अप्रैल 1933 में दिल्ली में जन्म। प्राथमिक शिक्षा उर्दू में। दिल्ली विवि से बीए, पंजाब विवि से बीटी और एमए। भारत के अलावा लंदन और नाइजीरिया में अध्यापन किया। वर्तमान में लंदन में निवासरत।
लखनऊ में खटीक समुदाय की बस्ती से दूर जंगल में रामू की माँ चिल्ला-चिल्लाकर दहाड़ रही थी, मेरा बेटा लौटा दो! मेरे रामू को लौटा दो! रामू के बापू और साथियों ने जंगल का चप्पा-चप्पा छान डाला, बालक का कोई पता नहीं चला। रामू की माँ का हाल बेहाल हो रहा था। अपनी मैली-सी धोती के पल्ले से आँखों से गिरते आँसुओं को पोंछा।
थोड़ी देर बाद सब सांत्वना देकर अपने-अपने घर लौट गए। रात गहराने लगी थी। बाहर जरा-सा भी खड़का सुनाई देता तो रामू की माँ दौड़कर दरवाजे पर कहती- मेरा रामू आ गया! बस मृगतृष्णा का छलावा दोनों के साथ खेल खेलता रहता। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए।
रामू का बापू सारे दिन काम से थका-हारा खटिया में लेट गया। आँखें बंद की तो उस भयानक रात की घटना किसी हॉरर फिल्म की तरह आँखों की पलकों के पीछे चल रही थी।
उमंगों से भरे सन् 1947 ने इतिहास में एक नया अध्याय लिख दिया था। इंसान का वीभत्स रूप भी देखा था। इंसान के मस्तिष्क, हृदय और आत्मा के बिगड़ते हुए संतुलन को भी देखा था। धर्म के नाम पर सीमा के दोनों ओर हर-हर महादेव और अल्ला-हू-अकबर के नारों की गूँज में बालकों, स्त्रियों यहाँ तक कि बूढ़ों तक की निर्दयता से बलि दी जा रही थी। उसी वर्ष तो हमारे रामू ने इस लहू से भरी लाल रंग की धरती पर जन्म लिया था।
लखनऊ में खटीक समुदाय की बस्ती से दूर जंगल में रामू की माँ चिल्ला-चिल्लाकर दहाड़ रही थी, मेरा बेटा लौटा दो! मेरे रामू को लौटा दो! रामू के बापू और साथियों ने जंगल का चप्पा-चप्पा छान डाला, बालक का कोई पता नहीं चला। रामू की माँ का हाल बेहाल हो रहा था।
गरीबी की चादर ओढ़े इकलौते रामू के साथ सुख-दु:ख के मिले-जुले जीवन के दिन बीत रहे थे। रामू के भविष्य के लिए न जाने कितने मनसूबे बनाते थे। भौंरिया तो काम के समय भी रामू को सीने से चिपकाए रहती थी। रात को अपनी गोद में ही सीने से लगाकर सोती थी। यही झुग्गी हमारे महल से कम नहीं लगती थी जब आँगन में एक बरस के नन्हे रामू की किलकारी में जीवन के सारे दु:ख समा जाते।
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एक अँधेरी रात में हवा ने आँधी का रूप धारण कर लिया था। इस आँधी और किवाड़ में हार-जीत की बाज़ी लगी हुई थी। यूँ तो ऐसी तेज हवाओं के हम आदी हो चुके थे। भौंरिया रामू को गोद में चिपकाए हुए सो गई थी। सारे दिन के जिस्म-तोड़ काम ने शरीर को इतना थका दिया था कि किवाड़ की खड़खड़ाहट और तेज हवा की साँय-साँय भी हमारी नींद को उखाड़ ना सकी।
अचानक से किवाड़ खुले और एक ही झपट्टे में एक खूँखार भेडि़या रामू को गोद से छीनकर जंगल की ओर भाग गया। ये सब इतनी फुर्ती से हुआ था कि हम दोनों हड़बड़ाकर खड़े तक भी ना हो पाए थे। हम चीखने-चिल्लाने लगे, दौड़कर भेडि़ए के पीछे भागे, शोर सुनकर बस्ती के लोग अपनी लालटेन ले-लेकर साथ हो लिए, पर भेडि़या रामू को लेकर दूर बीहड़ जंगल में न जाने कहाँ लापता हो गया था।
भौंरिया तो बेटे के वियोग में पागल-सी हो गई थी। हम दोनों रोज़ दूर-दूर तक इस जंगल की काँटों भरी झाडि़यों को हटा-हटाकर ढूँढते रहते, हाथ काँटों से लहूलुहान हो जाते थे। जितना प्रयत्न करते, सफलता उतनी ही दूर हो जाती। भौंरिया के धैर्य का बाँध टूट गया। पागलों की तरह जंगल में इधर-उधर भाग-भागकर दहाड़कर चिल्लाती-
'अरे भेडि़ए, मेरे लाल को वापस दे दे। तुझे मानस का मांस ही चाहिए ना? ले मैं सामने खड़ी हूँ, मेरे अंग-अंग को नोचकर खा जा पर मेरे रामू को लौटा दे!' साथ में आए मुखिया ने कहा, रामू की माँ भेडि़ए और मानव का तो पुराना बैर है, रामू तो भेडि़ए का कभी का आहार बन चुका होगा।
भौंरिया फूट-फूटकर रो पड़ी। इस घटना को 6 वर्ष बीत गए। लोग रामू को भूल से गए। रामू के माँ और बापू दिल पर पत्थर रखकर रोज की दिनचर्या को सामान्य बनाने का प्रयत्न करते रहते। दोनों काम से हारे-थके शाम को झुग्गी के बाहर बैठे हुए थे। रामू के बापू ने बीड़ी सुलगाई ही थी कि सामने वाली बुढि़या लाठी टेकती हुई मुस्कुराकर दोनों के सामने बैठ गई।
अरे, दोनों के लिए बड़ी खुशखबरी लेकर आई हूँ। दुनिया चाहे ना माने पर मेरा दिल तो यही गवाही देवे है कि वह रामू ही है। दोनों सकते में आ गए। कुछ क्षणों तक तो बुढि़या का मुँह ही तकते रहे, कुछ समझ नहीं आ रहा था। रामू की माँ एकदम तेजी से कहने लगी, ताई पहेलियाँ मत बुझा, मेरा हिया फटा जा रहा है, साफ-साफ बता कहाँ है वो?
'अरी मैं ठीक से बैठ तो जाऊँ। रामू के बापू, जरा एक बीड़ी तो सुलगाइयो।' बीड़ी का सुट्टा लगाकर बुढि़या ने कहना शुरू किया, तू तो जाने ही है कि तेरा ताऊ अखबार बाँच लेवे है। बता रहे थे कि छापे में लिखा था कि कुछ वकत हुआ, बलरामपुर के अस्पताल में एक बच्चा भरती हुआ है जिसकी चाल-ढाल, आदतें, हाव-भाव ही नहीं हाथ-पैर तक भी भेडि़ए की तरह हैं।
दोनों सबेरे ही बलरामपुर के अस्पताल में पहुँच गए। एक नर्स से बात हुई, अपनी दारुण कथा सुनाई। नर्स उनके हाव-भाव को आँकने की कोशिश कर रही थी। दोनों रो रहे थे। दोनों को वहीं बैठाकर, अंदर जाकर डॉक्टर को बताया कि एक दम्पति इस बालक के माता-पिता होने का दावा कर रहे हैं। नर्स ने यह भी कहा कि हो सकता है कि यह दोनों एक मनघड़ंत कहानी बनाकर अखबार वालों से इस कहानी को भुनाने की कोशिश कर रहे हों।
डॉक्टर ने दोनों को बुलाकर सीधा प्रश्न किया, तुम किस आधार पर कहते हो कि यह तुम्हारा ही बेटा है? भौंरिया भावों के बहाव में रोती हुई कहने लगी, डॉक्टरजी, मेरा दिल कहता है कि वह मेरा रामू ही है। डॉक्टर कुछ पूछना चाह ही रहा था कि रामू के बापू ने कहा, मालिक! रामू के माथे पर जनम का निशान है और उसकी दाईं जाँघ पर जनम का नीला निशान भी है। डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा, जाओ नर्स के साथ जाकर अपने रामू से मिल लो पर उससे सतर्क रहना।
देखते ही भौंरिया की ममता उमड़ पड़ी। बालक को गले से लगा लिया। नर्स विस्मित हो गई कि वही रामू जिसको पकड़ने के लिए एक युद्ध-सा करना पड़ता था, चुपचाप इस औरत के गले लगा हुआ था। रामू का बापू धोती के पल्ले से खुशी के आँसू पोंछ रहा था।
जब गौर से देखा तो दोनों का हृदय द्रवित हो गया। घुटनों और हाथों में गड्ढे पड़े हुए थे। गर्दन के पीछे दाँतों के निशान थे। बोलने के नाम पर केवल भेडि़यों की तरह हुवा-हुवा करता। साथ ही रखे हुए कटोरे में मुँह डालकर जानवरों की तरह ही पीता था।
नर्स को दोनों ने छ: वर्ष पहले घटी घटना विस्तार से सुनाई। नर्स का दिल भी पिघल-सा गया। नर्स ने बताया, 1954 के इसी साल थोड़े समय की बात है, इस बालक को लखनऊ के स्टेशन के थर्ड क्लास वेटिंग रूम में देखा गया था। लोग इससे डरते थे। बड़ी कठिनाई से इसे पकड़कर 17 जनवरी को यहाँ लाया गया था।
दोनों की उत्सुकता बढ़ रही थी वह कैसा लगता था उस वक्त?
नर्स जारी रही, वह मानव की संगत पसंद नहीं करता था। हाँ, चिडि़याघर में ले जाते तो भेडि़यों को देखकर उत्तेजित हो जाता था। खाने की वस्तुओं को टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। हड्डियों को घंटों तक चबाता रहता था। इसीलिए डॉक्टर कहते हैं कि लगता है इसे भेडि़यों ने पाला था। कोई भी नहीं कह सकता था कि वह किसी भी रूप में मानवीय है। सिर पर गुँथे हुए बाल जटाएँ बन चुके थे, चारों हाथ-पैरों से जानवरों की तरह ही चलता था। ज्यों ही कपड़े पहनाते तो फाड़ डालता। रात को भेडि़यों की तरह हुवाने की आवाज करता। हँसना तो जानता ही न था। हाँ, रात के समय उसकी आँखें चमकती थीं। मांस को दूर से ही सूँघकर पहचान लेता था।
जब वह आया था, कच्चा मांस और फल खाता था। अब यहाँ दूसरे रोगियों को देख-देखकर पकाई हुई सब्जियाँ और रोटी भी खाने लगा है। बिजली के इलाज से इसे लाभ हुआ है। पहले हाथ-पैरों को फैलाता तक नहीं था पर अब पहले से अच्छा है।
दोनों सुनकर आँसुओं को थाम ना सके।
नर्स ने कहा, उसका पूरा हाल ना ही सुनो तो अच्छा होगा। इसे तुम घर ले जाकर संभाल नहीं पाओगे। यहाँ देखभाल, दवा, इलाज की उचित व्यवस्था है। बस आकर जब भी चाहो, देख जाया करो।
दोनों इससे सहमत थे।
रामू मानवीय गुणों को पूरी तरह स्वीकार ना कर पाया। माँ-बाप वर्षों तक नियमपूर्वक अस्पताल में जाकर अपने ममत्व को सींचते रहे। रामू की हालत बिगड़ने लगी। दवा और इलाज का असर खत्म हो गया। 20 अप्रैल 1968 की रात रामू की अंतिम रात बन गई। कुछ मानवीय और कुछ पशु-पालित भेडि़यों के गुणों का समन्वित रूप साथ लेकर रामू ने आँखें हमेशा के लिए बंद कर ली।
बेटे की चिता से अस्थियाँ इकट्ठी की, भीगी आँखों से राख के पात्र को सीने से लगाया। जाकर उसी बीहड़ जंगल की हवा में अस्थियाँ विसर्जित करते हुए कहा, ऐ भेडि़यों, हम तुम्हारे ऋणी हैं। हमारे रामू को तुम्हीं ने तो पाला था!