प्रवासी कविता : क्या करें शिकवा...
काले घिरे से बादलों को,
हवा के तूफानों ने जुदा किया।
जो बरसने को थे तैयार उन्हें,
आंधी के थपेड़ों ने सुखा दिया।
छोटी-छोटी सी बरसाती बूंद जैसे,
छोटे-छोटे से अरमानों को हवा के तूफान,
जैसे इस संसार के लोगों ने कुचल दिया।
फिर वो कहने लगे जिंदा तो रखा है तुम्हें...,
तुम्हें, कहां हमने मार दिया बड़ी ही,
बेमुरव्वत अदा से धीरे से ये गेम समझा दिया
जब स्वार्थ थे उनको हमसे, उन्होंने हमें अपना बना लिया,
था दिल ये मासूम जो नकाबी चेहरे को सही समझ लिया।
उनकी जरूरत के मुताबिक हर पल लगाई कीमत हमारी,
हमारे स्नेह का ऐसा सिला हमें दिया।
जब-जब जिंदगी के मोड़ पर स्वार्थ के बदले,
झूठा प्यार पाया खुश हो गए हम और दिल बहला लिया।
इन लम्हों ने किया तब एक सवाल खुद से,
कि क्यूं हमने कभी किसी से ना शिकवा किया।
सोच लिया शायद इस दिल ने कि जो दिया ख़ुदा ने दिया,
हर सुख, हर दु:ख मान प्रसाद ईश्वर का सिर-आंखों पर चढ़ा लिया।
इस वजह से कि गमों को घोलकर पी गए जीवनभर यूं हम,
दुनिया ने देखा और मीरा बाई कहकर हमें इस दुनिया से बिदा किया।
अब सोचते हैं जाते-जाते भी कि आखिर जिंदगी ने हमें क्या दिया?
सहने का फल या दर्द ना बंटाने का सिला दिया।