राखी का पर्व आते ही बहन का उल्लास और भाई की उमंग हिलोरे लेने लगती है। एक ऐसा सुहाना, सलोना रिश्ता, जिसमें मीठे और नमकीन दोनों का मजा एक साथ है। एक सुमधुर बंधन जो राखियों की खूबसूरती से शुरु हो कर रक्षा के वचन पर आकर विराम लेता है। और विराम कहां लेता है? अविराम चलता ही रहता है।
भाई के लिए अपनी बहन हमेशा खास होती है और बहन के लिए भाई हमेशा एक विश्वसनीय एहसास होता है।
पिछले दिनों लगातार पढ़ने में आया कि बड़े भाई ने बहन का गला दबाकर मार डाला, बड़े भाई ने बहन को जला दिया, बड़े भाई ने सगी बहन को कुल्हाड़ी से काट डाला....कारण सिर्फ यह कि बहन ने अपनी पसंद का जीवनसाथी चुना।
एकबारगी तो सदियों से कायम इस मजबूत रिश्ते की नींव में कंपन महसूस हुआ। अगले ही पल अतीत के अनेक महकते रंगीन धागे आंखों के आगे लहराने लगे। फिर भी सोच की प्रक्रिया रोक ना सकी। आखिर कैसे कर पाया होगा एक भाई अपनी ही बहन की हत्या?
क्यों नहीं याद आई उसे अपनी वह कच्ची आयु जब घर में उस नन्ही सी कली के खिल कर चटकने पर वह खुशी से झूम-झूम उठा था? क्यों नहीं याद आई उसे अपनी उस गुलाब की पांखुरी की दूधिया मुस्कान, जिसे एक बार पाने के लिए वह उसकी छोटी सी ठोड़ी पर अंगुली रखकर घंटों हिलाया करता था?
नहीं याद आए वे नन्हे पांव जो टेढ़े-मेढ़े-डगमगाते चलते और कहीं लडखड़ाने को होते तो भाई की चिंता उमड़ उठती उसे बचाने को?
भाई और बहन का रिश्ता अगाध स्नेह और अटूट विश्वास पर कायम रहता है। यह रिश्ता हर मजहब में और हर मौसम में एक-सा रहता है।
फिर ऐसा क्या हो गया है इन दिनों कि भाई-बहन एक-दूजे के प्रति उतने संवेदनशील और वफादार नहीं रह गए हैं जितने वे बीते दिनों में रहा करते थे। परिवेश का परिवर्तन कहें या पवित्र रिश्तों का पाश्चात्यीकरण, हमें मानना होगा कि हमारे अपने संबंध अब भीतर ही भीतर दरकने लगे हैं।
हम अपने रिश्तों को लेकर या तो पागलपन की हद तक अधीर हैं या फिर नितांत लापरवाह। दोनों ही स्थितियां अनुचित है। जहां हम पजेसीव हैं वहां हमें स्पेस देना सीखना होगा और जहां लापरवाह वहां जुड़ाव की संभावना तलाशनी होगी।
भाई और बहन के इस नाजुक पर्व पर उम्मीद की यह रेशम डोर बांधना चाहती हूं कि फिर किसी भाई के हाथ अपनी ही बहन के खून से ना सने बल्कि बहन की एडियों तक जाएं और उसके मनपसंद साथी के नाम का महावर रचे।
आखिर कब तक इज्जत के नाम पर बहनें मारी जाती रहेंगी, यही इज्जत भाई के लिए इतना महत्व क्यों नहीं रखती।
इतने अत्याचार, इतने दुराचार, इतने बलात्कार, इतने तेजाब प्रकरण, इतनी दहेज हत्या, इतने अपहरण..दिन-दिन बढ़ते इन आंकड़ों पर नजर डालें तो यह सब किसी ना किसी के 'भाई' ने ही अंजाम दिए हैं, अगर इसी इज्जत के नाम पर बहनों ने भाई को मारना शुरू कर दिया तो ? .... दोनों ही स्थितियां गलत है।
क्या भाई अपना दिल इतना बड़ा करेगा जो तथाकथित इज्जत से भी बड़ा हो...
कई घरों में आज भी अपनी बेटियां इसलिए नहीं बुलाई जाती है कि उन्होंने परिवार वालों की मर्जी के खिलाफ जाकर शादी की है, सोचती हूं क्या यह उचित है? जिस घर में बेटी इतने सालों पली उसकी एक गलती पर उसे घर की दहलीज से ही वंचित कर दिया जाए।
मनपसंद या विजातीय से शादी करना क्या इतना बड़ा गुनाह है हमारे समाज में.... ? सोचिए अगर घर के लड़के ने ऐसा कदम उठाया होता तो क्या उसके लिए होते हैं घर के दरवाजे बंद.... शायद होते भी हों पर बहन-बेटी के लिए यह दर्द अत्यंत तकलीफदायक होता है।
राखी और भाई दूज के भावुक पर्व पर उसके फटते कलेजे की कल्पना भी दुष्कर है। ससुराल बहुत अच्छा मिले तब भी मायके की जगह नहीं ले सकता। बहन को उसके प्यार के अधिकार से वंचित मत कीजिए, थोड़ा सा मन, थोड़ी सी सोच, थोड़ी सी भावनाएं, बहुत सारी कट्टरताएं इन पर्वों पर बदल देनी चाहिए। आखिर कितने दिनों की है यह जिंदगी। सारी प्रतिष्ठा, मान सम्मान यहीं रखा रह जाएगा बस बचा रहेगा आपका प्यार....
रक्षाबंधन का त्योहार 'रक्षा' के लिए जाना जाए, मधुर 'बंधन' के लिए पहचाना जाए ना कि हत्या और गुस्से जैसे भयावह लफ्ज के साथ आंखों में उमड़ता समंदर दे जाए। हर बहन की दुनिया के हर भाई से यही प्रार्थना है कि इस रिश्ते की गुलाबी गरिमा बनी रहे, बस इतनी कोशिश कीजिए।