले को पलट दिया। उसमें इद्दत की अवधि, जो 90 दिन की होती है, के अलावा पतियों को गुजारा भत्ता देने की कानूनी अनिवार्यता से मुक्त कर दिया गया था। अब इन संगठनों और संस्थाओं की आक्रामकता में काफी कमी है, भाव लगभग वही है। क्या यह मान लिया जाए कि ये जो प्रतिक्रिया दे रहे हैं वही सही है? बिल्कुल नहीं।
वर्तमान फैसला 1986 के उसे कानून को भी कटघरे में खड़ा करने वाला है। वैसे वर्तमान फैसले में न्यायालय ने उसे कानून की भी व्याख्या की है। इस फैसले में 2019 में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा एक साथ तीन तलाक रोकने के लिए बनाए कानून मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण अधिनियम के तहत दिए गए गैर कानूनी तलाक की पीड़िता के गुजारा भत्ते के बारे में भी व्यवस्था दी गई है। वास्तव में इस कानून के पीछे भी धारणा यही थी कि मुस्लिम महिलाएं मजहब की आड़ में शोषित और पीड़ित न हों। न्यायालय की यह टिप्पणी ध्यान देने योग्य है कि गुजारा भत्ता खैरात नहीं है बल्कि महिलाओं का अधिकार है। वास्तव में इस फैसले से मुस्लिम विवाहित महिला विशेष कर तलाकशुदा मुस्लिम महिला के गुजारा भत्ता प्राप्त करने के कानूनी अधिकार पर इस फैसले से स्थिति स्पष्ट हो गई है।
हालांकि न्यायालय ने इस संबंध में कोई पहला फैसला नहीं दिया है। मुस्लिम महिला को भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में गुजारा भत्ता प्राप्त करने के अधिकार पर पहले भी मुहर लगाई थी। इस फैसले में धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता प्राप्त करने और शाहबानो फैसले के बाद आए 1986 के कानून पर तुलनात्मक विचार किया गया है जो पहले नहीं हुआ था। तो इसका कानूनी दृष्टि से महत्व यह है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के धारा 125 में गुजारा भत्ता प्राप्त करने को लेकर मौजूद कानूनी भ्रम खत्म हो गया है। मुस्लिम पुरुष इसी धारा की आड़ लेकर अपना बचाव करते थे।
वर्तमान मामले में तेलंगाना के मोहम्मद अब्दुल समद ने भी इसी धारा की आड़ लेकर अपनी तलाकशुदा पत्नी को गुजारा भत्ता देने से बचने की कानूनी रणनीति अपनाई थी। वैसे 2001 में डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने 1986 के कानून की व्याख्या करते हुए कहा था कि महिलाओं के अधिकार इद्दत की अवधि के आगे भी रहते हैं। उस फैसले के बाद ही अधिनियम में लागू की गई रोक एक तरह से अप्रभावी हो गई।
ध्यान रखिए डेनियल लतीफी ने ही उच्चतम न्यायालय में शाहबानो के पक्ष में वकालत किया था। उच्चतम न्यायालय ने शाहबानो मामले में 1985 के फैसले में कहा था कि धारा 125 में मुस्लिम महिला भी पति से भरण पोषण पाने की हकदार है। जब 2017 के सायराबानो मामलों में उच्चतम न्यायालय ने एक साथ तीन तलाक को असंवैधानिक और अवैध करार दे दिया था तो अब महिलाओं के विरुद्ध फैसला आने का कोई प्रश्न नहीं था। 2009 में भी उच्चतम न्यायालय ने मौलाना अब्दुल कादिर मदनी मामले में कहा था कि रीलिजन का पालन करने के अधिकार में दूसरों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने का अधिकार शामिल नहीं है।
लैंगिक समानता के परिप्रेक्ष्य में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि पर्सनल लॉ संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए। 2014 के शमीम बानो बनाम अशरफ खान मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि मुस्लिम महिला तलाक के बाद भी अपने पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है और मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष इसके लिए आवेदन कर सकती है। अब किसी महिला को तलाक के बाद मुस्लिम पति से गुजारा भत्ता लेने के लिए न्यायालय के समक्ष न इतने चक्कर काटने पड़ेंगे और न उन्हें इस तरह शरिया कानून से लेकर कानूनों की लंबी चौड़ी व्याख्या करनी होगी।
1986 के कानून के रहते हुए भी मुस्लिम महिला को अब समस्या नहीं आएगी। 2019 के तीन तलाक विरोधी कानून तथा वर्तमान फैसला आगे से ऐसे सभी मामलों में न्यायिक फैसले का आधार बनेगा।यह मामला तेलंगाना से जुड़ा हुआ था। उच्च न्यायालय ने 13 दिसंबर , 2023 को मुस्लिम महिला को धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। मोहम्मद अब्दुल समद ने उसे फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी। हालांकि अभी अब्दुल समद के पास बड़ी पीठ में जाने का रास्ता बचा हुआ है किंतु वहां भी अलग कुछ होगा यह मानने का कोई कारण नहीं है। न्यायालय ने इसमें पहले के कई कानून और फैसलों की नए सिरे से व्याख्या कर दी है।
न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि 2019 का मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण की धारा 5 के अंतर्गत मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है या फिर वह महिला पूर्व की दंड प्रक्रिया धारा 125 तथा वर्तमान भारतीय न्याय संगीता 144 के तहत भी गुजारा भत्ता की मांग कर सकती है। अगर गुजारा भत्ता की अर्जी लंबित रहने के दौरान ही महिला को तीन तलाक दे दिया गया है तो वह धारा 125 में या फिर अधिनियम 2019 के अंतर्गत राहत मांग सकती है। इस तरह शीर्ष न्यायालय ने 2019 के कानून और धारा 125 के प्रावधानों को भी स्पष्ट कर दिया है और कहा है कि 2019 का कानून धारा 125 में उपलब्ध राहत के अलावा है।
धारा 125 और मुस्लिम महिला तलाक पर अधिकारों का संरक्षण अधिनियम 1986 दोनों के प्रावधान एक साथ लागू हो सकते हैं। न्यायालय का मानना है कि 1986 के कानून से धारा 125 में दिए गए अधिकार समाप्त नहीं होते हैं। पर्सनल लॉ के मुताबिक शादी करने वाली मुस्लिम महिला के पास दोनों कानून में गुजारा भत्ता प्राप्त करने का विकल्प व अधिकार है। यानी वह दोनों कानून में राहत मांग सकती है या दोनों में से किसी एक कानून में राहत ले सकती है।
इस तरह देखें तो न्यायालय ने खंड में व्याख्या करने की जगह अब तक के सभी फैसलों और संबंधित कानूनों को एक साथ मिलाकर निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है। वस्तुत मुस्लिम संस्थाएं और संगठन एक साथ तीन तलाक और महिलाओं के अधिकार व गुजारा भत्ते पर अभी तक मजहब की झूठी आड़ लेकर मनमाना रवैया अपना रहे थे। अनेक मुस्लिम विद्वानों ने ही स्पष्ट किया तथा न्यायालय में साफ हो गया कि ऐसी कोई व्यवस्था शरिया में नहीं थी। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था एवं सत्ता तंत्र की मानसिकता ऐसी थी कि मुसलमान से संबंधित सामाजिक सुधार के विषय को छूने से समस्याएं बढ़ जाएगी। सबसे ज्यादा भय मुस्लिम वोट खिसक जाने का था। राजीव गांधी को उनके लोगों ने यही समझाया तथा मुला मौलवियों से मिलाया था।
तब राजीव सरकार में मंत्री रहे आरिफ मोहम्मद खान ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई और मंत्री पद तक त्याग दिया। तब मुस्लिम समाज के अंदर उनकी सुनने वाले बहुत कम लोग थे। बाद के न्यायालयों के फैसलों ने साफ कर दिया की आरिफ मोहम्मद खान जैसे लोग ही सही थे और वही अपने समाज को सही दिशा देना चाहते थे तथा महिलाओं के गरिमा और सम्मान की रक्षा के साथ खड़े थे जो कहीं से भी इस्लाम विरोधी नहीं था दुर्भाग्य से आज भी भाजपा को छोड़ दें तो किसी राजनीतिक पार्टी ने उच्चतम न्यायालय के इस फैसले का खुलकर स्वागत नहीं किया है। सेक्यूलरवाद एवं अल्पसंख्यक संरक्षण के नाम पर झंडा उठाए हुए पत्रकारों की भी चुप्पी शर्मनाक है।
कल्पना कीजिए अगर आज केंद्र की सत्ता भाजपा के हाथों नहीं होती तो सरकार कितने बड़े दबाव में होती। अब समय बदल गया है। चक्र को मोड़ कर 1985 के शाहबानो मामलों तक नहीं ले जाया जा सकता। जब तीन तलाक को ही नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद द्वारा गैर कानूनी करार देने का प्रस्ताव पारित कर दिया तो वहां से फिर पहले की अवस्था में सरकार लौटने की सोच भी नहीं सकती। आज उच्चतम न्यायालय का फैसला संसद द्वारा नहीं पलटा जाएगा। यही बदला हुआ भारत है जिसको हर स्तर पर समझने और महसूस करने की आवश्यकता है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)