मार्मिक कविता : मां

निशा माथुर 
वह कतरा-कतरा चुनती रही,
अपने अंतर्मन के आंसू 
और पिरोती रही, 
हमारी अभिलाषाओं की माला ।।  

वह नित, प्रतिपल थकती रही, 
भागती रही इसी कोशि‍श में, 
कि हमारे भूखे पेट को मिले,  
सुख का निवाला ।।  
 
वह थपकाकर हमें सुलाती, खुद जागती,  
ताकि हमारे सपनों को आकर,  
बहलाए कोई सुरबाला ।।  
 
वह सहलाकर हमारे बालों को,   
इतना दुलारती सीने से लगा,  
हमें ओढ़ाती, नेह वात्सल्य की दुशाला ।।  
 
वह हर गम को पीकर मुस्काती, 
हमें हंसाती और खुद पी जाती,  
अपनों के भी अपमान की हाला ।। 
 
वह क्षण-भंगुर से हर पल को,  
खुलकर जीती, मुस्काती, 
कर्मफल की,
सीख सिखाती हमसे कहती, 
यह जीवन है इक रंगशाला ।। 
 
वह अविरल पथ पर चलती जाती,  
अंगुली थामें हम बच्चों की,   
कहती नेह विश्वास की, 
आपस में पीते जाओ मधुशाला ।।  
 
वह मोह-माया को छोड़, 
हमसे मुख को मोड़ ,  
चिरनिंद्रा में ऐसी सोई, 
एक आंधी ले गई उसे और,   
लील गर्इ यह बेरहम ज्वाला ।। 
 
उसके गम से पिघला सूरज, 
सहम गया यह आसमां,
जब यह शुष्क धरती ही पी गई, 
उसके रक्त का प्याला ।। 
 
वह हमें सींच कर, पाल पोस कर,  
खुद के हिस्से का कर्तव्य निभाकर,
हमें सिखा गई आज, 
मां के शब्दों का जाला ।। 
 

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