संस्कारों वाली कहानी : एक कटोरी खीर

सुबह सवेरे मां नहा-धोकर पूजा-पाठ समाप्त कर रसोईघर में आई। रसोई में आते ही उन्होंने एक बड़ी सी हांड़ी में दूध उबलने के लिए रख दिया। जैसे ही दूध खौलने लगा तो दूध में भीगा चावल दरदरा पीसकर हांड़ी में डाल दिया। साथ में शक्कर भी मिला दी। 
 
आज घर में खीर बन रही थी। हांड़ी में उबलते खीर में कड़छी चलाती मां साक्षात् देवी अन्नपूर्णा लग रही थी। मां पर सचमुच देवी अन्नपूर्णा का आशीर्वाद था। वे पानी भी छोंक दे तो वो पानी अमृत सा लगता था। उनके हाथ से बने सादे दाल चावल में भी छप्पन भोग का स्वाद उतर कर आता था।

खीर तो उनकी ख़ासियत थी। उनके हाथ की खीर की घर परिवार में, आस पड़ोस में, दोस्तों रिश्तेदारों में खूब चाव से खाई जाती थी। खीर जब बन कर तैयार हो जाती तो मां मुट्ठी भर-भर कर कतरे बादाम खीर में डालती। फिर बड़े प्रेम से उस मे दूध में घुला केसर मिलाती। सुर्ख गुलाब की कुछ पंखुडियों से सजकर खीर जब सामने आती तो खाने से पहले ही खानेवाले का दिल खुश हो जाता। मां के हाथों से बनी खीर खा कर सारा घर परिवार संतुष्ट हो जाता।
 
मां के तीन बेटे थे, उनके लिए तो दुनिया के सारे पकवान एक तरफ और मां के हाथों की बनी खीर एक तरफ। दोपहर के खाने में कटोरीयां भर-भर कर पी जाते थे तीनों पर उनका मन नहीं भरता था। सवेरे जो खीर बड़े हांडी भर कर बनी होती थी, शाम होते होते एक छोटेसे कटोरी में सिमट जाती थी फिर घर में शुरू होता था तीसरा महायुद्ध। बची हुई खीर की कटोरी कौन खाएगा, इस पर तीनों भाई लड़ने लगते।
 
मां अपना माथा पकड़ लेती 'हे भगवान्, ये बच्चे है या बकासुर राक्षस? भगोने भर खीर तो चटक गए तीनों अब बची हुई चम्मच भर खीर के लिए भी लड़ मरने को तैयार'। बड़ा लड़का आसीत कहता- मै बड़ा हूं तो खीर मुझे मिलनी चाहिए, मंझला अमन बोलता ये कैसा बेकार लॉजिक है भैया, खीर तो मै ही खाऊंगा। छोटा अन्नू दोनों बिल्लों को लड़ते देख चुपचाप खीर की कटोरी लेकर भागता, बोलता 'खीर तो मुझे ही मिलेगी आखिर मां लाडला बेटा भी तो मैं ही हूं'।

उस छोटे बंदर को भागते देख दोनों बड़े उसके पीछे दौड़ जाते। बच्चों की धमाचौकड़ी से सारा घर हंसी-ठहाकों से गूंज उठता। तीनों बेटों की प्यारी शरारतें देख बाबूजी का होटों पर मुस्कुराहट खिलती और मां की आंखों की चमक दुगनी से चौगुनी हो जाती।
 
समय बीतता रहा। तीनो बेटों की शादी हो गई। बहुएं पायल खनकाती घर में दाखिल हुई तो पीछे-पीछे पोते, पोतियों की किलकारियां भी कान में अमृत घोलने लगी। मां और बाबूजी का दिल इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर हो गया।
 
पोते-पोतियां जैसे बड़े होने लगे तो उनकी बेहतर शिक्षा के लिए तीनो बेटों ने शहर का रुख कर लिया। अगली पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए ये कदम जरूरी था ये मां और बाबूजी भी अच्छी तरह से जानते थे, पर क्या करें? दिल है कि मानता नहीं। बहु बेटों की कमी दोनों को खूब खलती।

मां का मन तो अब छोटी-छोटी बातों पर भी घबराता। न जाने क्या क्या सोचने लगता? 'सुनो जी, बुढ़ापे में क्या बच्चे हमें पूछेंगे? अकेला तो नही छोड़ देंगे? राम, लक्ष्मण, भरत जैसे हमारे बेटे शहर की आबोहवा से बदल तो न जाएंगे? एक कटोरी खीर पर लड़ते थे तीनों, हमारे जाने के बाद क्या हमारे इस पुश्तैनी घर के लिए भी लड़ पड़ेंगे?' 
 
बाबूजी मंद मंद मुस्कुराकर बोलते 'अपने संस्कारों पर जरा तो विश्वास कीजिए विमला जी। आम के बीज बोए है हमने, तो आएंगे भी आम ही'
 
बाबूजी के गुजर जाने के बाद तीनों बेटे जिद करने लगे की 'मां अब अकेले नहीं रहोगे आप। चलिए हमारे साथ शहर' पर मां का दिल और उनके पाँव अपने घर की दहलीज़ लांघने के लिए तैयार नहीं थे। चार कंधे मेरी डोली उठाकर लाए थे मुझे इस घर में, अब इस घर से जाउंगी तो चार कंधो पर ही'' मां की इस जिद के आगे बेटों की एक न चली।
 
दिन महीने साल गुजरते गए। अब मां थक चली थी। यूं अकेले रहना उनके लिए मुश्किल होने लगा। उनका मन करने लगा कि सब कुछ छोड़कर वे बच्चों के पास शहर चली जाए और अपने जीवन की शाम अपने परिवार जनों के साथ सुख से गुजारे। पर अब बच्चों से ये बात करने में उन्हें हिचकिचहाट हो रही थी। कैसे कहूं कि 'बेटा ले चलो अपनी बूढी मां को अपने घर' क्या वो मानेंगे?

उनके अपने परिवारों में अपनी मां को थोड़ीसी जगह दे पाएंगे। इतने साल स्वतंत्रता से रहने आदि हो चुके होंगे अब घर में मां का अस्तित्व उन्हें बोझ तो नही लगेगा?' हज़ारों सवाल मां के मन में घूमने लग गए। बहुत सोच-विचार करने के बाद उन्होंने एक निर्णय लिया। एक महीने के बाद मां का जन्मदिन आ रहा था तो उन्होंने तीनों बेटों को पूरे परिवार सहित घर आने का न्योता दे दिया।
 
मां का बर्थडे मनाने सारा घर-परिवार एकत्रित हुआ। सुबह सवेरे मां ने हांडी में दूध उबलने रख दिया। बेटे घर पर हो और मां खीर न बनाए ऐसा हो सकता है भला? दोपहर के खाने में मां अपने हाथो से सबको खीर परोस रही थी। पेट के साथ आत्मा भी संतुष्ट हो जाए ऐसा जादू था मां की खीर में। तीनो बेटों के तो खुशियों का ठिकाना ही नहीं था। कटोरियां भर-भर के खीर पी रहे थे। पेट भर गया था पर दिल नहीं।
 
शाम होते ही मां ने सबको बैठक में बुलवाया। वकील साहब भी थे वहां। मां बोल रही थी 'तुम्हारे बाबूजी, ये घर और थोड़ी जमीन मेरे जिम्मे कर वैकुंठ सिधार गए थे। इतने सालों तक मैंने सब कुछ सम्हाल रखा था पर अब मुझसे और नहीं हो पाएगा। इसलिए इस घर को बेचने का मैंने फैसला किया है। 

घर के बिकने के बाद मैं तुम लोगों के ही शहर किसी अच्छे से सीनियर सिटिज़न हाउसिंग में शिफ्ट कर जाउंगी। जो पैसे आएंगे उन पैसों से मेरा गुजारा बड़े आराम से हो जाएगा। रही बात जमीन की, जो भी थोड़ी-बहुत है वो तुम तीनों भाइयों को दे रही हूँ। 
 
मैंने अपनी विल बनवाई है। वकील साहब उसे पढ़कर सुनाएंगे। तीनों भाइयों में मैंने समान बंटवारा किया है। मेरे हिसाब से तो मैंने उचित बंटवारा किया है। न किसी को अधिक न किसी को कम। पर फिर भी अगर तुम लोगों में से किसी को अपने हिस्से को लेकर कोई आपत्ति है तो अभी बोलें क्योंकि मैं नहीं चाहती की मेरे जाने के बाद मेरे बच्चों में जायदाद को लेकर कोई क्लेश हो।'

मां ने एक ही सांस में अपनी सारी बात कह दी। फिर अगले दो घंटे तक वकील साब विल समझाते रहे, पेपर्स पर हस्ताक्षर होते रहे रहे। तीनों भाइयों ने एक शब्द भी न बोल कर जहां जरूरत हो वहां दस्तख़त कर दी। जमीन का बंटवारा केवल दो घंटों में हो गया। न कोई सवाल न कोई बहस, न कोई मनमुटाव।
 
वकील साहब के जाने के बाद तीनों भाइयों ने एक-दूसरे के तरफ देखा और फिर बड़ा बेटा आसीत बोलने लगा 'मां जमीन-जायदाद का तो फैसला हो गया, आपका फैसला सर आंखों पर। लेकिन आपका सीनियर होम में रहने का फैसला हमें मंजूर नहीं क्यों अमन, क्यों अन्नू? ठीक बोल रहा हूं न मैं? ''
 
'ऑफकोर्स’ मंझला अमन बोला।
 
मां आपका सीनियर सिटीजन होम में रहने का तो सवाल ही नहीं उठता। तीन-तीन बेटों के होते हुए आप कही और रहेगी और हम आपको रहने देंगे, ये अपने सोच भी कैसे लिया मां?
 
'आप को क्या लगा मां? जमीन के बंटवारे को लेकर हम भाइयों में क्लेश होगा?' छोटा अन्नू बोल उठा। 'हम तीनों भाई पक्के बिज़नेसमन है, मां नफा-नुकसान का गणित हम खूब जानते है। अपना कीमती समय और ऊर्जा कहां खर्च करनी है ये हमें अच्छी तरह से पता है। अरे घर, जमीन जैसी छोटी बातों पर लड़ाई करें, हम इतने मूर्ख नहीं। पर हां मां किसके के साथ रहेगी, इस बात पर तो लड़ाई हो कर रहेगी। पता है क्यों? क्योंकि जिसके साथ मां रहेगी उसे रोज मां के हाथ की खीर खाने मिलेगी। 
 
'अब ये हुई न लड़-मरने वाली बात?' अन्नू की शरारत भरी मुस्कान देख मां के होठों पर भी मुस्कुराहट आ गई।
 
बड़ा बेटा बोला 'काहे की लड़ाई अन्नू? मैं बड़ा हूं, तो जाहिर है मां मेरे साथ रहेगी'' तो मंझला तुनक कर बोला- 'कैसा बेकार लॉजिक है आपका भैय्या? मैं कुछ नहीं जनता। मैंने कह दिया सो कह दिया मां मेरे साथ ही रहेगी बस' छोटा बोला- 'आप बेकार में ही लड़ रहे हो दोनों। मां का लाडला तो मैं ही हूं ना तो, मां रहेगी भी मेरे ही साथ'।
 
घर में तीसरा महायुद्ध फिर छिड़ चुका था। जायदाद पाने के लिए नहीं मां का साथ पाने के लिए उनके बेटे आपस में लड़ रहे थे। तभी उनकी नज़र सामने बची हुई खीर के कटोरी पर गई। बाप रे बाप, फिर क्या था? पचास-पचपन सालों के मां लाडले छोटे बच्चों की तरह खीर की और लपक पड़े। 'लो जी, उम्र पचपन की दिल बचपन का' बड़ी बहु बोल पड़ी, तो घर में हंसी के फवारें उड़ने लगे। पोते-पोतियां, बहु बेटों की खिलखिलाती हंसी से सारी हवेली गूंज उठी।
 
मां की आंखें छलछला गई। उनके कानों में बाबूजी के शब्द गूंज रहे थे 'आम के बीज बोए है हमने तो आम ही मिलेंगे कहा था न मैंने विमला जी,' मां को लग रहा था जैसे उनके पिछले जन्मों के पुण्य का फल उनके इस प्यारे से परिवार के रूप में साकार हो चुका था। बाहर आसमान में हलके-हलके रात उतर रही थी। चंद्रमा की शीतल चांदनी में हवेली सराबोर हो रही थी और अंदर मां की रसोई में रिश्तों की मिठास खीर की कटोरी में उतर कर अमृत घोल रही थी।

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