कविता : मेरे पड़ाव में राहत पाते


भीतर मेरे कई मुखौटे,
कई पहरे परछाइयां,
कई तहों में छिपे सिमटे,
बंद आंखों में भीतर गुपचुप!
 
एक पर्दा लटके बीच में,
बाहर का शोर भीतर उमड़ा,
मेरी चुप नज़रें खामोशी खड़ी,
मेरी ख़ुद से पहचान कहां!
 
लब फड़फड़ाते दबी ज़बान,
कानों में खग बोलें टांय-टांय,
गुजरे वक्त गुजरे जन-जन,
मैं इंतज़ार में कब कोई आएगा!
 
भोर में कर स्वागत सूरज का,
चंदा तारों से बतियाती हूं,
मन की बोली समझें मेरी,
मूक सबला जोषिता मैं हूं!
 
मैं नारी रिश्तों को बुनती,
उलझ जाती उन्हीं डोरों में,
घर की बगिया महकाती,
कांटों की चुभन सह जाती!
 
आज भोर रश्मियों ने जगाया,
बहे नीर सतरंगी है नज़ारा,
बेबसी कैसी उलझन कहां,
भ्रम से जगी खोली मन की आंखें!
 
जननी नारी जग तुझसे है सारा,
भरो रोशनी खिंच लो भीतर का पर्दा,
तेरे और भीतर के बीच में पहचानो,
सबसे सुंदर तेरा नारी मुखड़ा!
 
बंजारे हैं रिश्ते-नाते,
बंजारा जन जन जग में,
मेरे पड़ाव में राहत पाते,
युगों युगों जहां खड़ी मैं नारी!

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