नोटा से हो सकता है बड़ा नुकसान, राजनीतिक दलों को सता रही है चिंता

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018 (11:37 IST)
भोपाल। लोकतंत्र के महापर्व चुनाव में प्रत्याशियों को खारिज करने का विकल्प देने वाले 'नोटा' (इनमें से कोई नहीं) ने वर्ष 2013 के मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में कई उम्मीदवारों का खेल बिगाड़ दिया था और इससे कहीं इस बार भी घाटा न हो जाए, इसकी चिंता राजनीतिक दलों को सता रही है।


चुनाव आयोग ने वर्ष 2013 में पहली बार मतदाताओं को 'नोटा' का विकल्प दिया। इस विकल्प के साथ वर्ष 2013 में ही मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में छह लाख 43 हजार एक सौ 71 मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया, जो कुल वैध मतों का 1.91 प्रतिशत है। राज्य के इन मतदाताओं ने कई प्रत्याशियों को वोट पाने का योग्य नहीं मानकर उन्हें सिरे से खारिज कर दिया।

प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में कुल प्राप्त मतों के आधार पर भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के बाद नोटा चौथे पायदान पर रहा था। पांच वर्ष पहले के विधानसभा चुनाव के बाद बीते लगभग 55 महिनों में आम मतदाताओं में 'नोटा' को लेकर जागरुकता बढ़ी है। साल 2013 के बाद लोकसभा चुनाव समेत देश के विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों में नोटा ने मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों को नए सिरे से रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया है। ख़ासकर वैसी सीटों पर जहां जीत-हार का अंतर काफी कम रहा।

नोटा में इतनी बड़ी संख्या में पड़े मतों का चुनाव नतीजों पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में मध्यप्रदेश की लगभग 20 सीटों पर नोटा के कारण कई उलटफेर हुए। नोटा ने ग्वालियर (पूर्व), सुरखी, जबलपुर (पूर्व), जबलपुर (पश्चिम), बरघाट, छिंदवाड़ा, छतरपुर, सैलाना समेत कई सीटों पर अपनी उपस्थिति से राजनीतिक पंडितों को भी आश्चर्य में डाल दिया था।

ग्वालियर (पूर्व) विधानसभा क्षेत्र से वर्ष 2013 के चुनाव में भाजपा की माया सिंह को 59,824 मत मिले और कांग्रेस उम्मीदवार मुन्नीलाल गोयल 58677 वोट पाकर महज 1147 मतों से पराजित हो गए थे। वहीं, इस सीट पर 2,112 मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया था। यदि नोटा में पड़े मतों का 50 प्रतिशत भी कांग्रेस उम्मीदवार को मिल जाता तो परिणाम कुछ और होता। इसी तरह सुरखी विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के गोविंद सिंह को 59372 और भाजपा उम्मीदवार पारुल साहू केसरी को 59513 मत मिले। इससे कांग्रेस उम्मीदवार महज 141 वोटों से हार गए थे। सुरखी सीट पर नोटा का प्रयोग करने वाले मतदाताओं की संख्या यहां 1,558 थी।

जबलपुर (पूर्व) में भाजपा उम्मीदवार अंचल सोनकर को 67167 मत और कांग्रेस के लखन घनघोरिया को 66012 मत मिले। भाजपा ने कांग्रेस को 1155 मतों से हराया, जबकि नोटा पर 2761 मतदाताओं ने बटन दबाए। कुछ यही कहानी जबलपुर (पश्चिम) विधानसभा क्षेत्र में भी देखने को मिली। यहां तरुण भनोट (कांग्रेस) को 62668, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा के हरेन्द्रजीत सिंह बब्बू को 61745 मत मिले। यह जीत-हार का अंतर 923 वोट का रहा, जबकि नोटा के खाते में 3693 वोट आए। यदि नोटा में गिरे कुल वोटों में से आधे भी भाजपा उम्मीदवार को मिल जाते तो परिणाम बिलकुल उलट होता।

बरघाट विधानसभा चुनाव के परिणाम तो और भी चौंकाने वाले रहे। इस सीट पर जीत-हार का अंतर महज 269 वोटों का रहा। भाजपा उम्मीदवार कमल मर्सकोले को 77122 और कांग्रेस उम्मीदवार को 76853 वोट हासिल हुए। यहां पर 3895 मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाकर विभिन्न दलों को एक संदेश देने की कोशिश की। यदि कुल वोट का दस प्रतिशत भी कांग्रेस प्रत्याशी को मिल जाता, तो वे आसानी से जीत जाते। कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री कमलनाथ का गढ़ कहे जाने वाले छिंदवाड़ा में पांच हजार से अधिक मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया। हालांकि जीत-हार में करीब 25 हजार मतों का अंतर होने से परिणाम पर इसका कोई ख़ास असर नहीं दिखा।

मध्यप्रदेश के छतरपुर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार श्रीमती ललिता यादव ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के आलोक चतुर्वेदी को 2217 मतों से हरा दिया। यहां नोटा बटन का इस्तेमाल 1825 लोगों ने किया, जो जीत-हार के अंतर के काफी करीब रहा। सैलाना विधानसभा क्षेत्र में भाजपा उम्मीदवार संगीता विजय चरेल को 47662 मत और कांग्रेस के गुड्डू हर्षविजय गहलोत को 45583 वोट मिले। इस तरह भाजपा ने कांग्रेस उम्मीदवार को करीब दो हजार मतों से हरा दिया। भले ही भाजपा ने सैलाना सीट जीत ली, लेकिन यहां नोटा पर 4588 लोगों ने अपना मत दिया। यदि आधे वोट भी कांग्रेस उम्मीवार की झोली में चले जाते तो परिणाम अलग होता।

विजयपुर सीट पर कांग्रेस के रामनिवास रावत ने जीत दर्ज की थी। इस सीट पर जीत-हार का अंतर 2149 रहा। रामनिवास को 67358 जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 65209 मत मिले। विजयपुर के 2019 मतदाताओं ने नोटा का इस्तेमाल किया, जो जीत-हार के अंतर से काफी करीब था। इसी तरह जौरा, मुरैना, दिमनी और मेहगांव में जीत-हार का अंतर और नोटा को मिले वोटों का अंतर काफी मामूली था।
 
वर्ष 2013 के मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में 26 क्षेत्र ऐसे थे, जहां जीत-हार का अंतर दो हजार 500 या इससे कम मतों का था। वहीं, 21 विधानसभा सीटों पर नोटा को मिले वोटों की संख्या जीत के आंकड़े से कहीं अधिक थी। पिछले रुझानों को देखते हुए ऐसा माना जा रहा है कि नोटा विधानसभा की कुल 230 सीटों में से लगभग दस फीसदी सीटों पर निर्णायक साबित हो सकता है। इनमें खासतौर पर वे सीटें ज्यादा प्रभावित होंगी, जहां जीत-हार का अंतर कम रहेगा।
 
मुंगावली विधानसभा सीट के लिए फरवरी 2018 में हुए उपचुनाव में तो जीत-हार के अंतर से ज्यादा वोट नोटा में दर्ज हुए थे। इस उपचुनाव में कांग्रेस के ब्रजेन्द्र सिंह यादव को 70808 मत मिले, जबकि उनकी निकटतम प्रतिद्वंद्वी और भाजपा उम्मीदवार श्रीमती बाईसाहब यादव को 68685 मतदाताओं ने वोट दिया। कांग्रेस उम्मीदवार 2123 मतों के अंतर से जीते, लेकिन नोटा को 2252 मत मिले। यदि नोटा में दिए गए वोट भाजपा उम्मीदवार को मिल जाते हैं तो कांग्रेस को जीत नसीब नहीं होती।

उपचुनाव परिणाम के बाद से भाजपा और कांग्रेस दोनों को नोटा की चिंता सता रही है। भाजपा जहां अपने परंपरागत वोट बैंक को साधने में पूरी शिद्दत से जुट गई है, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस सत्तारुढ़ दल से नाराज मतदाताओं को विकल्प देने के प्रयास में है। इस स्थिति में 28 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को नोटा की ओर रुख करने से रोकना राजनीतिक दलों के लिए बड़ी चुनौती होगी। (वार्ता)

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