एक यात्रा की बात है। कुछ वृद्ध स्त्री-पुरुष तीर्थ जा रहे थे। एक संन्यासी भी उनके साथ थे। मैं उनकी बात सुन रहा था। संन्यासी उन्हें समझा रहे थे, 'मनुष्य अंत समय में जैसे विचार करता है, वैसी ही उसकी गति होती है। जिसने अंत संभाल लिया, उसने सब संभाल लिया। मृत्यु के क्षण में परमात्मा का स्मरण होना चाहिए। ऐसे पापी हुए हैं, जिन्होंने भूल से अंत समय में परमात्मा का नाम ले लिया था और आज वे मोक्ष का आनंद लूट रहे हैं।'
संन्यासी की बात अपेक्षित प्रभाव पैदा कर रही थी। वे वृद्धजन अपने अंत समय में तीर्थ जा रहे थे और मनचाही बात सुन उनके हृदय फूले नहीं समाते थे। सच ही सवाल जीवन का नहीं, मृत्यु का ही है और जीवन-भर के पापों से छूटने को भूल से ही सही, बस परमात्मा का नाम लेना ही पर्याप्त है। फिर वे भूल से नहीं जान-बूझकर तीर्थ जा रहे थे।
मैं उनके सामने ही बैठा था। संन्यासी की बात सुनकर हँसने लगा तो संन्यासी ने सक्रोध पूछा, 'क्या आप धर्म पर विश्वास नहीं करते हैं?'
मैंने कहा, 'धर्म कहाँ है? अधर्म के सिक्के ही धर्म बनकर चल रहे हैं। खोटे सिक्के ही विश्वास माँगते हैं, असली सिक्के तो आँख चाहते हैं। विश्वास की उन्हें आवश्यकता ही नहीं। विवेक जहाँ अनुकूल नहीं है, वहीं विश्वास माँगा जाता है। विवेक की हत्या ही तो विश्वास है। लेकिन न तो अंधे मानने को राजी होते हैं कि अंधे हैं और न विश्वासी राजी होते हैं। अंधों ने और अंधों के शोषकों ने मिलकर जो षड्यंत्र किया है, उसने करीब-करीब धर्म की जड़ काट डाली है। धर्म की साख है और अधर्म का व्यापार है।
यह जो आप इन वृद्धों को समझा रहे हैं, क्या उस पर कभी विचार किया है? जीवन कैसा ही हो, बस अंत समय में अच्छे विचार होने चाहिए? क्या इससे भी अधिक बेईमानी की कोई बात हो सकती है। और क्या यह संभव है कि बीज नीम के, वृक्ष नीम का और फल आम के लगा रहे हैं?
जीवन जैसा है, उसका निचोड़ ही तो मृत्यु के समय चेतना के समक्ष हो सकता है। मृत्यु क्या है? क्या वह जीवन की ही परिपूर्णता नहीं है? वह जीवन के विरोध में कैसे हो सकती है? वह तो उसका ही विकास है। वह तो जीवन का ही फल है। ये कल्पनाएँ काम नहीं देंगी कि पापी अजामिल मरते समय अपने लड़के नारायण को बुला रहा था और इसलिए भूल से भगवान का नाम उच्चारित हो जाने से सब पापों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो गया था।
मनुष्य का पापी मन क्या-क्या अविष्कार नहीं कर लेता है? और इन भयभीत लोगों का शोषण करने वाले व्यक्ति तो सदा ही मौजूद हैं। फिर भगवान का क्या कोई नाम है? भगवान की स्मृति तो एक भावदशा है। अहंकार-शून्यता की भावदशा ही परमात्मा की स्मृति है। जीवन भर अहंकार की धूल को जो स्वयं से झाड़ता है, वही अंतत: अहं-शून्यता के निर्मल दर्पण को उपलब्ध कर पाता है। यह भूल से किसी नाम के उच्चारण से तो हो नहीं सकता।
यदि कोई किसी नाम को भगवान मानकर जीवन भर धोखा खाता रहे तो भी उसकी चेतना भगवत-चैतन्य से भरने की बजाय और जड़ता से ही भर जाएगी। किसी भी शब्द की पुनरुक्ति-मात्र, चेतना को जगाती नहीं, और सुलाती है। फिर अजामिल पता नहीं अपने नारायण को किसलिए बुला रहा था। बहुत संभव तो यही है कि अंत समय को निकट जानकर अपने जीवन की कोई अधूरी योजना उसे समझा जाना चाहता हो। अंतिम क्षणों में स्वयं के जीवन का केंद्रीय तत्व ही चेतना के समक्ष आता है और आ सकता है।'
फिर एक घटना भी मैंने उनसे कही। एक वृद्ध दुकानदार मृत्युशय्या पर पड़ा था। उसकी शय्या के चारों ओर उसके परिवार के शोकग्रस्त व्यक्ति जमा थे। उस वृद्ध ने अचानक आँखें खोलीं और बहुत विकल होकर पूछा, 'क्या मेरी पत्नी यहाँ है?'
उसकी पत्नी ने कहा, 'हाँ मैं यहाँ हूँ।' 'और मेरे बड़ा लड़का?' 'वह भी है।' 'और बाकी पाँचों लड़के?' 'वे भी हैं।' 'और चारों लड़कियाँ?' 'सभी यहीं हैं। तुम चिंता न करो और आराम से लेट जाओ,' पत्नी ने कहा। मरणासन्न रोगी ने बैठने की कोशिश करते हुए कहा, 'फिर दुकान पर कौन बैठा है?'
साभार : मिट्टी के दीये सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन