ग्वालियर में जन्म। जीवाजी विवि से फाइन आर्ट में एम.ए.। कविताएँ लिखने और पेंटिंग करने का दुर्लभ संयोग आपको जिंदगी के नए मायने दिखाता है। तमाम पत्रिकाओं में कहानी और कविताएँ प्रकाशित।
पतझड़ आया ले गया पत्ते पीपल रह गया हाथ फैलाए सूना तन था, सूना था मन दिल का दर्द किसे बतलाए
पतझड़ ऐसा क्यों कहर किया पत्तों के संग पंछी भी गए सब भूल गए सारे सुख को सूखे नीड़ों को छोड़ गए
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थी जगह वही जहाँ पथिक कई थोड़ा सुकून पा जाते थे सूरज की गर्मी से छिपकर फिर अपने घर को जाते थे
पत्तों के आँचल में छिपकर जहाँ ढेरों पक्षी गाते थे तिनकों का महल बनाते थे और वहीं बस जाते थे
भोर हुई तब उड़ जाना साँझ हुई वापस आना कोई मजहब, कोई जात नहीं दिनभर मस्ती, दिनभर बातें
कोई शाख हो, कोई डाल हो कोई रोक नहीं, कोई टोक नहीं छौना-बिछौना करतब-कलरव गुलजार चमन की सब रातें
सारी खुशियाँ फिर स्वप्न हुईं खामोशी के बादल छाए तन्हाई में डूबा पीपल आँखों से मोती टपकाए
पतझड़ आकर सब खत्म किया सूना मन का हर कोना था हरी-भरी इस वसुंधरा पर पत्तों का बिछा बिछौना था
कुछ दिन तो उदास हुआ पीपल फिर चाँद ने उसको समझाया है इस दुनिया की रीत यही जब कुछ खोया तब कुछ पाया
मैं भी तो हर दिन घुटता हूँ मुझ पर भी अमावस छाती है मैं थमता नहीं, वक्त रुकता नहीं वापस पूनम आ जाती है।
सूरज भी नित दिन आता था दो घड़ी को थम सा जाता था करके सुख-दु:ख की दो बातें शाखों में रंग भर जाता था
सोने-चाँदी के रंगों सी कुछ कटी पतंगें भटक गईं स्नेह डोर के बंधन बंध आकर पीपल पर अटक गईं
फिर खुशियाँ आईं पीपल पर उसमें भी नव-संचार हुआ ताँबई-सुनहले पत्तों से पीपल का नव-श्रंगार हुआ
विश्वास डोर बँधी तन में चरणों में आशा दीप जले वसंतराज ने दी तब दस्तक पंछी लौटे फिर सांझ ढले
जब सब बदला ऋत भी बदली पतझड़ ने भी अलविदा कहा पीपल शरमाया बोला हँसकर लेकिन मैंने बहुत सहा।