सती प्रथा: वो अंधविश्वास जिसने पुरुष समाज को अंधा और चेतनहीन बना दिया

डॉ. छाया मंगल मिश्र
(सती प्रथा मूल हिंदू धर्म का कोई अंग नहीं था। गुप्त साम्राज्य तक कहीं पर भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है)

“सती” नाम सुनते ही एकदम से मैं 4 सितम्बर 1987 में जा पहुंचती हूं। आप में से कितनों को याद है यह दिन? इस निर्मम, क्रूर घटना को भूला सके हैं आप? यदि हां, तो आप की इंसानियत मर चुकी है।

नाम- रूपकुंवर। उम्र- 18 वर्ष। पढ़ाई- 10वीं कक्षा। पति- माल सिंह (महज आठ महीने पहले ही जनवरी में शादी हुई थी) स्थान- राजस्थान के सीकर ज़िले के दिवराला गांव। (मात्र 20 दिन वह पति के साथ रही, वो भी पति की बीमारी के दौरान)

सीकर जिले के दिवराला गांव में राजपूत समाज के माल सिंह (24) के पेट में तीन सितंबर की शाम को अचानक दर्द उठा। इलाज के लिए सीकर लाया गया और चार सितंबर की सुबह मौत हो गई। जयपुर के ट्रांसपोर्ट व्यवसायी बाल सिंह राठौड़ के छह बच्चों में सबसे छोटी 18 साल रूप कंवर की माल सिंह की मौत के बाद उसकी चिता पर रूप कंवर भी जलकर सती हो गई थी। इस प्रथा को प्रतिबंधित किए जाने के 158 साल बाद पूरी दुनिया का ध्यान सती होने की इस घटना ने खींचा था।

इसके बाद 16 सितंबर 1987 को राजपूत समाज ने रूप कंवर की तेरहवीं (13 दिन की शोक परंपरा) के मौके पर चुनरी महोत्सव का आयोजन किया था। इस महोत्सव में दिवराला गांव में लाखों लोग जमा हो गए थे। चुनरी महोत्सव का आयोजन ‘हाईकोर्ट की रोक’ के बावजूद भी किया गया। सारे विश्व में हमारे देश की छवि कलंकित हुई थी।

हम औरतें अपने आपको खुशकिस्मत मानें या बदकिस्मत आज तक निश्चित नहीं कर पाए। औरतों के साथ होने वाले कांडों में विश्वभर की स्थिति एक सी है बस तरीके बदल जाते हैं। हम उस घटनास्थल के साक्षी तो कभी रहे नहींए लेक‍िन मीडिया की आंख जो ‘संजय दृष्टि’ सा काम करती है वो इतना भी झूठ तो नहीं ही कहेगी। भले ही सत्तारूढ़, प्रशासन, पितृसत्तात्मक परंपरा धृतराष्ट्र बने रहें।

कहते हैं, नशीली वस्तुओं का सेवन कराकर युवा विधवाओं को चिता के हवाले कर दिया जाता था। ऐसा भी देखा जाता था कि कभी-कभी महिलाओं की इंद्रियां को शिथिल करने के लिए अफीम या नशीले पदार्थों आदि का प्रयोग किया जाता था जिससे वह आसानी से मृत्यु का आलिंगन कर सके। आर सी मजूमदार लिखते हैं कि

‘‘ऐसे दृष्टांत कागजों में लिखे मिलते हैं कि स्त्री जब अग्नि के स्पर्श से भाग खड़ी होती थी तब वह फिर जबरदस्ती चिता पर रख दी जाती थी। ऐसी घटनायें रोकने के लिए पुरुषों द्वारा सावधानी बरती जाती थी। वे विधवा के शरीर को लकड़ी, पत्तों एवं पुआल से ढंक देते थे और चिता में आग लगाने से पहले दो बांसों के सहारे उसे नीचे दबाते थे। साथ ही साथ भीड़ वज्रध्वनि की भांति घोर कोलाहल करती थी तथा ढोल बजाकर कानफोडू आवाज की जाती थी। ऐसा करने से बेचारी का आर्त्तनाद कोई दर्शक सुन नहीं पाता था”

वे स्त्रियां जो कि शुद्ध महत्वाकांक्षा या क्षणिक आवेगों के कारण सती होने के निश्चय की घोषणा कर देती थीं,प्रायः अग्नि की भयंकरता को देखकर पीछे हटने की कोशिश करती थी, तब तक काफी देर हो चुकी होती थी, जिसे रोका नहीं जा सकता था। वह विधिवत् शपथ ले चुकी होती थी, इसलिए पुजारी व अन्य पुरुष तत्काल उस विधवा को चिता पर ढकेल देते थे।

कल्पना कीजिये अब जिन्दा आग में जलना? कितना भयानक होता होगा ये सबकुछ। टॉमस हरवर्ट ‘ट्रावेल इनटू अफ्रीका एण्ड एशिया’ नामक पुस्तक में लिखते हैं कि आग के बुझ जाने के बाद जिम्मेदार लोग चिता से सोना, चांदी एवं तांम्बा एकत्र करते थे। उद्धारपर्व के समाप्त होते ही आभूषणों का वितरण आपस में किया जाता था। बंटवारे को लेकर उनके बीच कभी-कभी खून खराबा तक हो जाया करता था। लतीफ लिखते है कि- पंजाब में रंजीत सिंह के दीवान जवाहर सिंह की विधवाओं के सती होने के समय रक्षकों द्वारा सोने और गहनों की लूट-पाट की गई। उन्होंने विधवाओं को बिना किसी प्रायश्चित के लूटा और चूंकि दुर्भाग्यशाली विधवाएं चिता पर चढ़ने वाली थी, अतः उनके नाक और कान के गहनों को जो उन्होंने अपने धर्म के अनुसार पहन रखा था, नोंच लिया गया, चिता पर जाते समय उनके छल्लों और कसीदों के समान भी छिन लिए गये।

मेधातीथि के अनुसार सतीप्रथा एक प्रकार से आत्महत्या है जिसका वेद विरोध करते हैं और स्त्रियों के लिए वर्जित है। वे इसकी निन्दा करते हुए इसकी तुलना ‘श्येननाग’ से करते हैं जिसमें कोई व्यक्ति अपने दुश्मन की हत्या काले जादू से करता है। अपरार्क कहते है कि श्रुतिसम्मत् धर्म में आत्महत्या का निषेध है, परन्तु स्मृतिकारों ने सामान्य आत्महत्या को अनुचित मानकर सतीप्रथा को विशिष्ट आत्महत्या के रुप में स्वीकृत कर उसे मान्यता प्रदान कर दी।

वाणभट्ट ने कादम्बरी नामक पुस्तक में सतीप्रथा का घोर विरोध किया है। नायिका महाश्वेता ने अपने प्रियतम की मृत्यु पर सती न होने को उचित ठहराया है तथा वहीं रति, पृथा, दुहश्लाका का भी उदाहरण दिया है जिन्होंने अपने पतियों की मृत्यु के बाद सहगमन नहीं किया था। वाणभट्ट के अनुसार सतीप्रथा निराशा एवं दिवानगी में की गई मुर्खतापूर्ण महान गलती है। यह मृत व्यक्ति की मदद नहीं करती क्योंकि वह अपने कृत्यों के अनुसार स्वर्ग या नरक में जाता है, इसलिए इससे दोनों का पुनर्मिलन नहीं होता क्योंकि अनावश्यक रुप से सती होने वाली पत्नी नरक में जाती है क्योंकि आत्महत्या के लिए नरक आरक्षित रहता है।

बारहवीं सदी के एक अन्य टीकाकार पंडित देवनभट्ट ने लिखा है कि सतीप्रथा अत्यंत निम्नकोटि का धर्म है और इसकी अनुशंसा कदापि नहीं की जा सकती। 13वीं शताब्दी की स्मृतिचन्द्रिका में अन्वारोहण को ब्रह्मचर्य से निम्नकोटि का दिखाया गया है। तांत्रिक ग्रंथ महानिर्वाणतंत्र के अनुसार अपने पत्नी से अशिष्ट व्यवहार करने वाले पति को दिनभर उपवास का व्रत करना पड़ता था। शाक्त तंत्र ने सतीप्रथा का निषेध किया है क्योंकि स्त्री महानतम देवी का स्वरुप होती है और यदि कोई उसे उसके पति के साथ जला देता है तो उसे नरक की सजा मिलेगी।

दूसरी धारणा यह थी कि स्त्री इस महान कार्य से न केवल स्वर्ग में जाने का विश्वास पाती थी, बल्कि प्राणत्याग के द्वारा स्त्री स्वयं अपनी, अपने पति, उसके परिवार से लेकर सात पीढ़ियों तक को सुरक्षित कर देती थी फिर चाहे वे लोग पापी ही क्यों न हो?

अंधविश्वास ने पुरुष समाज को अंधा एवं चेतनहीन बना दिया था। तर्क एवं विवेक से दूर रहकर पिता अपनी बाल विधवा पुत्री को बलपूर्वक प्रज्ज्वलित चिता में बैठने के लिए बाध्य कर देते थे तथा पुत्रों द्वारा बूढ़ी माता को सती हो जाने के लिए उकसाया जाता था। बड़ी धार्मिक ताकत यह थी कि भारतीय अपने धर्म और शास्त्रों से अधिक जुड़े हुए थे। अशिक्षित भारतीय, ब्रह्मवाक्य धर्मशास्त्रों से प्रेरित होकर विधवाओं को सती होने के लिए दबाव डाले होंगे।
उपवासों की लम्बी श्रृंखला, आत्मपीड़न, नफरत व उत्पीड़न तथा दुर्व्यवहार, जो वह अपने परिजनों से प्राप्त करती थी, के बदले विधवा के लिए मृत्यु इस दुःखमय जीवन से हजार गुना अधिक स्वागतयोग्य था। निःसंदेह इस भावना ने अतीत में अनेक विधवाओं को अपने मृत पति की चिता में अपनी बलि देने के लिए प्रेरित किया होगा। आनन्द याँग भी मानते है कि ऐसा इसलिए हुआ होगा कि उनकी जिन्दगी असहाय हो गई होगी, यह कहना ठीक नहीं होगा कि उन्होंने आत्महत्या इसलिए की कि उनके अंदर ‘सत्’ का प्रवेश हो गया था।

स्त्रियों की पवित्रता औेर निष्ठा के प्रति इस प्रकार की भावना समाज में स्वतंत्र शक्ति के रुप में विकसित हुई। पतियों के साथ जलकर मरने और फलस्वरुप मोक्ष प्राप्त करने वाली स्त्रियों की पवित्रता की अनेक कथाएं पुराणों के माध्यम से एवं मौखिक रुप से फैलाई गई। फलस्वरुप पतियों के शवों के साथ अपने को जलाने पर प्राप्त होने वाले ऐसे पूण्यफलों में स्त्रियां स्वयं विश्वास करने लगी। इस प्रकार विधवा को आत्महत्या अनुष्ठान से होने वाले पुण्य में गहराई से गड़ी भावना के कारण भी विश्वास उत्पन्न हुआ।

यह प्रचारित किया गया कि सती प्रथा हिंदू धर्म में प्रचलित एक कुरीति है, जबकि सती प्रथा मूल हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है फिर क्यों हमें बारंबार यही पढ़ाया गया कि यह प्रथा हिंदू धर्म की कुरीति है। पूरा सच जानने के लिए हमें धर्मग्रंथों का अध्ययन सूक्ष्म विश्लेषण करना आवश्यक है और साथ ही साथ रामायण और महाभारत के कुछ पात्रों का उल्लेख करना नितांत आवश्यक है। रामायण के प्रमुख पात्रों में हैं दो सहोदर भाई बाली और सुग्रीव। बाली की पत्नी थीं तारा। बाली वध के पश्चात तारा का क्या हुआ? यह जानना बहुत ही आवश्यक है।

बाली की मृत्यु के पश्चात तारा का विवाह हुआ सुग्रीव के साथ। अन्य दो प्रमुख पात्र हैं रावण और विभीषण। रावण की मृत्यु के पश्चात मंदोदरी का क्या हुआ? मंदोदरी का भी विवाह हुआ विभीषण के साथ। प्रभु श्रीराम के पिता दशरथ की मृत्यु के पश्चात क्या उनकी रानियों ने आत्मदाह किया या सती हुईं? नहीं! इसी प्रकार महाभारत के महत्वपूर्ण पात्र कुंती की चर्चा करना भी आवश्यक है। पांडवों की माता कुंती ने पांडू की मृत्यु के पश्चात क्या किया? क्या माता कुंती सती हुईं? नहीं! अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने अभिमन्यु के देहावसान के बाद क्या किया? क्या वो सती हुईं? नहीं! उत्तरा के गर्भ में उस समय एक शिशु पल रहा था जब अभिमन्यु की मृत्यु हुई और यह बालक ही आगे चलकर परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

स्पष्ट हो जाता है कि रामायण और महाभारत काल में विधवा विवाह प्रचलित था और यह महिला की स्वेच्छा पर निर्भर था। महिलाओं की इच्छा का इस काल में अच्छा खासा महत्व था। विवाह संबंध उनकी इच्छा से ही होता था जिसे हम स्वयंवर के नाम से जानते हैं। विधवा विवाह और सती प्रथा दो विपरीत प्रथाएं हैं जिनका सह-अस्तित्व कभी भी संभव नहीं। अर्थात अगर विधवा विवाह प्रचलित है तो सती प्रथा का कोई औचित्य ही नहीं है। निस्संदेह सती प्रथा मूल हिंदू धर्म का कोई अंग नहीं था। गुप्त साम्राज्य तक कहीं पर भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। विभिन्न विदेशी यात्रियों जैसे मेगास्थनीज, ह्वेन सांग और फाह्यान ने अपने यात्रा वृत्तान्त में कहीं पर भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं किया है।

इसके पीछे एक ही कारण हो सकता है कि समाज को उसके ऐतिहासिक गौरव और संस्कृति से दूर कर दो। इतिहास और संस्कृति से विस्मृत हुआ समाज अधिक समय तक अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता। निस्संदेह यह एक गहरी साजिश के तहत किया गया है संभवतः मैकाले के योजना के तहत. मैकाले ने 1835 में ब्रिटेन की महारानी को अपने पत्र में लिखा था कि-

“इस देश को तब तक ध्वस्त नहीं किया जा सकता जब तक कि इसके शिक्षा पद्धति पर, संस्कृति पर आघात न किया जाए”

आज तक इस विषय पर दो ही महापुरुषों का उल्लेख मिलता है – राजा राममोहन राय, और ईश्वर चंद बंदोपाध्याय (विद्यासागर)। इन दोनों में भी राजा राममोहन राय को इतिहास ने ज्यादा तरजीह दी। परंतु यह अधूरा सच है। निस्संदेह राजा राममोहन राय ने सती प्रथा अंत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया परंतु केवल उन्होंने योगदान दिया यह संपूर्ण सत्य नहीं। स्वामीनारायण ने इसके लिए विशेष प्रयास किया परंतु कभी भी उनका जिक्र सती प्रथा के विरुद्ध आंदोलनकर्ताओं की सूची में शामिल नहीं किया गया। सबके अलावा एक और महत्वपूर्ण, अतिमहत्वपूर्ण, व्यक्ति का उल्लेख होना चाहिए– मृत्युंजय विद्यालंकार। बंगाली ब्राह्मण परिवार में जन्मे मृत्युंजय इस कारण से अतिमहत्वपूर्ण हैं कि उनके ही सटीक विश्लेषण और वक्तव्यों के आधार पर कलकत्ता कोर्ट ने सन् 1829 में अपने ऐतिहासिक फैसले में सती प्रथा पर हमेशा के लिए पाबंदी लगाई।

हिंदू धर्मग्रंथों का विश्लेषण कर और अपने अकाट्य तर्कों के माध्यम से मृत्युंजय विद्यालंकार ने साबित किया कि सती प्रथा मूल हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं है। जिस विद्यालंकार को सबसे महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए था उनके नाम से लगभग 95% भारतीय जनता अनभिज्ञ होगी। मुझे तो ऐसा लगता है कि 99% कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा। विद्यालंकार के विश्लेषण ने ही यह साबित किया था और इस अमानवीय कर्म पर रोक लगा दी गई।

पर फिर क्या हुआ? देश स्वतन्त्र,  हमारा राज,  हमारे कानून, पूरी सदी बीतने को आई। सबकुछ तो हमारा ही था तब भी, अब भी। नहीं बदला तो वो था स्त्रियों का भाग्य। वही कुप्रथाओं के नाम पर उनकी चढ़ती बलियां, स्वार्थ, सत्ता, परंपरा, पारिवारिक स्वार्थ व लालच के नाम पर उनकी जिन्दा जलती चिताओं पर सिंकती धर्म और राजनीति की रोटियां। तब की केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मंत्री मारग्रेट अल्वा ने जुलाई 2016 में जयपुर में अपनी आत्मकथा ‘करेज एंड कमिटमेंट’ का विमोचन करते हुए दिवराला सती केस से जुड़ा एक किस्सा सुनाया था। बकौल अल्वा,

‘दिवराला सती कांड के विरोध पर तब के कुछ राजपूत सांसद मुझसे आकर मिले थे। उन्होंने कहा कि आप क्रिश्चियन हैं, राजपूतों की परंपराओं के बारे में क्या जानती हैं? तब मैंने उन्हें जवाब दिया कि आपके घरों में जो मां-बहनें विधवा हैं, उन्हें सती क्यों नहीं किया गया?’

रूप कंवर सती केस के बाद बॉम्बे यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने महिला और मीडिया की एक टीम बनाई थी। तीन सदस्यों की इस टीम की 40 पेज की रिपोर्ट में रूप कंवर केस और उसकी मीडिया रिपोर्टिंग को बारीकी से सामने रखा है। ‘रूप कंवर के केस में धर्म, राजनीति और पितृसत्ता का जो गठजोड़ दिखाई दिया उससे यह तो तय हो गया कि राजसत्ता भी पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रसित है। इसीलिए उसका झुकाव इन्हीं ताकतों के प्रति है’

बहरहाल रूप कंवर की मौत को जायज ठहराने के भी जो तर्क तब थे वे अब भी दिए जा रहे हैं और जो विरोध में थे वे इतने साल बाद भी डटे हुए हैं। केवल इतना जरुर विचरियेगा की आज जब हम राकेट साइंस, कम्प्यूटर युगीन लोग इन भेड़ि‍यों से मुकाबला नहीं कर पाए तो पराधीन होते हुए उनके संघर्षों की सीमा क्या रही होगी? उनके कष्ट कितने रहे होंगे? बावजूद उसके आज भी हम हारे हुए, नाकाम, किसी असफल देश के असुरक्षित सजीव हैं, लेकिन जड़ वस्तु की तरह चिताओं में फेक दिए जा रहे हैं। इंसान की श्रेणी में न तब औरतों की गिनती थी न आज है....जाने कितनी सदियां और लगेगें....मुक्ति के लिए।

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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