भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन को लेकर चल रही अनिश्चितता अब अपने अंतिम चरण में प्रवेश कर चुकी है। जे.पी. नड्डा का कार्यकाल जनवरी 2024 में ही समाप्त हो चुका था, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारियों और संगठनात्मक देरी के कारण उन्हें बार-बार विस्तार दिया गया। अब, पार्टी के संवैधानिक नियमों के अनुसार, नए अध्यक्ष के चयन के लिए आवश्यक संगठनात्मक प्रक्रिया को तेजी से पूरा किया जा रहा है। इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की भूमिका एक बार फिर निर्णायक साबित हो रही है, जो न केवल पार्टी के वैचारिक मार्गदर्शन का स्रोत है, बल्कि संगठनात्मक संतुलन और नेतृत्व चयन में भी अपनी छाप छोड़ रहा है।
संगठनात्मक देरी और आरएसएस का दखल : भाजपा के संविधान के अनुसार, राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव से पहले कम से कम 36 में से 50% राज्यों में संगठनात्मक चुनाव पूरे होने अनिवार्य हैं। इनमें मंडल, ब्लॉक और जिला स्तर तक के चुनाव शामिल हैं, जो निर्वाचक मंडल के गठन का आधार बनाते हैं। हालांकि, कुछ महीने पहले तक केवल 12 राज्यों, जिनमें ज्यादातर छोटे राज्य शामिल थे, में ही यह प्रक्रिया पूरी हो पाई थी। उत्तरप्रदेश, गुजरात और पश्चिम बंगाल जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में नए प्रदेश अध्यक्षों का चयन बाकी था, जबकि मध्यप्रदेश में 2 जुलाई, 2025 को ही नया अध्यक्ष चुना गया।
पार्टी के लिए यह देरी न केवल शर्मिंदगी का कारण बनी, बल्कि संगठनात्मक कमजोरी और आंतरिक गुटबाजी को भी उजागर कर रही थी। उत्तरप्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों में गुटबाजी, बिहार में नेतृत्व को लेकर असंतोष और कर्नाटक में बी.वाई. विजयेंद्र के खिलाफ बढ़ता विरोध इसकी मिसाल है। उल्लेखनीय है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली कम सीटों के बाद आरएसएस ने अपनी भूमिका को फिर से मजबूत किया है। यह बदलाव तब और स्पष्ट हुआ, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2025 में नागपुर में आरएसएस मुख्यालय का दौरा किया।
पिछले दो हफ्तों में, भाजपा ने नौ राज्यों में नए प्रदेश अध्यक्षों की नियुक्ति कर निर्वाचक मंडल की शर्तें पूरी कीं। इनमें से अधिकांश अध्यक्ष आरएसएस से गहरे तौर पर जुड़े हैं और चुपचाप, लेकिन प्रभावी ढंग से काम करने की अपनी शैली के लिए जाने जाते हैं। इन नियुक्तियों ने पार्टी के भीतर गुटबाजी को फिलहाल शांत किया है, क्योंकि कोई भी नेता खुलेतौर पर आरएसएस के फैसले का विरोध करने की स्थिति में नहीं है।
अध्यक्ष पद की रेस: तीन दिग्गजों का दबदबा राष्ट्रीय अध्यक्ष की दौड़ में तीन नाम सबसे आगे हैं – केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, मनोहर लाल खट्टर और शिवराज सिंह चौहान। ये तीनों नेता न केवल संगठन में अपने लंबे अनुभव के लिए जाने जाते हैं, बल्कि आरएसएस के साथ उनके गहरे संबंध भी उनकी दावेदारी को मजबूत करते हैं।
भूपेंद्र यादव: राजस्थान से आने वाले भूपेंद्र यादव को संगठन का कुशल रणनीतिकार माना जाता है। उन्होंने उत्तरप्रदेश, बिहार और हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में प्रभारी के तौर पर अहम भूमिका निभाई, जहां भाजपा को बड़ी सफलता मिली। उनकी ओबीसी पृष्ठभूमि और अमित शाह के करीबी होने के कारण सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों को साधने में वह मजबूत दावेदार हैं। आरएसएस के साथ उनका पुराना जुड़ाव और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से शुरू हुआ उनका सफर उनकी विश्वसनीयता को और बढ़ाता है। X पर कई पोस्ट्स में भी भूपेंद्र यादव को अध्यक्ष पद के लिए सबसे मजबूत दावेदार बताया जा रहा है।
मनोहर लाल खट्टर : हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करीबी माना जाता है। उनकी साफ-सुथरी छवि, कठोर प्रशासनिक शैली और आरएसएस की पृष्ठभूमि उन्हें इस रेस में मजबूत बनाती है। खट्टर किसी विशेष जातीय समीकरण से परे हैं, जो पार्टी के लिए एक तटस्थ चेहरा पेश कर सकता है।
शिवराज सिंह चौहान : मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता और जननेता की छवि उनकी सबसे बड़ी ताकत है। ओबीसी समुदाय से आने वाले शिवराज ने मध्यप्रदेश में लाडली बहना योजना जैसी योजनाओं के जरिए सामाजिक समीकरणों को साधने की कला दिखाई है। 13 साल की उम्र से आरएसएस से जुड़े होने और आपातकाल में जेल जाने का उनका इतिहास उनकी वैचारिक निष्ठा को दर्शाता है। हालांकि, क्षेत्रीय प्रभाव के कारण उनकी दावेदारी को कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
आरएसएस की भूमिका और भविष्य की रणनीति : 4 से 6 जुलाई, 2025 को नई दिल्ली में होने वाली आरएसएस की प्रांत प्रचारक बैठक में नए अध्यक्ष के चयन पर अंतिम मुहर लगने की संभावना है। इस बैठक में सरसंघचालक मोहन भागवत और सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले सहित शीर्ष नेतृत्व हिस्सा लेगा। सूत्रों के अनुसार, आरएसएस एक ऐसे अध्यक्ष की तलाश में है, जो संगठन और सरकार के बीच समन्वय स्थापित कर सके, क्षेत्रीय और सामाजिक संतुलन बनाए रखे, और 2025 में बिहार विधानसभा चुनाव व 2026 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम जैसे राज्यों के चुनावों में पार्टी को मजबूती दे सके।
भाजपा के लिए यह नेतृत्व परिवर्तन केवल संगठनात्मक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक रणनीतिक कदम है, जो पार्टी के भविष्य को आकार देगा। आरएसएस की बढ़ती भूमिका और तीन दिग्गज नेताओं की दावेदारी इस प्रक्रिया को और रोचक बनाती है। भूपेंद्र यादव की रणनीतिक कुशलता, खट्टर की प्रशासनिक दक्षता और शिवराज की जनप्रियता में से कौन बाजी मारेगा, यह जल्द ही स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन इतना तय है कि यह निर्णय न केवल भाजपा के आंतरिक लोकतंत्र को परखेगा, बल्कि इसके राष्ट्रीय राजनीतिक लक्ष्यों को भी दिशा देगा। Edited By : Navin Rangiyal