शिकार खेलने और देखने के शौक की भारत में सदियों पुरानी परंपरा रही है। मोटे तौर पर आदमी के विकास के साथ-साथ ये प्रक्रिया निरंतर विकसित हुई। कभी सिर्फ पेट भरने का माध्यम बना, तो कभी पेट भरने के साथ आदि मानव के खेल का अहं हिस्सा बना और ये सिलसिला बदस्तूर लंबे मानवकाल में जारी रहा।
इस क्रम में न जाने कितनी ही प्रजातियां खत्म हुईं और विलुप्ति की कगार पर पहुंचीं। भारत सरकार ने समय रहते इसको न सिर्फ गैरकानूनी घोषित किया बल्कि जंगली जानवरों को संरक्षण भी दिया।
लेकिन न जाने क्यों कौतूहल आज भी हम सब में है अपने वन्य जीवों और जानवरों को जानने-समझने का। और अगर बात बाघ की हो तो उसको खुले सैकड़ों एकड़ जंगल में ढूंढकर देखने का आनंद भी शायद किसी आखेट से कम नहीं। दिखाई दिया तो समझिए आपने आंखों से शिकार कर लिया और बदकिस्मती से नहीं भी दिखा तो भी उसको ढूंढने के आनंद को बयान कर पाना मुश्किल है। इसीलिए लाखों पर्यटक प्रतिवर्ष राजाजी उद्यान, नंदन कानन, कान्हा, बांधवगढ़, जिम कॉर्बेट के जंगलों की खाक छाना करते हैं एक उम्मीद और जज्बे के साथ।
भारतीय रेल ने भी उन लाखों बाघ के शौकीनों की मूलभूत जरूरत को समझा और उनकी मदद करने के मकसद से उम्मीदों के सफर की नींव रखी। आपको याद होगा कि हाल ही के बजट सत्र में रेलमंत्री ने एक ऐसी स्पेशल ट्रेन की घोषणा की थी जिसका मकसद आम लोगों को जंगलों तक पहुंचाने की थी। इससे न सिर्फ पर्यटन को बढ़ावा मिलता बल्कि जंगल और वन्य प्राणियों के प्रति जिज्ञासा और कर्तव्यों का भी बोध होता।
हाल ही में 5 जून को 'अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस' पर रेल मंत्रालय ने आम आदमी के उस सपने को साकार किया, जब दिल्ली के सफदरजंग रेलवे स्टेशन पर भारत की इस तरह की पहली सेमी लक्जरी ट्रेन 'टाइगर एक्सप्रेस' खड़ी थी। आम लोगों में कौतूहल था इस ट्रेन के नाम और सफर को लेकर।
इस ट्रेन के संचालन की जिम्मेदारी आईआरसीटीसी को दी गई, जो भारतीय रेल से जुड़ी एक संस्था है और मिनी नवरत्न होने का गौरव भी प्राप्त है। हालांकि ये संस्था कई रूट्स पर इस तरह के धार्मिक और पर्यटन स्थलों पर इस तरह की ट्रेन का संचालन कर रही है, जैसे बुद्ध सर्किट पर, राजस्थान के कई हिस्सों में, हाल ही में गतिमान एक्सप्रेस में भी इसकी भूमिका रही है।
वाइल्ड लाइफ और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए भारत में पहली बार 'टाइगर एक्सप्रेस' नाम से एक ट्रेन चलाई जा रही है। 'टाइगर एक्सप्रेस' अपनी बहुत सारी विशेषताओं के लिए जानी जाएगी। 5 दिन और 6 रातों के इस खास टूर का हिस्सा बनकर आप खुद को काफी रोमांचित महसूस करते हैं। खास तरह के कलेवर में रंगी यह ट्रेन न सिर्फ बाहर से आम और खास लोगों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी बल्कि सबके मन में कौतूहलता थी कि आखिर क्या खास है इस ट्रेन में?
बाहर से तरह-तरह के बाघ और अभूतपूर्व डिजाइन बरबस ही सबका मन मोह ले रहे थे। खैर, निश्चित समय पर इस ट्रेन की पहली ऐतिहासिक यात्रा करने का गौरव मुझे भी प्राप्त हुआ। लगभग 35-40 मुसाफिरों और पत्रकारों के साथ यह ट्रेन विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर पूरे तामझाम और साज-सज्जा के साथ दिल्ली के सफदरजंग स्टेशन से रवाना हुई।
भारतीय रेल के वरिष्ठ अधिकारी, सांसद एवं अनेक गण्मान्य लोगों की उपस्थिति में रेलमंत्री सुरेश प्रभु ने मुंबई से इंटरनेट के जरिए इस ट्रेन को हरी झंडी दिखाई।
इस ट्रेन के 5 दिन और 6 रातों का कुल यात्रा खर्च लगभग 38,000 से 49,000 रु. के आसपास बैठता है। वातानुकूलित एसी 2 और 3 में, जिसमें इस दौरान सभी तरह का खाना-पीना, सड़क मार्ग का व्यय और 3 स्टार होटल या कॉटेज का भाड़ा एवं बांधवगढ़ वन और कान्हा में कुल 3 जंगल सफारी शामिल है। यानी अगर आपको कहीं कुछ खरीदारी न करनी हो तो आप बगैर पैसों के भी इस ट्रेन में बैठ सकते हैं। इतना जरूर है कि कहीं भी आपका एक रुपया भी खर्च नहीं होता।
मुझे लगा कि ये राशि थोड़ी अधिक है, क्योंकि फिलहाल मध्यम वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग ही इस ओर आकर्षित हो सकता है इसलिए भाड़ा थोड़ा कम होना चाहिए। फिलहाल इस ट्रेन की कुल यात्रियों की क्षमता 200 यात्रियों के आसपास है, मगर उम्मीद कर सकते हैं कि भविष्य में यात्रियों की संख्या बढ़ने पर इसके भाड़े में निश्चित तौर पर कमी आएगी। हालांकि इस ट्रेन की कोशिश है कि इसमें सिर्फ विदेशी मुसाफिर ही नहीं, देशी मुसाफिरों की भी संख्या बढ़ाई जाए। इस पहली ट्रेन में हमें सिर्फ एक विदेशी यात्री स्टीवन दिखे, जो बाघों और जंगलों के शौकीन हैं और अमेरिका से खासतौर पर कान्हा वन का भ्रमण करने के लिए आए थे।
इस ट्रेन के संचालन से जुड़ी तैयारियां बहुत ही कम समय में पूरी हुई थीं। महज 3 महीने से भी कम समय मिला होगा आईआरसीटीसी को इससे जुड़ी सभी योजनाओं को बनाने के लिए। लेकिन इन सबके बावजूद इस टीम ने कमाल का काम किया है, जो नि:संदेह यात्रियों के मन में अगले कई दशकों तक उसकी यादें ताजा रहेंगी।
जहां तक बात इस ट्रेन की बोगियों की है, यह शानदार एहसास आपको दिलाती है। लेकिन जब मुझे ये पता चला कि इसमें कोई आम कोच नहीं, बल्कि कई मायनों में खास हैं। ये एक ऐसी गाड़ी के डिब्बे थे, जो सालों से कहीं यार्ड या पटरियों पर जंग खाने का इंतजार कर रहे थे लेकिन रेलवे की सूझबूझ और कारीगरी के कारण न सिर्फ ये बिलकुल नई ट्रेन हो गई बल्कि इससे बेहतर इस्तेमाल कबाड़ में खड़े एक डिब्बे का और हो ही नहीं सकता था। इस ट्रेन में लगभग 13 बोगियां थीं, जो पूरी तरह से वातानुकूलित थीं। इसमें से 4 डिब्बों का उपयोग यात्रियों के लिए होना था जबकि बाकी सभी को सर्विस के लिए आरक्षित किया गया था।
इस ट्रेन की यूं तो कई खासियतें हैं। एक-एक को गिनाना मुश्किल है लेकिन सभी लोगों के आकर्षण का केंद्रबिंदु इसका डाइनिंग कार था, जो किसी अच्छे-खासे रेस्टॉरेंट की तर्ज पर था। बार काउंटर की भी व्यवस्था थी लेकिन उसमें मद्यपान परोसने की व्यवस्था नहीं थी, मगर सॉफ्ट ड्रिंक जैसे आइटम के लिए बनाया गया है।
इस तरह के डाइनिंग कार में यात्री अपने-आपको काफी सहज महसूस कर रहे थे। उसका ज्यादातर वक्त आपस में बातचीत करते हुए बीता। एक बात और, अगर इसकी अंदरुनी साज- सज्जा की बात की जाए तो जंगल थीम को ध्यान में रखकर इसको बनाया गया है। जगह-जगह बाघों और दूसरे जंगली जानवरों की तस्वीरें और उनसे जुड़ी सूचनाएं तस्वीरों की शक्ल में लटकी हुई थीं।
मुझे लगा शायद इतना ही होगा, मगर थोड़ा आगे बढ़ने पर एक मिनी लाइब्रेरी भी दिखाई दी जिसमें वन्य प्राणियों से संबंधित तरह-तरह की शानदार लेखकों की किताबें मौजूद थीं। इस गाड़ी में एक ऑफर खासियत मेरा इंतजार कर रही थी। वो थी इसका बाथरूम, जहां नहाने के लिए एक अत्याधुनिक बाथरूम भी बनाया गया था।
जहां तक खाने-पीने का सवाल है, बेहतरीन खाना-पीना और सर्विस से किसी को कोई शिकायत नहीं थी। 6 तारीख की खुशनुमा सुबह ट्रेन कटनी स्टेशन पहुंची, जहां से हमें बांधवगढ़ के जंगलों के लिए प्रस्थान करना था।
स्टेशन से निकलते ही बाहर गाड़ियां हमारा का इंतजार कर रही थीं और लगभग 2 घंटे की खूबसूरत-सी यात्रा के बाद हम सब बांधवगढ़ के जंगलों से गुजर रहे थे। यात्रा के दौरान पानी से लेकर हल्के खान-पान की भी पूरी तैयारी कार के अंदर ही थी।
थोड़ी देर में ही हम आईआरसीटीसी द्वारा पहले से ही बुक किए हुए मोगली रिजॉर्ट में थे। चारों ओर जंगल के बीच ये रिजॉर्ट अपने आप में बहुत खूबसूरत था जिसमें सभी सुख-सुविधाएं थीं जैसे आरामदायक रिसॉर्ट्स के साथ तरणताल, जिम और जो आमतौर पर आज सभी होटल्स में दिखते हैं। दोपहर के लंच के बाद शाम 3 बजे बांधवगढ़ में सफारी का प्रबंध किया गया था।
बांधवगढ़ के बारे में बता दूं कि ये काफी खुला, मगर छोटा जंगली इलाका है जिसमें ज्यादा मशक्कत न करने पर भी आपको बाघ के दर्शन हो जाएंगे। यह भारत का एक प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान है। बाघों का गढ़ 448 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है। इस उद्यान में एक मुख्य पहाड़ है, जो 'बांधवगढ़' कहलाता है। 811 मीटर ऊंचे इस पहाड़ के पास छोटी-छोटी पहाड़ियां हैं। पार्क में साल और बैम्बू के वृक्ष प्राकृतिक सुंदरता को बढ़ाते हैं। बांधवगढ़ का वनक्षेत्र विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों और जंतुओं से भरा हुआ है। जंगल में नीलगाय और चिंकारा सहित हर तरह के वन्यप्राणी और पेड़ हैं। इस राष्ट्रीय उद्यान में पशुओं की 22 और पक्षियों की 250 प्रजातियां पाई जाती हैं।
जहां तक बाघों का सवाल है, उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना, बोरी-सतपुड़ा, संजय-डुबरी और पेंच में कुल 6 टाइगर रिजर्व हैं। यहां तकरीबन 257 बाघ हैं। बांधवगढ़ के जंगलों में शाम को तिगर सफारी करना अपने आप में अप्रतिम एहसास देता है। बारहसिंघा और चीतलों का झुंड बेफिक्र और निर्भय होकर हमारे चारों तरफ चहलकदमी कर रहे थे।
इससे पहले भी मैं कई बार जिम कॉर्बेट और कान्हा आया था लेकिन कभी बाघ के दर्शन नहीं हुए थे। इसलिए बारहसिंघा, चीतल, सियार, सांभर इत्यादि देखकर ही मन की शांति कर ली थी और आज भी हम सब अलग-अलग जोन में जाकर बाघ को ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। हम सब 3 घंटे ढूंढने के बाद मायूस होकर लौटने की सोच ही रहे थे कि सामने पहाड़ियों से कोई धारीदार जानवर दहाड़ता हुआ तालाब किनारे जाकर बैठ गया और लगा तरह-तरह के पोज देकर अपनी तस्वीरें खिंचवाने।
थोड़ी ही देर में हमारे आसपास और भी सफारी गाड़ियों की भीड़ लग गई। लोग कौतूहलता से कुदरत के इस सबसे शानदार करिश्मे को निहार रहे थे। ये अपने आप में भरा-पूरा जंगल था।
शाम 7 बजे के बाद हमें इस जंगल से बाहर निकलना था इसलिए हमने जल्द ही अन्य सभी वन्य प्राणियों के साथ विदा ली और अपने रिसॉर्ट्स में लौट आए। इस दौरान यात्रियों के बीच एक खास किस्म का पारिवारिक रिश्ता भी पनपा, मसलन साथ खाना, चाय पीना आदि। एक-दूसरे के साथ लोगों में काफी मित्रता हो गई। ऐसा लगा कि मानो ये सब एक परिवार का हिस्सा हों।
यात्रियों में हर आयु और वर्ग के लोग थे। 6 साल के बच्चे से लेकर 80 साल के बुजुर्ग दंपति भी इसका हिस्सा थे। आईआरसीटीसी के कुछ अधिकारी निरंतर लोगों के साथ संवाद बनाए हुए थे जिससे कि किसी को कोई तकलीफ न हो।
अगली सुबह चाय के बाद हमें कान्हा वन विहार में जाना था, जहां पर हमें अगले 2 दिन के लिए रुकना था। बांधवगढ़ से कान्हा का सड़क मार्ग से रास्ता लगभग 6 घंटे का है जिसके बीच में हमें मंडला में आधे घंटे नाश्ते और चाय-पानी के लिए रुकना था। हालांकि हम लोग थोड़ी देर के लिए नर्मदा नदी के किनारे दिन के करीब डेढ़ बजे कान्हा के जंगल में स्थित रिजॉर्ट में थे, जो खटिया गांव के आसपास था।
मध्यप्रदेश के 2 जिलों मंडला और बालाघाट के बीच स्थित कान्हा राष्ट्रीय उद्यान का कुल क्षेत्रफल 1,945 वर्ग किलोमीटर है। कान्हा को सन् 1879 में संरक्षित वन का स्थान दिया गया था और सन् 1955 में इसे राष्ट्रीय पार्क का दर्जा दिया गया था।
1973 में जब 'प्रोजेक्ट टाइगर' प्रारंभ हुआ तो भारत में जो सबसे पहले 9 टाइगर रिजर्व घोषित हुए थे, कान्हा उसमें से एक था। कान्हा गोंडवाना या गोंडों की भूमि का हिस्सा है। यहां पर 2 जनजातियां गोंड और बैगा मुख्यतया निवास करती हैं।
'कान्हा' शब्द कनहार से बना है जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ है 'चिकनी मिट्टी'। कान्हा से कुल 27 गांवों को हटाया गया है। विस्थापित समुदाय में से कुछ को कोर एरिया में तो कुछ को बफर में बसाया गया है, तो कुछ गांव काफी दूरी पर हैं। इस इलाके की 2 प्रमुख नदियां हैं- बंजर और हालोन।
यहां तकरीबन 105 से अधिक बाघ निवास करते हैं जिसमें मुन्ना, बबलू और नीलम पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्रबिंदु है। टाइगरों का यह देश परभक्षी और शिकार दोनों के लिए आदर्श जगह है। यहां की सबसे बड़ी विशेषता खुले घास का मैदान है, जहां काला हिरण, बारहसिंघा, सांभर और चीतल को एकसाथ देखा जा सकता है। बांस और टीक के वृक्ष इसकी सुंदरता को और बढ़ा देते हैं।
रूडयार्ड किपलिंग की प्रसिद्ध किताब और धारावाहिक 'जंगल बुक' की भी प्रेरणा का स्थल भी कान्हा ही है।
ये वन घने और ठंडे महसूस होते हैं। जून की गर्मी में भी पसीना न के बराबर बह रहा था। हम सभी सफारी गाड़ियों पर खुद को आखेटक-सा महसूस कर रहे थे जिसे तरह-तरह के वन्य प्राणी के दिख जाने पर भी बहुत खुशी मिल रही थी। हम भी बालू या मुन्ना को ढूंढ रहे थे। बहुत से लोगों ने तारीफ की थी उनकी। हमें बाघ दिखा जरूर लेकिन कौन-सा? ये पता नहीं, क्योंकि दूर से झलक मात्र देखी थी।
अनेक तरह के वन्यप्राणी जीव-जंतुओं को देखा। बहुत से के तो नाम भी याद नहीं, मगर बहुत सुखद एहसास था। अगली सुबह भी हमें 4 बजे एक बार फिर वनविहार यहीं आकर करना था। रात को एक पर्यावरणविद के साथ मुलाकात भी रखी गई थी, जो हमारी बहुत सारी शंकाओं का समाधान करते। खैर, अगली सुबह हम फिर जंगलों में थे और जी-भरकर जंगलों का आनंद लिया।
शाम को आसपास गांव में बाजार-हाटों में घूमने का अवसर मिला। इस दौरान मैं कुछ गांव वालों से भी मिला, जो बैगा जाति से संबंधित थे जिन्हें वन विभाग ने बफर जोन में बसाया हुआ था। आज यहां 2,000 से भी ज्यादा लोगों का व्यवसाय इन पर्यटकों पर निर्भर है, जो बाघों को देखने लाखों की तादाद में हर साल यहां आते हैं। ये लोग यहां चालक, वनरक्षक, गाइड, होटल कर्मचारी के रूप में अपनी आजीविका कमा रहे हैं और मौजूदा हालात में काफी खुश भी हैं।
आमतौर पर पहले ये अवधारणा थी कि बैगा और गौंड जनजाति के लोग शिकारियों की मदद करते हैं, मगर ये सिर्फ एक मिथक है, क्योंकि ये जनजाति बाघ को अपना भगवान मानती है जिसकी वजह से इनकी रोजी-रोटी चलती है।
बहुत सुखद लगता है ये सुनना कि मानव हमारा अहित कर सकता है लेकिन जंगली जानवर नहीं, क्योंकि हम एक-दूसरे की जरूरत होने के साथ-साथ अच्छे दोस्त भी हैं। हमारे बीच कभी कोई संघर्ष नहीं हुआ है।
अगली सुबह हमें जबलपुर की तरफ रवाना होना था, जहां से हमें फिर से 'टाइगर एक्सप्रेस' की यात्रा करनी थी। हालांकि इसके बीच में जबलपुर में भी हमें भेड़ाघाट का विश्वप्रसिद्ध धुआंधार जलप्रपात भी देखना था, जो कि पूर्व निर्धारित था। शाम तक सभी ने भेड़ाघाट पर खूब मस्ती और नौकायान किया और उसके बाद हमारा कारवां जबलपुर स्टेशन पर पहुंचा।
कोई भी नहीं चाहता था कि ये मस्ती का सफर इतनी जल्दी खत्म हो, मगर इस सफर को भी यहीं खत्म होना ही था और हमारी 'टाइगर एक्सप्रेस' हम सबको लेकर दिल्ली की तरफ रवाना हुई। यात्रियों ने न सिर्फ एक-दूसरे की बहुत सारी तस्वीरें खींचीं बल्कि फिर मिलने के वादे से अपने गंतव्य की तरफ रवाना हुए।
5 जून से शुरू हुई यात्रा 10 जून की दोपहर को खत्म हो चुकी थी। फिलहाल 'टाइगर एक्सप्रेस' भी अक्टूबर तक स्थगित रहेगी, क्योंकि 15 जून से अक्तूबर तक कान्हा और दूसरे वन विहार मानसून के दौरान बंद कर दिए जाते हैं पर्यटकों के लिए।
उम्मीद की जानी चाहिए कि रेल मंत्रालय की आम लोगों को जंगलों तक निर्बाध बिना किसी रुकावट के पहुंचाने की ये योजना अवश्य पूरी होगी।