भागवत ने हिन्दुओं के सशक्त और संगठित होने की बात क्यों की

अवधेश कुमार
शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024 (15:28 IST)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संगठन परिवार इस समय विश्व स्तर पर सबसे बड़े जन समूह और संगठनों वाला विचार परिवार है। संघ के सरसंघचालक का हर वक्तव्य उनके लिए मार्गदर्शन के समान होता है। विजयदशमी संघ की स्थापना का दिवस है। इस कारण भी नागपुर से दिए गए भाषण का सर्वाधिक महत्व हो गया है। पूरा संगठन परिवार ही नहीं हिंदुत्व और संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद की विचारधारा को मानने वाले अलग-अलग समूहों एवं उनके विरोधी भी ध्यान से उस भाषण को सुनते हैं। 
 
ऐसा पहली बार देखा गया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं अपने एक्स हैंडल से डॉक्टर मोहन भागवत के भाषण के लिंक को रिपोस्ट किया और आग्रह किया कि इसे अवश्य सुना जाए। इस नाते भी इसका महत्व बढ़ जाता है। डॉ. भागवत विजयादशमी के हर भाषण के आरंभ में भारत एक राष्ट्र के रूप में किस तरह सर्वांगीण उन्नति कर रहा है और विश्व में इसकी महिमा, प्रतिष्ठा और साख कैसे बढ़ी है इसकी आवश्यक चर्चा करते हैं। स्वाभाविक ही इससे स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों के अंदर भारत को लेकर सकारात्मक आत्मविश्वास की भावना सशक्त होती है। इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया। 
 
आगे उन्होंने स्पष्ट किया कि इस विषय पर मैं बोलने नहीं जा रहा हूं क्योंकि इस समय भारत और विश्व के लिए चुनौतियां एवं खतरे ऐसे खड़े हुए हैं जिनको समझाना और उनका सामना करते हुए समाप्त करना और अपरिहार्य हो गया है। इसमें उन्होंने हिंदू समाज को ही स्वाभाविक रूप से केंद्र में रखा। इसका कारण वह लगातार बताते रहे हैं कि हिंदुओं का संस्कार, चरित्र, जीवन मूल्य और जीवन दर्शन ही ऐसा है जिसमें संपूर्ण विश्व के समुत्कर्ष, कल्याण, शांति-सद्भाव के लिए जीने और काम करने का आधार होता है। इसलिए हिंदू संगठित रहें, खतरों के प्रति सतर्क और इसे समाप्त करने के लिए सक्रिय हों जिससे भारत एक राष्ट्र के रूप में अपने सही लक्ष्य को पहचानते हुए सशक्त रह पाएगा तभी यह संभव होगा।
 
अगले दिन समाचार पत्रों की सुर्खियां बनी- 'डॉक्टर मोहन भागवत ने कहा कि हिंदुओं को समझना होगा दुर्बल व संगठित होना अत्याचार को निमंत्रण देना है।’ अगर देखें तो निस्संदेह यह उनके भाषण का प्रमुख सूत्र था किंतु ऐसा उन्होंने क्यों कहा यह महत्वपूर्ण हो जाता है। अपने भाषण के अंत में उन्होंने नवरात्रि की चर्चा करते हुए बताया उस पंक्ति को देखिए।
 
‘इसी साधना से विश्व के सभी राष्ट्र अपना-अपना उत्कर्ष याद कर नए सुख, शांति व सद्भावनायुक्त विश्व को बनाने में अपना योगदान करेंगे। उस साधना में आप सभी आमंत्रित हैं। उनकी उन्होंने एक गीत की पंक्ति दोहराई- हिंदू भूमि का कण-कण हो अब शक्ति का अवतार उठे, जल-थल से अंबर से फिर हिंदू की जय-जयकार उठे, जग जननी की जयकार उठे।' तो यह साधना कौन सी है?
 
नवरात्रि में देवी वास्तव में देवताओं के शक्तियों की पुंज थीं लेकिन शक्तिशाधना शील के साथ। इसीलिए उन्होंने कहा कि संघ की प्रार्थना में कोई परास्त न कर सके ऐसी शक्ति और विश्व विनम्र हो ऐसा शील भगवान से मांगा है। विश्व के, मानवता के कल्याण का कोई काम अनुकूल परिस्थिति में भी इन दो गुणों के बिना संपन्न नहीं होता। विश्व की मंगल साधना में मौन पुजारी के नाते संघ लगा है तो उसके पीछे यही सोच है। 
 
इसलिए दुर्बल और संगठित होने का अर्थ दूसरे को डराना या हमलावर होना नहीं बल्कि कल्याण के लिए शील संपन्न शक्ति साधना है। उनकी इस बात से हर भारतीय को सहमत होना चाहिए कि भारत विश्व में प्रमुखता पा रहा है तो ऐसी शक्तियां और देश हैं जिन्हें अपने निहित स्वार्थ पर खतरा नजर आता है और वह अनेक तरीकों से भारत को कमजोर और अस्थिर करने का प्रयास करते हैं। 
 
इसके दुनिया में उदाहरण है कि चाहे देश पर आक्रमण करना हो, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों को अवैध अथवा हिंसक तरीकों से उलट देना हो, अंदर विद्रोह करना हो ऐसे प्रयास चलते रहे हैं और भारत के विरुद्ध चल रहे हैं। उन्होंने बांग्लादेश में हिंसक तख्तापलट की चर्चा करते हुए कहा कि हिंदू समाज पर जिस तरह अकारण नृशंस अत्याचार हुए उसके विरुद्ध हिंदू समाज संगठित होकर स्वयं बचाव में घर के बाहर आया इसलिए बचाव हुआ किंतु वह समाप्त नहीं हुआ है। इससे भारत की कई प्रकार के खतरे बढ़े हैं, इसलिए विश्व भर के हिंदुओं और भारत सरकार के सहयोग की अल्पसंख्यक हिंदुओं को आवश्यकता है। यहीं पर उन्होंने कहा कि असंगठित रहना व दुर्बल रहना यह दूसरों के द्वारा अत्याचारों को निमंत्रण देना है। चूंकि कि बांग्लादेश को पाकिस्तान में भी मिलने की बात हो रही है इसलिए यह सबसे बड़े चिंता का विषय है। 
 
दूसरे खतरे के रूप में उन्होंने डीप स्टेट, वोकिजम, कल्चरल मार्क्सिस्ट की चर्चा करते हुए कहा कि यह सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित शत्रु हैं और सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं तथा जहां-जहां जो भी भद्र मंगल है उसका पूरी तरह नाश इनकी कार्य प्रणाली का अंग है। सच है कि देश में कृत्रिम तरीके से मांग, आवश्यकता अथवा समस्या के आधार पर अलगाव के लिए प्रेरित करते हैं, असंतोष को हवा देते हैं और शेष समाज से अलग व्यवस्था के विरुद्ध उग्र बनाते हैं। समाज में टकराव की संभावनाओं को ढूंढ कर टकराव खड़े करते हैं और इस तरह चारों ओर अराजकता और भय का वातावरण पैदा किया जाता है। बताने की आवश्यकता नहीं कि भारत में यह स्थिति हमारे चारों ओर है। दुर्भाग्य से सत्ता के लिए स्पर्धा में अनेक दलों ने यही पद्धति अपनायी और इसकी क्षति देश को हो रही है।
 
इसमें संस्कार युक्त परिवार और समाज परंपरा में दोष उत्पन्न हो गए हैं और हर स्त्री को माता के रूप में देखने का आचरण कमजोर हुआ है। इसके कारण बलात्कार और अन्य शर्मनाक घटनाएं हो रही है। इसी में उन्होंने कोलकाता के आरजी कार अस्पताल की भी चर्चा की। इसको समाप्त करने के लिए परिवार, समाज तथा संवाद माध्यमों के द्वारा अपने सांस्कृतिक मूल्यों के प्रबोधन की व्यवस्था को जागृत करने पर उन्होंने बोल दिया। 
 
सीमा क्षेत्र से लेकर चारों ओर संकट खड़ा करने तथा बिना कारण कट्टरपन को उकसाने की घटनाएं हमारे सामने हैं जब हिंदू धर्म यात्राओं पर अकारण पथराव और हमले हो रहे हैं तथा बिना कारण हिंसा व भय पैदा करने की घटनाएं जिसे डॉक्टर भागवत ने गुंडागर्दी कहा और यही सच है। चूंकि यह योजनाबद्ध तरीके से हो रहा है इसलिए इसे तुरंत नियंत्रित करना, उपद्रवियों को दंडित करना प्रशासन का काम है लेकिन उन्हें हम तक पहुंचे से रोक कर अपने प्राण व संपत्ति की रक्षा का दायित्व तो समाज का ही है। लेकिन जब तक हिंदू समाज जातियों में बंटा रहेगा तब तक यह संभव नहीं होगा इसलिए।
 
मोहन भागवत की यह बात बिल्कुल उचित है कि समाज के सभी वर्गों में कुटुंबों की मित्रता होनी चाहिए, यह व्यक्तिगत तथा पारिवारिक स्तर पर हो तथा श्रद्धा के स्थल यानी मंदिर, पानी, श्मशान, समाज के सभी वर्गों को सहभागी होना ही चाहिए। जातियों के नेतृत्व करने वाले प्रमुख लोग आपस में मिल-बैठकर विचार करें तो सद्भावपूर्ण वातावरण बनेगा और समाज संगठित होगा तथा कोई कुचक्र सफल नहीं होगा। हम देख रहे हैं कि किस तरह जाति के आधार पर अलग-अलग विषय उठाकर समाज को खंडित करने की कोशिश हो रही है।
 
इस तरह डॉ. भागवत ने भारत में व्याप्त सभी खतरों, उनके कर्म और यहां तक कि उनके निदान की भी बात की और अगर आपके अंदर कोई वैचारिक घृणा और दुराग्रह नहीं है तो इसे स्वीकार करना पड़ेगा। चाहे पर्यावरण पर संकट हो, ऋतु चक्र का परिवर्तन, स्वास्थ्य समस्या या समाज के अलग-अलग खतरे उन सबके लिए कुछ सूत्र निश्चित हैं। 
 
अपने संस्कारों का जागरण, एक समाज के नागरिक के नाते अनुशासनपरक सामाजिक व्यवहार, भारत एवं हिंदुत्व को लेकर स्व गौरव का भाव, भारत गौरव की प्रेरणा से अपना आचरण, विविधताओं को भेद न मानकर विशेषता मानना, उपभोग में संयम सहिष्णुता तथा दुर्भावना से परे रहना आदि की चर्चा उन्होंने की और इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

यह सब किसी भी राष्ट्र के लिए परम सत्य हैं जो हमारे सह अस्तित्व तथा सहजीवन के रास्ते हैं। लेकिन दुर्बल की सत्यता, सहिष्णुता व मूल्यों की बात कोई नहीं सुनता। इसलिए अगर दुनिया में अंतरराष्ट्रीय व्यवहार में सद्भावना व संतुलन लाकर शांति और बंधुता की ओर बढ़ना है तो भारत को विशेषकर हिंदुओं को अपने को शक्तिशाली बनाए रखना होगा। बलहीन को कोई नहीं पूछता। इसीलिए उन्होंने संगठित होने की बात की तथा असंगठित होने को अत्याचार बताया।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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