कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इन दिनों अपनी सभाओं में चुनावी राजनीति से अलग हटकर जनता से अपने परिवार की निजी बातें साझा कर रहे हैं। हाल ही में राजस्थान के चुरू में तो वे यहां तक बोल गए कि बचपन में उन्हें पालक खाना पसंद नहीं था। पापा यानी राजीव गांधी उन्हें पालक खाने पर मजबूर करते थे तो दादी यानी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी चुपके से वो सब्जी अपनी थाली में डलवा लेती थीं।
ऐसी ही भावुक बातों के बीच उन्होंने संभवत: अपना अब तक का सबसे संगीन बयान देते हुए कहा कि ‘देश को बांटने वालों ने पहले मेरी दादी को मार दिया, फिर पापा को और अब शायद मुझे भी मार देंगे।’ राहुल के इन भाषणों को लेकर नई राजनैतिक बहस शुरू हो गई है। भाजपा का कहना है कि राहुल के पास कहने को कुछ नहीं है इसलिए वे भावुक बातें कर रहे हैं। भाजपा ने इसे ‘इमोशनल अत्याचार’ बताया है। जबकि कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि गांधी परिवार के पास देश के लिए शहादत देने का इतिहास है और यदि वे इसे जनता को बता रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं।
राहुल गांधी भावुक हो रहे हैं या वे इमोशनल अत्याचार कर रहे हैं इससे अलग हटकर यदि उनके भाषण पर गौर किया जाए तो सबसे गंभीर बात जो उन्होंने कही है वो ये कि देश को बांटने वाले शायद उन्हें भी मार देंगे। देश में इस समय सत्तारूढ़ पार्टी का सबसे ताकतवर व्यक्ति, जिसे जेड श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त है, यदि सार्वजनिक सभा में यह आशंका व्यक्त कर रहा है कि उसे मार दिया जाएगा तो यह बहुत चिंताजनक बात है।
निश्चित रूप से राहुल ने यह बात हंसी-मजाक में नहीं कही होगी। हो सकता है उनके पास ऐसी कोई सूचना हो या उन्हें इस तरह के संकेत सुरक्षा एजेंसियों की ओर से दिए गए हों। इस स्थिति में देश को जानने का पूरा हक है कि आखिर वो कौनसे आधार हैं, जिनके चलते राहुल ने इतनी गंभीर बात कही है। और यदि राहुल ने बातों-बातों में ऐसा कह दिया है तो यह मामला इसलिए गंभीर हो जाता है कि क्या राहुल अपनी जान को खतरा बताकर जनता से वोट मांग रहे हैं। दोनों ही लिहाज से राहुल के इस बयान की जांच और विश्लेषण जरूरी है।
राहुल गांधी के चुरू में दिए गए भाषण को ध्यान से सुनें तो उन्होंने भाजपा को 'गुस्से की राजनीति' का प्रतीक बताया। उन्होंने मुजफ्फरनगर दंगों का जिक्र करते हुए कहा कि भाजपा लोगों को बांटने और मरवाने में लगी है। इसलिए वे उसकी राजनीति का विरोध करते हैं। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने पहले अपनी दादी, फिर अपने पिता की हत्या का जिक्र करते हुए खुद को भी मार दिए जाने की बात कही। तो क्या राहुल को खतरा या आशंका है कि सांप्रदायिक ताकतें उन्हें खत्म कर सकती हैं। क्या राहुल का भाषण सहज रूप में एक युवा द्वारा दिल से दिया गया भाषण है या फिर उसके पीछे कोई संकेत छिपे हैं।
देश में 2014 का लोकसभा चुनाव कई मायनों में निर्णायक होना है। पहली बार खुले रूप से दो व्यक्तित्व आमने सामने हैं और उनमें सीधा मुकाबला है। ऐसे में दोनों के भाषणों पर भी पूरे देश और मीडिया की नजर है। लोकसभा चुनाव की राजनीति के शुरुआती दौर में नरेन्द्र मोदी ने विकास की बात की थी और गुजरात को एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया था। राहुल गांधी को भी नए विचारों के युवा के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है और इसी कारण यह मानकर चला जा रहा था कि आने वाले चुनाव में दोनों पार्टियों की ओर से विकास को ही प्रमुख मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा जाएगा। राहुल गांधी ने शुरुआती सभाओं में विकास की बात की भी थी, लेकिन अचानक उन्होंने अपनी शैली बदल दी है।
राहुल गांधी के भाषणों की शैली में आए इस बदलाव को दो रूपों में देखा जा सकता है। पहली बात तो यह कि राहुल गांधी भाषण कला में उतने निपुण नहीं हैं जितने नरेन्द्र मोदी हैं। मोदी के पास आरएसएस की ट्रेनिंग की विरासत है जहां बाकायदा भाषण देने की कला सिखाई जाती है। इसके अलावा मोदी के पास अपनी शैली या यूं कहें कि मैनेरिज्म है और वे तर्कों व तथ्यों को बहुत तीखे, चुटीले अंदाज में पेश करने में माहिर हैं। राहुल की अपेक्षा मोदी की हिन्दी बहुत अच्छी है और वे कहावतों, मुहावरों व शब्दों का सटीक चयन कर उसमें धाराप्रवाह बोल सकते हैं।
दूसरी तरफ राहुल के पास तर्क व तथ्य तो हो सकते हैं, लेकिन उनकी प्रस्तुति के अंदाज में वो प्रभाव नहीं है जो मोदी की प्रस्तुति में है। इसके अलावा राहुल गांधी हिंदी बोल जरूर लेते हैं लेकिन हिंदी पर उनकी वैसी पकड़ नहीं है जैसी मोदी की। राहुल का मूल सोच अंग्रेजी में है और कई बार उनके भाषण अनूदित लगते हैं। ऐसे में हो सकता है कि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने नई व्यूह रचना करते हुए यह तय किया हो कि बजाय तर्कों और तथ्यों में उलझने के भावनात्मक धरातल पर खेला जाए।
इस दृष्टि से देखें तो मोदी के पास भाषा, तर्क, प्रस्तुति सब कुछ है पर भावनाओं का खेल वे उस धरातल पर नहीं खेल सकते जिस धरातल पर राहुल खेल सकते हैं। यानी राहुल के रणनीतिकारों ने राहुल परिवार की शहादत को अपने ट्रंप कार्ड के रूप में फेंका है। जिस तरह कोई भी व्यक्ति किताब की बातों को प्रस्तुत करने में कमजोर हो पर वह अपने परिवार की बातों और घटनाओं को अच्छी तरह सुना सकता है उसी तरह राहुल भाषा और तर्कपूर्ण प्रभावी प्रस्तुति में भले ही कमजोर हों पर वे अपने परिवार की घटनाओं को अच्छी तरह बयां कर सकते हैं। ऐसे में उनका मासूम चेहरा उनका बखूबी साथ देता है।
संभवत: कांग्रेस ने राहुल की इसी भावनात्मक पृष्ठभूमि और मासूमियत को कवच बनाकर प्रस्तुत करने का फैसला किया है। इसीलिए वे विकास के नाम पर सड़क और पुल के बजाय गरीबी और भूख की बात कर रहे हैं। अपनी दादी, अपनी मां और पिता की बात कर रहे हैं। उनके बलिदान और त्याग को बता रहे हैं। कुल मिलाकर वे लोगों अपनी कहानी सुना रहे हैं। यानी मुकाबला मोदी की मास अपील और राहुल की इमोशनल अपील के बीच है।
राहुल गांधी के इस पैंतरे को पहली नजर में इमोशनल अत्याचार कहने या उन्हें भावनाओं में बह जाने वाला युवा बताने जैसी त्वरित प्रतिक्रिया देने के बजाय ठंडे दिमाग से देखने की जरूरत है। याद कीजिए राहुल ने जब राजनीति में दागियों को अलग-थलग करने के मुद्दे पर उनकी ही सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश को सार्वजनिक रूप से बकवास बताते हुए उसे फाड़कर फेंकने की बात कही थी तो शुरुआती दौर में उसे उनकी बचकाना हरकत बताते हुए माना जा रहा था कि उससे कांग्रेस को नुकसान होगा। लेकिन बाद में हुए घटनाक्रम ने बाजी को एक तरह से पलटते हुए कांग्रेस को यह मौका दे दिया कि वह उस घटना को अपने और राहुल के पक्ष में ले आई।
पहले राहुल की हरकत को लेकर उनकी हंसी उड़ाने वाले भाजपा के नेताओं को भी उस घटनाक्रम ने सोचने मजबूर कर दिया। अब जब राहुल ने एक बार फिर अपनी चाल बदली है तो देखना होगा कि इसका जनता पर क्या असर होता है और भाजपा, खासकर नरेन्द्र मोदी अपने चुनाव प्रचार अभियान में इसका मुकाबला करने के लिए क्या रणनीति अपनाते हैं। जाहिर है इंदिरा और राजीव की हत्या को लेकर आलोचना के स्तर पर कहने के लिए भाजपा के पास ज्यादा कुछ नहीं होगा। और यदि ऐसी कोई कोशिश हुई भी तो डर इस बात का भी है कि कहीं जनता उसे भावनात्मक रूप से गलत अर्थों में न ले ले। वैसे भी हमारे यहां चुनाव में तर्क और तथ्यों पर भावनाएं भारी पड़ती रही हैं।