नीचे धरा पर टूटता
जोड़ देता, पृथ्वी और आकाश को,
जो अचानक।
तड़ित, विस्मित देह, कंपित,
तोड़कर, काट,
फेंक देती जो विश्व को,
मुझसे, बिलकुल अलग-थलग,
अलहदा... और, मैं, रौंद देती हूं,
मेरी उंगलियों के बीच में,
मेरी वेणी के फूल।
मेरा व्याकुल मन चाहे,
आएं स्वजन, इस आषाढ़ी रात में,