मिर्गी का चमत्कारी इलाज है डीप ब्रेन स्टमयुलाजेशन

ॉ आलोक गुप्ता
न्यूरोसर्जरी यूनिट हेड
आर्टिमिस अस्पताल
गुडगांव

अविनाश राव (बदला हुआ नाम) के लिये ये किसी चमत्कार से कम नहीं था कि उनकी 33 साल की बेटी श्वेता (बदला हुआ नाम) को 30 साल पुरानी मिर्गी की बीमारी से छुटकारा मिल गया था। ये चमत्कार डीप ब्रेन स्टमयुलाजेशन ( डीबीएस) थेरेपी से मुमकिन हो पाया।
मिर्गी एक मस्तिष्क विकार है, इसमें दिमाग के किसी भी हिस्से से तरंगों की वजह से दौरे या अकड़न महसूस होती है। जब मस्तिष्क में असामान्य रूप से विद्युत का संचार होता है तो पीड़ित को अचानक ही दौरे या अकड़न होने लगती है। श्वेता को मिर्गी के दौरे दो साल की उम्र में ही पड़ने शुरू हो गये थे।
समय के साथ साथ श्वेता को दौरे इतने ज्यादा पड़ने लगे कि उसके लिये जिंदगी मुहाल हो गई। इससे उसका आत्मविश्वास डगमगाने लग गया और इसी शर्मिदगी के चलते श्वेता ने सामाजिक समाराहों में जाना बंद कर दिया और खुद को अकेला कर लिया।
श्वेता के चिकित्सक तीस साल से लगातार कभी डाक्टर तो कभी दवाइयां बदलते जा रहे थे कि शायद श्वेता को मिर्गी के दौरे पड़ने बंद हो जाये लेकिन कुछ भी कारगर नहीं हो पा रहा था। धीरे धीरे बेटी के साथ पूरे परिवार की आशा भी धूमिल होने लगी। तभी चिकित्सक ने डीप ब्रेन स्टिम्युलेशन की सलाह दी। आज उसी की वजह से श्वेता समाज की मुख्य धारा में लौट रही है।
फिलहाल श्वेता एजुकेशन में एमए कर रही है और उसका मानना है कि डीबीएस थेरेपी के बाद जिंदगी एकदम बदल गई है। इससे न सिर्फ उसका आत्मविश्वास बढ़ा है बल्कि अब वो अपने अधूरे सपनों को पूरा करना चाहती है।
डॉ.गुप्ता के मुताबिक आधे से ज्यादा मिर्गी के दौरों में कारण का पता नहीं चलता है और बाकी बचे मामलों में अनुवांशिक या अन्य हालत जैसे कि दिमाग में चोट, जन्म से पहले मस्तिष्क में क्षति, दिमाग में टयूमर और संक्रमण जैसे दिमागी बुखार, वायरल इंसेफलटिस और एड्स भी कारण हो सकता है।
कई बार मिर्गी के दौरे पड़ने से दुर्घटना होने का भी खतरा रहता है। चलते समय अचानक गिर जाने से चोट लगना, गाडी चलाते वक्त दुर्घटना होने की आंशका, गर्भधारण में समस्याएं और मानसिक समस्याएं हो सकती है।
मिर्गी का इलाज दवाइयां या सर्जरी से किया जा सकता है। अधिकतर लोग डाक्टर द्वारा परामर्श लेकर एंटी कन्वल्जन्ट ड्रग्स के सहारे अकडन और ऐंठन को कम करते है लेकिन इससे कई तरह के साइड इफेक्टस जैसे कि थकान, चक्कर आना, वजन बढ़ना, हड्डियों का घनत्व कम होना और बोलने में दिक्कत होना शामिल है।
जिन मरीजों को दवाइयों से राहत नहीं मिलती और उन्हें दौरे पड़ते रहते है या फिर जिन रोगियों को सर्जरी की सलाह नहीं दी जा सकती, उनके लिये डीप ब्रेन स्टमयुलाजेशन ( डीबीएस) थेरेपी काफी कारगर है। ये बहुत ही प्रभावी और सुरक्षित है। हांलाकि भारत में ये थेरेपी नई है लेकिन पश्चिमी देशों में इसकी सफलता का दर बहुत अच्छा है। डीबीएस में इल्कट्रोड दिमाग के एंटिरीयर थेलामस में प्रत्यारोपित किया जाता है। ये तरंगों को रोकता है जिससे हाथ या पैरों में ऐंठन या दौरा महसूस नहीं होता।
डीबीएस सर्जरी में डीबीएस सिस्टम को मस्तिष्क में प्रत्यरोपित किया जाता है। इसमें तीन मुख्य भाग शामिल हैः-
लीड एक पतली इंसुलेटिड तार जिसे दिमाग में छोटा सा छेद करने पर उसे दिमाग के उस हिस्से में रखा जाता है जहां मिर्गी के दौरे की गतिविधियां होती है।
एक्सटेंशन - लीड इंसुलेटिड तार है जो एक्सटेंशन से जुडी है जो सिर की त्वचा से होते हुये गर्दन के नीचे और छाती के ऊपर आती है।
न्यूरो-स्टेमुलेटर - एक्सटेंशन न्यूरो-स्टेमुलेटर से जुड़ा है, ये छोटा सीलबंद डिवाइस है जैसाकि कोर्डियो पेसमेकर में इस्तेमाल किया जाता है। ये शरीर की हंसली के पास त्वचा में लगाया जाता है। इसमें एक छोटी बैटरी होती है जिसे कंम्यूटर चिप द्वारा प्रोग्राम किया जाता है जो विद्युतीय तरंगों की सहायता से इसके लक्षणों को रोकने में मदद करता है। वैसे तो स्टेमुलेटर 3 से 5 साल तक चलता है लेकिन ये काफी हद तक रोगी की जरूरतों पर भी निर्भर करता है। इसको बदलने की तकनीक काफी सरल है।
इस सर्जरी को करने से पहले एमआरआई या सीटी स्कैन किया जाता है जिससे ये पता चल सके कि दिमाग के किस हिस्से में ये तरंगे उत्पन्न हो रही है। डीबीएस सिस्टम को प्रत्यारोपित करने के बाद न्यूरो-स्टेमुलेटर से विद्युतीय तरंगे एक्सटेंशन तार और लीड से दिमाग में प्रेषित की जाती है। ये तरंगे दिमाग के उस भाग को स्टेमुलेट करते है जो अकड़न या मिर्गी के दौरे के लिये जिम्मेदार होते है।
सर्जन न्यूरो स्टेमुलेटर को शुरू कर देते है, तरंगों को नियंत्रित करते है और उसकी निगरानी करते है। इसके अलावा रोगी को मेग्नेट या प्रोग्रामर दिया जाता है जिससे वो डाक्टर के परामर्श से नब्ज की दर को खुद ही नियंत्रित कर सकता है।
डा. गुप्ता के अनुसार, भारत में मिर्गी के इलाज की नई तकनीकों के बावजूद सालभर में 200 से ज्यादा सर्जरी नहीं होती है। जबकि सर्जरी कराने वाले रोगियों की संख्या बहुत ज्यादा है। इस कमी को पूरा करने के लिये लोगों के बीच जागरूकता लाना बहुत जरूरी है। उन्हें सुरक्षित और प्रभावी मेडिकल तकनीकों जैसे कि डीप ब्रेन स्टमयुलाजेशन ( डीबीएस) थेरेपी) की जानकारी देना जरूरी है।

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