जम्मू। कश्मीरी पंडितों पर हुए आतंकी अत्याचारों व हमलों पर बनी फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' फिर से चर्चा में है, पर कोई उन कश्मीरी पंडितों की चर्चा नहीं कर रहा है, जो बढ़ते आतंकी हमलों के कारण फिर पलायन को मजबूर हुए तो अपना स्थानांतरण करवाने को दर-ब-दर हो रहे हैं।
इस साल 12 मई को एक कश्मीरी सरकारी कर्मचारी राहुल बट की उसके ऑफिस के भीतर घुसकर हुई हत्या के बाद सैकड़ों कश्मीरी विस्थापित सरकारी कर्मचारी कश्मीर से भागकर जम्मू आ गए। वे सभी प्रधानमंत्री पैकेज के तहत कश्मीर में सरकारी नौकरी कर रहे थे, जिसकी प्रथम शर्त यही थी कि उन्हें आतंकवादग्रस्त कश्मीर में ही नौकरी करनी होगी।
हालांकि कश्मीर प्रशासन ने उन्हें सुरक्षित स्थानों पर तैनात करने का आश्वासन तो दिया, पर वे नहीं माने, क्योंकि उनकी नजरों में अभी भी कश्मीर में उनके लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं है। पिछले करीब 200 दिनों से ये कर्मचारी अब जम्मू में प्रतिदिन धरना और प्रदर्शन कर रहे हैं।
एक बार नंगे पैर लंबा मार्च भी कर चुके हैं, पर किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। हालात यह हैं कि पिछले छह महीनों से न ही कोई उनकी सुन रहा है और न ही कोई चर्चा कर रहा है। इतना जरूर था कि 'द कश्मीर फाइल्स' पर फिर से छिड़ी बहस के बाद कई राजनीतिक दलों ने इन कश्मीरी पंडित कर्मचारियों के साथ सहानुभूति जतानी जरूर शुरू की थी।
इन कश्मीरी पंडित कर्मचारियों के संगठन का कहना था कि वे कोई आसमान नहीं मांग रहे हैं, बल्कि अपनी जान की सुरक्षा मांग रहे हैं, जो प्रशासन देने को तैयार नहीं है। इन पंडितों का कहना था कि कश्मीर में अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य सुरक्षित नहीं हैं और प्रशासन उनकी सुरक्षा के प्रति सिर्फ झूठे दावे करता आया है।