हर महिला के लिए माहवारी एक जैविक और प्राकृतिक क्रिया है। लेकिन क्या पूरे समाज का भी ये ही सोचना है? उत्तर है नहीं। भारत में आज भी माहवारी शब्द को शर्म और गंदगी से जोड़कर देखा जाता है। शहर हो या गांव इस विषय पर हर जगह एक चुप्पी का माहौल है।
आज भी बदलते दौर में माहवारी शब्द हमारे जीवन के शब्दकोष का एक सहज हिस्सा नहीं बन पाया हैं। महिला के उन पांच दिनों से जुड़ी उसकी असहजता और तकलीफ पर कहीं कोई चर्चा नहीं होती।
उत्तर प्रदेश के बुन्देल खंड के गांव मसोरा कला में महिलाओं के लिए घरों में कोई निजी स्थान नहाने और शौच के लिए नहीं है,पुरुष तो खुले में नहाते ही हैं लेकिन महिलाओं के पास भी कोई निजी आड़ नहीं होती है इसलिए महिलाएं खुले में ही कपड़े पहनकर नहाने के लिए मजबूर हैं।
इसका एक सबसे बड़ा कारण महिलाओं की निजी आड़ की अहमियत को नज़रंदाज़ करना है। सबसे ज्यादा दिक्कत माहवारी के दौरान होती है। निजी आड़ नहीं होने के कारण महिलाएं एक ही कपड़ा दिन-भर इस्तेमाल करतीं हैं और उसे बदलने के लिए दिन छिप जाने का इंतज़ार करतीं हैं।
माहवारी के कपड़े को शर्म के कारण महिलाएं खुले में नहीं धो पातीं हैं वो दिन ढल जाने के बाद तालाब या कुआं के पास उन्हें धोती हैं। अंधेरे में धुलने के कारण माहवारी की कतरनें ठीक से साफ़ भी नहीं हो पातीं हैं। धूप में न सूखने के कारण ये संक्रमण का कारण भी बनतीं हैं। गांवों में अधिकतर महिलाएं सफ़ेद पानी की शिकायत से ग्रस्त हैं।
भारत के कई गांवों में 'गूँज' संस्था महिलाओं की बुनियादी जरूरतों के बारे मे संवाद कर उनकी मासिक धर्म से जुडी बुनियादी जरूरतों पर काम कर रहा है।
काम के दौरान संस्था ने महसूस किया है की हमारे गांवों में माहवारी को लेकर महिलाओं की जरूरतों पर कभी भी कोई संवाद नहीं हुआ है माहवारी के दौरान ये आड़ और भी जरुरी हो जाती है। महिलाओं के पास कोई निजी आड़ न होने के कारण महिलायें खुद को साफ़ सुथरा नहीं रख पातीं है।
जिसका नकारात्मक असर इनके स्वास्थ पर पड़ता है 'गूँज' के क्लॉथ फॉर वर्क (काम के बदले कपड़े) अभियान के तहत गांव वालों ने स्वयं महिलाओं के लिए प्लास्टिक की शीट और बांस की बल्लियों से स्नान-घर व शौचालय बनाए हैं। संस्था का कहना है कि तस्वीर बदलने के लिए संवाद करना बेहद जरुरी है।
ये कहानी हमारे बीच किसी भी गांव की हो सकती है।लेकिन माहवारी पर संवाद करके हम ऐसा होने से रोक सकते हैं।