श्रीकृष्ण जन्म के ग्यारहवें दिन माता यशोदा ने उनका जलवा पूजन किया था। इसी दिन को 'डोल ग्यारस' के रूप में मनाया जाता है। जलवा पूजन के बाद ही संस्कारों की शुरुआत होती है। जलवा पूजन को कुआं पूजन भी कहा जाता है। इस ग्यारस को परिवर्तिनी एकादशी, जयझूलनी एकादशी, वामन एकादशी आदि के नाम से भी जाना जाता है।
'डोल ग्यारस' के अवसर पर कृष्ण मंदिरों में पूजा-अर्चना होती है। भगवान कृष्ण की मूर्ति को 'डोल' में विराजमान कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। इस अवसर पर कई शहरों में मेले, चल समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है।
इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं। इस दिन व्रत करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। जो मनुष्य भगवान विष्णु के वामन रूप की पूजा करता है, उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं।
एकादशी तिथि (ग्यारस) का वैसे भी सनातन धर्म में बहुत महत्व माना गया है। ऐसी मान्यता है, कि डोल ग्यारस का व्रत रखे बगैर जन्माष्टमी का व्रत पूर्ण नहीं होता। एकादशी तिथि में भी शुक्ल पक्ष की एकादशी को श्रेष्ठ माना गया है। शुक्ल पक्षों में भी पद्मीनी एकादशी का पुराणों में बहुत महत्व बताया गया है।