जकात का मतलब है अपनी कमाई का ढाई प्रतिशत गरीबों में बांटना। वस्तुतः जकात देने से आदमी के माल एवं कारोबार में खुदा बरकत करता है। इस्लाम में रोजे, जकात और हज यह तीनों फर्ज हैं मजबूरी नहीं। अतः 12 साल से ऊपर के बालिक रोजा रखना अपना फर्ज समझते हैं। ईद से पहले फितरा दिया जाता है जिसमें परिवार का प्रत्येक व्यक्ति ढाई किलो के हिसाब से गेहूं या उसकी कीमत की रकम इकठ्ठा कर उसे जरूरतमंदों में बांटता है।
रमजान का महीना एक गर्म पत्थर से मायने रखता है। उस जमाने में अरब में आज से भी भीषण गरमी होती थी। अतः गरमी से तपते पत्थर से नसीहत लेते हुए, कि जैसे यह सूरज की किरणों से तप रहा है, वैसे ही तुम अल्लाह की इबादत में तप कर अपने तन-बदन एवं रूह को पाक-साफ बना लो।