जम्मू। इस सच्चाई से मुख नहीं मोढ़ा जा सकता कि कश्मीरी जनता का एकमात्र सच्चा प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले अलगाववादी संगठन आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस में अगर कोई सबसे कट्टरपंथी शक्तिशाली और विवादित नेता था तो वह सईद अली शाह गिलानी ही थे।
कश्मीरी अवाम के अलावा इस्लामी कट्टरपंथी और आंतकवादी संगठनों में उनकी लोकप्रयिता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता था कि लश्कर-ए-तौयबा जैसा खूंखार आतंकी संगठन भी उन्हें हर दिल अजीज नेता कहता था।
गिलानी शुरू से ही कश्मीर के पाकिस्तान में विलय की मांग करते हुए इस मसले को जेहाद से हल करने की वकालत करते रहे थे। उनके इस रवैये से ने सिर्फ आल पार्टी हुर्रियत कांफ्रेंस में विवाद पैदा हो गया, बल्कि जमात-ए-इस्लामी के कई सदस्य भी गिलानी के इन बयानों में खासे नाराज रहते थे। गिलानी जमात-ए-इस्लामी के शूरा-ए-मजलिस के भी सदस्य भी थे।
गिलानी की जगह जमात के किसी अन्य नेता को हुर्रियत की बैठक में अपना पक्ष रखने कभी नहीं भेजा था।
गिलानी के मजबूत जनाधार और लोकप्रियता के कारण ही जमात कश्मीर में अपनी पकड़ बनाए हुए था। इसलिए उन्हें नजरअंदाज करना आसान नहीं था।
हुर्रियत में जिन दिनों गिलानी को लेकर तीव्र विवाद था, उन दिनों बारामुल्ला में एक जनसभा में लोगों ने गिलानी के समर्थन में जोरदार नारेबाजी करते हुए कहा था कि गिलानी के बगैर न जमात चलेगी और न हुर्रियत।
उनकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी था कि वह कश्मीर मसले पर शुरू से एक ही स्टैंड पर कायम रहे। इसके अलावा वह घाटी के हर उस गांव में हर उस घर में जरूर जाते रहे हैं जिसका कोई सदस्य कश्मीर की आतंकी हिंसा में मारा गया हो। हुर्रियत सहित कश्मीर के अन्य अलगाववादी नेताओं में इस बात का सर्वथा अभाव है।
आतंकियों के कट्टर समर्थक गिलानी ने कुछ अरसा पहले एक बयान जारी करके केंद्र से जम्मू कश्मीर को एक विवादित क्षेत्र स्वीकार करने को भी कहा था। इसके साथ ही उन्होंने यकीन दिलाया था कि अगर नई दिल्ली उनकी बात पर अमल करती है तो वह आतंकवादियों को भी संघर्ष विराम के लिए मना लेंगें।
कश्मीर में सबसे कट्टर और दुर्दात आतंकवादी देने वाले सोपोर कस्बे के निवासी गिलानी ने 1930 में बांडीपोरा के पास स्थित एक छोटे से गांव के एक साधारण परिवार में जन्म लिया था। लाहौर से फाजिल और अदीब की डिग्री लेने के बाद उन्होंने अध्यापन का कार्य शुरू किया। 1950 में वह जमात में शामिल हुए और उसके विभिन्न पदों पर रहते हुए अपनी कुशलता का परिचय दिया।
गिलानी के करीबियों का कहना है कि राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने संबंधी जमात-ए-इस्लामी के निर्णय से वह खुश नहीं थे। लेकिन जब जमात राजनीति में उतरी तो वह चुनाव लड़कर विधानसभा में पहुंचने वाले जमात-ए-इस्लामी के पहले नेता बने।
उन्होंने जमात की टिकट पर सोपोर विधानसभा का तीन बार चुनाव लड़ा और तीन बार ही जीत हासिल की। उन्होंने संसदीय चुनाव भी लड़ा, लेकिन पराजित हो गए। कश्मीर में जब आतंकवादी हिंसा शुरू हुई तो वह जमात की शूरा-ए-मजलिस के पहले सदस्य थे जिसने आतंकवादियों का खुलकर समर्थन किया था।