क्या समर्थन मूल्य बढ़ाने से किसानों की समस्याओं का हल संभव है?
- विवेकानंद माथने
हाल ही में केंद्र सरकार ने किसानों की समस्याओं का हल खोजते हुए समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा की है। यदि समर्थन मूल्य बढ़ाने भर से किसानों की समस्याओं का हल संभव है तो फिर इतनी हायतौबा कृषि क्षेत्र की खराब हालत को लेकर क्यों हो रही है? इस बढ़े हुए समर्थन मूल्य का कितने किसानों को लाभ प्राप्त होगा? कृषि की पूरी व्यवस्था किसान को लूटने और उसे गुलाम बनाए रखने के लिए बनाई गई है। उनके लिए किसान एक गुलाम है जिसे वह उतना ही देना चाहते हैं जिससे वह पेट भर सके और मजबूर होकर खेती करता रहे। किसानों के आर्थिक हितों की पैरवी करता प्रस्तुत आलेख।
देश का किसान समाज गरीब क्यों? किसान परिवार में आत्महत्याएं क्यों? इस सरल प्रश्न का सच्चा जवाब हम देना नहीं चाहते। इन प्रश्नों का जवाब दशकों से ढूंढा जा रहा है। बड़े-बड़े रिपोर्ट तैयार किए गए। कई लागू किए गए। लेकिन आज तक किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए जो उपाय किए गए उससे समाधान नहीं हुआ बल्कि संकट गहराता जा रहा है। किसानों की आर्थिक हालत लगातार बिगड़ती जा रही है। क्या हम किसानों की समस्याओं का सही कारण नहीं खोज पाए या खोजना ही नहीं चाहते?
किसान विरोधी लोग तो मानते ही नहीं कि किसानों की कोई समस्या है। वह मानते हैं कि किसान का कर्ज निकालकर बच्चों के शादी-ब्याह पर खर्च करना उनकी बदहाली का कारण है। तो कुछ कहते हैं कि किसान शराब पीने के कारण आत्महत्या करते हैं। कुछ यह भी कहते हैं कि किसानों का मानसिक इलाज करना चाहिए। जो लोग किसान की समस्याओं को स्वीकार करते हैं उनमें से कुछ कहते हैं कि खेती की पद्धति में बदलाव करना चाहिए। रासायनिक खेती के बदले जैविक खेती करनी चाहिए। सिंचाई का क्षेत्र बढ़ाना चाहिए। यांत्रिक खेती करनी चाहिए। जीएम बीज का इस्तेमाल करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि उत्पादन बढ़ाना चाहिए, निर्यातोन्मुखी फसलों का उत्पादन करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि फसल बीमा योजना में सुधार करना चाहिए। कर्ज योजना का विस्तार करना चाहिए।
यह उपाय किसानों की समस्याओं को दूर करने के लिए नहीं बल्कि उसकी समस्याओं का लाभ उठाने के लिए किए जाते रहे हैं। आज तक का अनुभव यही है कि इन योजनाओं का लाभ बैंकों, बीज, बीमा व यंत्र निर्माता कंपनियों, निर्यात कंपनियों, बांध बनाने वाली कंपनियों और ठेकेदारों को मिला है। पहले किसानों के आत्महत्या के कारणों की खोज के नाम पर रिपोर्ट बनाए जाते हैं और सरकार में लॉबिंग कर उसे लागू करवाया जाता है। यह रिपोर्ट बनाने में सीएसआर फंड प्राप्त एनजीओ बड़ी भूमिका निभाते हैं और हम भी किसान के बेटे हैं। कहने वाले नौकरशाह और राजनेता अपने ही बाप से बेइमानी करते हैं। उत्पादन वृद्धि के इन उपायों से किसानों का उत्पादन खर्च बढ़ा है। साथ ही उत्पादन बढ़ने और मांग से आपूर्ति ज्यादा होने से फसलों के दाम घटे हैं। इससे किसान का लाभ नहीं नुकसान बढ़ा है। इन उपायों के बावजूद किसानों की लगातार बिगड़ती स्थिति इसका सबसे बड़ा प्रमाण है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश में किसानों की औसत मासिक आय 6426 रुपए है, जिसमें केवल खेती से प्राप्त होने वाली आय केवल 3081 रुपए प्रतिमाह है। यह 17 राज्यों में केवल 1700 रुपए मात्र है। हर किसान पर औसतन 47000 रुपयों का कर्ज है। लगभग 90 प्रतिशत किसान और खेत मजदूर गरीबी का जीवन जी रहे हैं। जो किसान केवल खेती पर निर्भर हैं उनके लिए दो वक्त की रोटी पाना भी संभव नहीं है।
राजनेता और नौकरशाह अपना वेतन तो आवश्यकता और योग्यता से कई गुना अधिक बढ़ा लेते हैं लेकिन किसान के लिए उसके कठोर परिश्रम के बाद भी मेहनत का उचित मूल्य न मिले ऐसी व्यवस्था बनाए रखना चाहते हैं। पूरे देश के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर आकलन करें तो खेती में काम के दिन के लिए केवल औसत 92 रुपए मजदूरी मिलती है। यह मजदूरी 365 दिनों के लिए प्रतिदिन 60 रुपए के लगभग होती है। किसान की कुल मजदूरी से किराए की मजदूरी कम करने पर दिन की मजदूरी 30 रुपए से कम होती है। मालिक की हैसियत से तो किसान को कुछ मिलता ही नहीं, खेती में काम के लिए न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के आंकडे भी इसी की पुष्टि करते हैं।
बाजार व्यवस्था खुद एक लूट की व्यवस्था है, जो स्पर्धा के नाम पर बलवान को दुर्बल की लूट करने की स्वीकृति के सिद्धांत पर खड़ी है। बाजार व्यवस्था में बलवान लूटता है और कमजोर लूटा जाता है। बाजार में विकृति पैदा न होने देने का अर्थ किसान को लूटने की व्यवस्था बनाए रखना है। जब तक किसान बाजार नामक लूट की व्यवस्था में खड़ा है उसे कभी न्याय नहीं मिल सकता। बाजार में किसान हमेशा कमजोर ही रहता है। एक साथ कृषि उत्पादन बाजार में आना, मांग से अधिक उत्पादन की उपलब्धता, स्टोरेज का अभाव, कर्ज वापसी का दबाव, जीविका के लिए धन की आवश्यकता आदि सभी कारणों से किसान बाजार में कमजोर के हैसियत में ही खड़ा होता है।
यह शोषणकारी व्यवस्था उद्योगपति, व्यापारी और दलालों को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई है। कल तक यह लूट विदेशी लोगों के द्वारा होती थी। अब उसमें देशी-विदेशी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी शामिल किया गया है। यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां खेती पूरक उद्योग और उसके व्यापार पर पहले ही कब्जा कर चुकी हैं। अब वे पूरी दुनिया की खेती पर कब्जा करना चाहती हैं। इसलिए विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन के दबाव में सरकारें लगातार किसान विरोधी नीतियां बनाती जा रही हैं।
किसान का मुख्य संकट आर्थिक है। उसका समाधान किसान परिवार की सभी बुनियादी आवश्यकताएं प्राप्त करने के लिए एक सम्मानजनक आय की प्राप्ति है। किसानों की समस्याओं का समाधान केवल उपज का थोड़ा मूल्य बढ़ाकर नहीं होगा बल्कि किसान के श्रम का शोषण, लागत वस्तु के खरीद में हो रही लूट, कृषि उत्पाद बेचते समय व्यापारी, दलालों द्वारा खरीद में या सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद में की जा रही लूट, बैंकों, बीमा कंपनियों द्वारा की जा रही लूट इन सबको बंद करना होगा।
किसान, कृषि और गांव को स्वावलंबी और समृद्ध बनाने की दिशा में कृषि आधारित कुटीर एवं लघु उद्योगों को पुनर्जीवित करना होगा। जब खेती में काम नहीं होता है तब किसान को पूरक रोजगार की आवश्यकता होती है। भारत सरकार ने 1977 में बड़े उद्योगों को उत्पादन करने देने की स्पष्ट नीति के तहत 807 वस्तुओं को लघु और कुटीर उद्योगों के लिए संरक्षित किया था। जिसे नई आर्थिक नीतियां लागू करने के बाद धीरे-धीरे पूरी तरह से हटाया गया। उसे फिर संरक्षित कर असमानों के बीच स्पर्धा से बचने के लिए देशी, विदेशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादन पर पाबंदी लगानी होगी। कृषि उत्पादकों के लिए उत्पादन, प्रसंस्करण व विपणन के लिए सरकारी और कॉर्पोरेटी हस्तक्षेप से मुक्त एक सरल गांव केंद्रित रोजगारोन्मुख नई सहकारी व्यवस्था बनानी होगी।
संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणा पत्र 1948 में पारिश्रमिक की परिकल्पना की गई है जो 'कर्मी और उसके परिवार' को गरिमा के साथ जीवन प्रदान करने के लिए आश्वासन देती है। संस्थापक सदस्य के रूप में भारत ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं। भारत में संगठित क्षेत्र के लिए वेतन आयोग द्वारा 'परिवारिक सिद्धांत' अपनाया गया है। राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन 1975 में भी सामान्य रूप से न्यूनतम मजदूरी के लिए इस सिद्धांत को अपनाने की सिफारिश की है, लेकिन कृषि में अधिकारों का निर्धारण करने में पारिवारिक सिद्धांत की अनदेखी की गई है।
काम के बदले आजीविका मूल्य प्राप्त करना हर व्यक्ति का मौलिक और संवैधानिक अधिकार है। किसान को भी काम के बदले न्याय संगत श्रम मूल्य मिलना चाहिए। आजीविका मूल्य बौद्धिक श्रम के लिए 2400 किलो कैलोरी और शारीरिक श्रम के लिए 2700 कैलोरी के आधार पर तय किया जाता है। इसके लिए देश में संगठित और असंगठित में भेद किए बिना 'समान काम के लिये समान श्रममूल्य' के सिद्धांत के अनुसार परिवार की अन्न, वस्त्र, आवास, स्वास्थय, शिक्षा आदि बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए आजीविका मूल्य निर्धारित करना होगा। श्रम मूल्य निर्धारण में संगठित क्षेत्र की तुलना में अधिकतम और न्यूनतम का अंतर 1:10 से अधिक नहीं होना चाहिए। इस प्रकार से निर्धारित श्रम मूल्य किसान को देने की व्यवस्था करनी होगी।
सरकार को महंगाई का नियंत्रण करने के लिए किसान का शोषण करने का कोई अधिकार नहीं है। यह किसानों पर किया गया अन्याय है। अगर वह सरकारी खरीद या बाजार में फसलों की उचित कीमतें देने की व्यवस्था नहीं कर सकती तो ऐसे स्थिति में सस्ते कृषि उत्पाद का लाभ जिन-जिन को मिलता है उनसे वसूल कर किसान को नुकसान की भरपाई करना होगी। एक वर्ग को आर्थिक लाभ पहुंचाने के लिए किसान से जीने का अधिकार नहीं छीना जा सकता। (सप्रेस)
(विवेकानंद माथने 'आजादी बचाओ आंदोलन एवं किसान स्वराज आंदोलन' से संबद्ध हैं।)