किसी भी सैनिक को युद्ध का मौका सौभाग्य से ही मिलता है। मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि कारगिल युद्ध के दौरान मेरी पोस्टिंग नौशेरा में थी। उस समय मैं गढ़वाल राइफल्स की 14वीं बटालियन में तैनात था। हम कारगिल तक जाना चाहते थे, लेकिन हमें अनुमति नहीं मिली। हमारी यूनिट को पोस्ट की रखवाली करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
यह कहना है उत्तराखंड के पूर्व सैनिक लांसनायक रमेश बौराई का। वेबदुनिया से बातचीत में रमेश ने कहते हैं- दिसंबर 2000 में रिटायरमेंट के बाद मैं समाजसेवा से जुड़ गया। 2005 से मैंने पर्यावरण के लिए काम करना शुरू कर दिया। 2005 की ही बात है जब मेरी मां एक पहाड़ी पर घास काट रही थीं, वहां से फिसलकर वे गिर गईं और उनकी मौत हो गई। वहीं से मैंने सोचा कि पहाड़ों और पर्यावरण के लिए कुछ करना चाहिए।
रमेश ने कहा कि मैं एक युद्ध लड़कर आया था फिर मैंने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जंग छेड़ दी। उन्होंने कहा कि चीड़ के वृक्ष पहाड़ों में पर्यावरण को तेजी से नुकसान पहुंचा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि चीड़ के पेड़ बहुत ही खूबसूरत लगते हैं, लेकिन उसके पीछे की हकीकत तो पहाड़ी लोग ही जानते हैं। चीड़ के कारण उत्तराखंड के जंगल जल गए, जल स्रोत 97 फीसदी खत्म हो गए। जल स्रोत खत्म होने के कारण जंगली जानवरों ने गांवों का रुख कर लिया है।