नहीं! क्योंकि जो प्रेम को उपलब्ध होता है, वह भय से मुक्त हो जाता है।
एक युवक अपनी नववधु के साथ समुद्र-यात्रा पर था। सूर्यास्त हुआ, रात्रि का घना अंधकार छा गया और फिर एकाएक जोरों का तूफान उठा। यात्री भय से व्याकुल हो उठे। प्राण संकट में थे और जहाज अब डूबा, तब डूबा होने लगा। किंतु वह युवक जरा भी नहीं घबड़ाया।
उसकी पत्नी ने आकुलता से पूछा, 'तुम निश्चिंत क्यों बैठे हो? देखते नहीं कि जीवन बचने की संभावना क्षीण होती जा रही है! 'उस युवक ने अपनी म्यान से तलवार निकाली और पत्नी की गर्दन पर रखकर कहा, 'क्या तुम्हें डर लगता है?'
वह युवती हँसने लगी और बोली, 'तुमने यह कैसा ढोंग रचा? तुम्हारे हाथ में तलवार हो, तो भय कैसा!' वह युवक बोला, 'परमात्मा के होने की जब से मुझे गंध मिली है, तब से ऐसा ही भाव मेरा उसके प्रति भी है, तो भय रह ही नहीं जाता है।'
प्रेम अभय है। अप्रेम भय है। जिसे भय से ऊपर उठना हो, उसे समस्त के प्रति प्रेम से भर जाना होगा। चेतना के इस द्वार से प्रेम भीतर आता है, तो उस द्वार से भय बाहर हो जाता है।
साभार : पथ के प्रदीप/सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन