'एक साथ तीन बार तलाक बोलने' को लेकर चल रहे विवाद के बीच केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने रविवार को कहा कि सरकार का विचार स्पष्ट है कि पर्सनल लॉ बोर्ड को संविधान के दायरे तथा लैंगिक समानता एवं सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार के नियमों के अनुरूप होना चाहिए। 'तीन तलाक और सरकार का हलफनामा' शीर्षक से फेसबुक पर लिखे पोस्ट में जेटली ने कहा कि अतीत में सरकारें ठोस रुख अपनाने से बचती रही हैं कि पर्सनल लॉ को मूल अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए, लेकिन वर्तमान सरकार ने इस पर स्पष्ट रुख अपनाया है।
उन्होंने लिखा है, 'पर्सनल लॉ को संविधान के दायरे में होना चाहिए और ऐसे में 'एक साथ तीन बार तलाक बोलने' को समानता तथा सम्मान के साथ जीने के अधिकार के मानदंडों पर कसा जाना चाहिए। यह कहने की जरूरत नहीं है कि यही मानदंड अन्य सभी पर्सनल लॉ पर भी लागू है।' यह रेखांकित करते हुए कि 'एक साथ तीन बार तलाक बोलने' की संवैधानिक वैधता समान नागरिक संहिता से अलग है, जेटली ने लिखा है, वर्तमान में उच्चतम न्यायालय के समक्ष जो मामला है वह सिर्फ 'एक साथ तीन बार तलाक बोलने' की संवैधानिक वैधता के संबंध में है।
कानून मंत्रालय ने सात अक्तूबर को उच्चतम न्यायालय में दायर अपने हलफनामे में कहा था कि बहु-विवाह और 'एक साथ तीन बार तलाक बोलने' के चलन को समाप्त करना चाहिए। उसने कहा कि ऐसे चलन को 'धर्म के महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग के रूप में नहीं देखा जा सकता है।' जेटली ने लिखा है, 'समान नागरिक संहिता को लेकर अकादमिक बहस विधि आयोग के समक्ष जारी रह सकती है। लेकिन जिस सवाल का जवाब चाहिए वह यह है कि यह जानते हुए कि सभी समुदायों के अपने पर्सनल लॉ हैं, क्या ये पर्सनल लॉ संविधान के तहत नहीं आने चाहिए?'
अरुण जेटली ने लिखा है कि धार्मिक रीति-रिवाजों और नागरिक अधिकारों में मूल अंतर है। उन्होंने लिखा है, 'जन्म, गोद लेने, उत्तराधिकार, विवाह, मृत्यु आदि से जुड़े धार्मिक समारोह मौजूदा धार्मिक रिवाजों और प्रथाओं के आधार पर किए जा सकते हैं।' उन्होंने लिखा, 'क्या जन्म, गोद लेने, उत्तराधिकार, विवाह, तलाक आदि से जुड़े अधिकार धार्मिक प्रथाओं पर आधारित होने चाहिए या संविधान द्वारा मिलने चाहिए? क्या इनमें से किसी भी मामले में मानवीय सम्मान के साथ असमानता या समझौता होना चाहिए?' जेटली ने लिखा है कि समुदायों में तरक्की होने के साथ ही लैंगिक समानता की बातें बढ़ी हैं।
उन्होंने लिखा है, 'इसके अतिरिक्त सभी नागरिकों, विशेष रूप से महिलाओं को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है। प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित करने वाले पर्सनल लॉ क्या समानता के इन संवैधानिक मूल्यों और सम्मान के साथ जीने के अधिकार के अनुरूप नहीं होने चाहिए?' ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने दो सितंबर को उच्चतम न्यायालय से कहा था कि सामाजिक सुधार के नाम पर समुदायों के पर्सनल लॉ को फिर से नहीं लिखा जा सकता और उसने तलाक के मामले में मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाली कथित असमानता के मुद्दे पर दायर याचिकाओं का विरोध किया। (भाषा)