मुसलमानों के अधिकारों की लड़ाई क्या हिन्दू लड़ेगा?

श्रवण गर्ग

बुधवार, 27 अप्रैल 2022 (17:12 IST)
हुकूमत अगर बहुसंख्यक वर्ग के कट्टरपंथी दंगाइयों के साथ खड़ी नज़र आती हो तो लोकतंत्र और अल्पसंख्यकों की रक्षा की ज़िम्मेदारी किसे निभानी चाहिए? असग़र वजाहत एक जाने-माने उपन्यासकार, नाटककार और कहानीकार हैं। उनके प्रसिद्ध नाटक 'जिन लाहौर नई वेख्या, ओ जन्मयाई नई' (1990) का दुनिया के कई देशों में मंचन हो चुका है। हाल में घटी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के सिलसिले में असग़र ने 'हिन्दू-मुस्लिम सद्भावना और एकता के लिए कुछ विचारणीय बिंदु' शीर्षक से बहस के लिए एक महत्वपूर्ण नोट अपने फ़ेसबुक पेज पर शेयर किया है। नोट में उल्लेखित 10 बिंदुओं में बहस के लिहाज़ से 2 बिंदु ज़्यादा महत्व के हैं: पहला और अंतिम।
 
अपने पहले बिंदु में असग़र कहते हैं : 'मुस्लिम समुदाय के लिए यह मानना और उसके अनुसार काम करना बहुत आवश्यक है कि देश में लोकतंत्र मुसलमानों के कारण नहीं बल्कि हिन्दू बहुमत के कारण स्थापित है और हिन्दू बहुमत ही उसे मज़बूत बनाएगा। इसलिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कोई लोकतांत्रिक लड़ाई सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिन्दुओं का साथ लिए बिना नहीं लड़ी जा सकती।'
 
असग़र अपने 10वें या अंतिम बिंदु में कहते हैं कि संभ्रांत मुस्लिम समुदाय और साधारण गरीब मुसलमानों के बीच एक बहुत बड़ी दीवार है जिसे तोड़ना और ज़रूरी है।
 
पिछले 7-8 साल या उसके भी पीछे जाना हो तो गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों की घटनाओं ने इस भ्रम को तोड़ दिया या कमजोर कर दिया है कि देश में आज़ादी के जमाने जैसी सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिन्दुओं की ऐसी कोई जमात बची हुई है, जो हर तरह के अल्पसंख्यकों (जिनमें दलितों को भी शामिल किया जा सकता है) के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए किसी लोकतांत्रिक लड़ाई के लिए तैयार है! असग़र जिन सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिन्दुओं की बात कर रहे हैं, उनमें अधिकांश मुसलमानों के नुमाइंदों के तौर पर संभ्रांत मुस्लिमों की ओर से और दलितों के प्रतिनिधियों के रूप में दलितों की तरफ़ से मंत्रिमंडलों में शामिल सुविधाभोगी पिछड़े नेताओं की तरह ही हो गए हैं।
 
दिल्ली में जहांगीरपुरी (लगभग 1 लाख आबादी) के छोटे से इलाक़े में जब गरीब मुसलमानों की बस्तियां उजाड़ी जातीं हैं तो राजधानी के कोई 22 लाख मुसलमानों को बुलडोज़रों की आवाज़ ही सुनाई नहीं पड़ती। डेमोक्रेटिक हिन्दुओं का वहां इसलिए पता नहीं पड़ता कि संभ्रांत मुस्लिमों की तरह ही वे भी अपनी जान जोखिम में डालने से बचना चाहते हैं। इस तरह के प्रसंगों में यह सच्चाई बार-बार दोहराई जाती है कि दूसरे विश्वयुद्ध (1941-45) के दौरान जब हिटलर के नेतृत्व में कोई 60 लाख निर्दोष यहूदियों की जानें लीं जा रहीं थीं, 8 करोड़ जर्मन नागरिक मौन दर्शक बने नरसंहार होता देख रहे थे।
 
'न्यूयॉर्क टाइम्स' अख़बार ने हाल ही में एक समाचार में बताया है कि जर्मनी की अर्थव्यवस्था अंतरराष्ट्रीय ब्रांड वाली जिन बड़ी-बड़ी कार कंपनियों पर टिकी हुई है, उनकी बागडोर हिटलर के जमाने में हुए यहूदियों के नरसंहार के गुनहगार पूंजीपतियों की पीढ़ी के हाथों में ही है और वह किसी भी तरह के अपराधबोध से ग्रसित नहीं है।
 
सितंबर 2015 में यूपी के दादरी में मोहम्मद अख़लाक़ की मॉब लिंचिंग और उसके बेटे दानिश की पिटाई से मौत के दौरान जो सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिन्दू-मुसलमान मूकदर्शक बने रहते हैं, वे ही खरगोन और जहांगीरपुरी में भी आंखें चुराते हैं। जहांगीरपुरी में काफ़ी कुछ तबाह हो जाने के बाद भी जब कोई वामपंथी महिला नेत्री वृंदा करात बुलडोज़र के सामने अकेली खड़े होने का साहस दिखाती हैं तो पीड़ितों को कुछ उम्मीद बंधने लगती है।
 
असग़र जब कहते हैं कि संभ्रांत और साधारण गरीब मुसलमानों के बीच एक बहुत बड़ी दीवार है तो वे यह कहने में संकोच करते हैं कि हालत बहुसंख्यक समाज में भी लगभग ऐसी ही है। साधारण गरीब मुसलमान का नेतृत्व भी कट्टरपंथी कर रहे हैं और असग़र जिसे 'हिन्दू बहुमत' कहते हैं, उसकी कमान भी कट्टरपंथियों की पकड़ में ही है। सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही अपनी-अपनी जमातों में अल्पसंख्यक हैं। गिनने जितने बचे मैदानी सेकुलर और डेमोक्रेटिक हिन्दुओं (और मुसलमानों) में समाजवादियों और वामपंथियों को माना जा सकता है। वामपंथियों के बारे में यह याद रखते हुए कि इंदिरा गांधी के लोकतंत्र-विरोधी आपातकाल का उन्होंने खुला समर्थन किया था।
 
यह अवधारणा कि देश में लोकतंत्र हिन्दू बहुमत के कारण स्थापित है और वही (हिन्दू बहुमत) उसे मज़बूत बनाएगा, उस सच्चाई के सर्वथा विपरीत है जिसके कि हम एक नागरिक के तौर पर प्रत्यक्षदर्शी और एक सेकुलर तथा डेमोक्रेटिक हिन्दू के रूप में अपराधी हैं। हम चुपचाप खड़े देख रहे हैं कि हिन्दू बहुमत का उपयोग देश में लोकतंत्र को मज़बूत करने के बजाय भारत को एक हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के लिए किया जा रहा है। भाजपा की समझ में आ गया है कि मुसलमान और दलित जिन ताक़तों को सेकुलर और डेमोक्रेटिक मानकर अपना वोट बेकार करते रहे हैं, वे हक़ीक़त में कभी मौजूद ही नहीं थीं। बालों की सफ़ेदी को ढांकने की तरह ही पार्टियां सेकुलरिज़्म की डाई का इस्तेमाल कर रहीं थीं। चुनाव-दर-चुनाव प्राप्त होने वाले नतीजों में इस नक़ली सेकुलरिज़्म का कलर उतरता गया। इसीलिए जब केसरिया बुलडोज़र चलते हैं तो केवल वर्दीधारी पुलिस ही नज़र आती है सेकुलरिस्ट या गांधीवादी नहीं।
 
जो हुकूमत इस समय सत्ता में है, वह न तो सेकुलर है और न ही उसका सेकुलर हिन्दुओं की ताक़त या उनकी राजनीतिक हैसियत में कोई यक़ीन है। यह हुकूमत परंपरागत मंदिरमार्गी हिन्दुओं के दिलों में मुसलमानों या इस्लाम के ख़िलाफ़ ख़ौफ़ की बुनियाद पर क़ायम हुई है और आगे भी उसी को अपनी सत्ता की स्थायी ताक़त बनाना चाहती है। अटलजी सहित भाजपा के दूसरे नेताओं की कथित छद्म धर्मनिरपेक्षता इस तरह की जोखिम उठाने से डरती थी। मोदी ने करके दिखा दिया। इस विरोधाभास को संयोग भी माना जा सकता है कि सर्वधर्म समभाव को लेकर सत्य के प्रथम प्रयोग भी गुजरात में हुए थे और बाद में कट्टर हिन्दुत्व की प्रयोगशाला भी गुजरात ही बना। एक के नायक मोहनदास करमचंद गांधी बने और दूसरे के नरेन्द्र दामोदरदास मोदी।
 
लोकतंत्र की लड़ाई अब उतनी सहज नहीं रही है जितनी कि असग़र अपने सुझावों के ज़रिए बताना या बनाना चाह रहे हैं (मसलन : 'देश में एकता और शांति के महत्व और आवश्यकता पर एक बड़ा राष्ट्रीय सम्मेलन किया जाना चाहिए जिसमें अंतिम दिन दंगा-प्रभावित क्षेत्र में कैंडल मार्च निकाला जा सकता है।')। लड़ाई लंबी चलने वाली है, क्योंकि किन्हीं विदेशी ताक़तों के ख़िलाफ़ नहीं है। चूंकि हमारे बीच कोई महात्मा गांधी उपस्थित नहीं हैं अत: लड़ाई के अहिंसक परिणामों को लेकर कोई गारंटी भी सुनिश्चित नहीं समझी जा सकती है। मैंने अपने पूर्व के एक आलेख में उद्धृत किया था कि जैसे-जैसे लोगों के पेट तंग होते जाते हैं, हुकूमत के पास उन्हें देने के लिए 'हिन्दुत्व' और 'राष्ट्रवाद' के अलावा कुछ और नहीं बचता। अत: सभी तरह के साधारण और गरीब अल्पसंख्यकों को प्रतीक्षा करना होगी कि उनके अधिकारों की लड़ाई में सेकुलर हिन्दू और संभ्रांत अल्पसंख्यक नहीं बल्कि वे धर्मप्राण हिन्दू ही साथ देंगे, जो मुफ़्त के सरकारी अनाज के दम पर राष्ट्रवाद के नारे लगाते-लगाते एक दिन पूरी तरह से थक जाएंगे और अपने लिए ज़्यादा आज़ादी की मांग करेंगे।(फ़ाइल चित्र)
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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