उनके गले में रुद्राक्ष की मालाएं थीं, हाथ में कमंडल। मन में कोई जाप होगा या राम का नाम। आंखों में खाकी वर्दीधारी पुलिस से अपनी जान बचाने की कातर विनति थी। लेकिन पुलिस संतों का हाथ झटक देती है। धकेल देती है परे और उस भीड़ को जारी कर देती है संतों की मौत का सर्टिफिकेट।
हत्या का सर्टिफिकेट जारी होते ही शुरु हो जाता है मौत का बर्बर तांडव और देखते ही देखते दो भगवाधारी वृध्द संतों की हत्या अपनी आंखों से देखती है पुलिस। और तब तक देखती है जब तक कि शव की अपनी कोई सक्रियता नहीं बची रह जाती, जब तक देह का कोई कंपन नहीं बचता। तब तक जब देह सिर्फ लाठियों की मार पर कंपन करती हैं। जैसे पानी पर लठ गिरता है तो बौछार उड़ती है ठीक वैसे ही निस्तेज और ठंडे शव बुलबलों की तरह छलछला कर उड़ रहे थे।
हम सब चश्मदीद है इन हत्याओं के। हम सबने देखा है यह सब। इसलिए आओ, अब हम सब मिलकर इस घटना को शर्मनाक, भयावह और बर्बर बताएं।
क्योंकि हम हत्याओं को शर्मनाक, भयावह और बर्बर ही बता सकते हैं।
दृश्य महाराष्ट्र के पालघर का है। दो वृध्द संत। नाम कल्पवृक्ष गिरी और सुशील गिरी। घटना के दिन जूना अखाड़ा के गिरी नाम धारण किए ये दो साधू मुंबई से गुजरात जा रहे थे। अपने किसी संत साथी की समाधि में शामिल होने के लिए। पालघर की सीमा में पहुंचते ही किसी ने अफवाह उड़ा दी कि नगर में दो चोर घुस आए हैं, और वे चोर हैं, इसलिए आओ, हम चलकर, मिलकर उनकी हत्या कर दें।
एक हत्या करने के लिए एक आदमी काफी होता है, दो हत्याओं के लिए दो लोग। लेकिन यहां दो संत और एक वाहन चालक की हत्या के लिए तीन सौ से ज्यादा लोगों ने पुलिस की आंखों के सामने खुद ही फैसला कर लिया।
सबसे हैरानी की बात तो यह है कि इन हत्याओं की कहीं कोई आहट नहीं है, बावजूद इसके कि पूरे देश में सन्नाटा है और चिड़िया व कबूतर की आवाजें भी आसानी से सुनी जा सकती हैं।
बात बे बात पर सरकार को कोसने वाले कम्युनिस्ट, लिबरल्स, इंटेलएक्च्अुल्स को कहीं भी लोकतंत्र की हत्या नजर नहीं आ रही है। न ही इसमें कहीं उनकी आजादी और स्वतंत्रता को खतरा ही नजर आया है। क्योंकि इन लाशों में सरकार को कोसने का स्वाद नहीं, कोई सौंदर्य नहीं।
न ही इन्होंने जमात की जहरीली छी और थू पर कुछ कहा और न ही ये संतों की हत्या पर कुछ कहेंगे। ऐसे मामलों में उनकी चुप्पी ही उनका तर्क है और उनकी खामोशी ही उनका पक्ष है। इसमें कोई रातनीतिक स्वाद नहीं।
मीडिया की कलम की स्याही सूख गई। क्योंकि यह सिलेक्टिव एजेंडे में नहीं आता। यह उससे बाहर की वारदात है। इससे कुछ खास लोगों का एजेंडा सेटिस्फाई नहीं होता। इसमें रोहित वेमूला की लाश की गंध नहीं है, इसमें गौरी लंकेश की हत्या का सौंदर्य नहीं है। अगर कुछ कहेंगे, लिखेंगे तो उनका सिलेक्टिव एजेंडा डैमेज होगा। इससे इंटरनेशनल फूटेज भी नहीं मिलेगा।
कमाल की बात तो यह है कि जो इस भगवा के पैरोकार है ऐसे दक्षिणपंथियों की वॉल और ट्विटर पर भी यह घटना नजर नहीं आ रही। वो भी चुप्प है। क्योंकि कई बार चुप्पी में ही भलाई है। कहीं इमेज उजागर न हो जाए। हमारी भी, तुम्हारी भी।
पालघर की घटना के पीछे क्या मकसद है और क्यों और कैसे यह घटना पुलिस की आंखों के सामने घट गई, यह जांच का विषय है, लेकिन किसी भी धर्म और संप्रदाय के व्यक्ति के जिंदा रहने और मरने का फैसला अगर भीड़ ही करने लगी तो संभल जाइए, ये आपके और हमारे धर्म के लिए ही नहीं पूरे देश के पंथों के लिए खतरे का निशान है!
दोनों तरफ की यह चुप्पी एक खुंखार संस्कृति और समाज का जन्म दे रही है। चुप्पियां अक्सर हत्याओं का समर्थन करती हैं। और हत्याओं का समर्थन किसी भी धर्म, पंथ और एजेंडे के लिए हितकर नहीं है।
अगर ज्यादा कुछ नहीं लिख- कह सकते तो आओ, इतना ही कह दो… ये हत्याएं जघन्य, शर्मनाक, भयावह और बर्बर हैं…