लक्ष्मी-गणेश गढ़ने वालों से ही 'लक्ष्मी' दूर

मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017 (11:59 IST)
दरभंगा (बिहार)। प्रकाश पर्व दीपावली के मौके पर दूसरों के घर रौशन करने के लिए दीपक और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां बनाने वाले कुंभकारों के घर में आज भी अंधेरा है और लक्ष्मी उनसे दूर हैं।
 
दीपावली की तैयारियां अंतिम चरण में हैं। जहां लोग घरों का रंग-रोगन कर चुके हैं। संपन्न लोगों ने परिधान एवं पकवान के लिए खाद्यान्न भी खरीद लिया है, लेकिन इस समाज के कुछ ऐसे भी लोग हैं जो दीपावली में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने बाले दीप एवं कुलिया और भगवान गणेश एवं लक्ष्मी की छोटी- बड़ी मूर्तियां बनाने में महीनों से लगे हुए हैं लेकिन सदियों की परंपरा और वंशानुगत कर्म को बाजार और आधुनिकता ने लील लिया है। मिट्टी के दीपक का स्थान बिजली की जगमगाती झालरों ने ले लिया है।
 
मूर्तियां बनाने वाले कुम्हारों के लिए यह मात्र पर्व न होकर जीवन यापन का एक बड़ा जरिया भी है। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि दीपावली के दिन लोग घरों में जिस लक्ष्मी-गणेश की पूजा, 'लक्ष्मी के आगमन' के लिए करते हैं, उसे गढ़ने वालों कुम्हारों से ही वह कोसों दूर रहती है। आधुनिकता एवं केरोसिन की अनुपलब्धता की मार दीपावली में घर-घर प्रकाश से जगमगा देने बाले दीप, कुलिया बनाने वाले कुम्भकारों के पर भी भारी पड़ी है जिस कारण दीप बनाने वाले स्वयं दीप जलाने से वंचित रह जाते है और उनके घर अंधेरा ही रहता है।
  
पूजा आदि के आयोजनों पर प्रसाद वितरण के लिए इस्तेमाल होने वाली मिट्टी की प्याली, कुल्हड़ एवं भोज में पानी के लिए मिट्टी के ग्लास आदि भी प्रचलन में नहीं रह गए हैं। इनकी जगह अब प्लास्टिक ने ले ली है। वहीं पारंपरिक दीप की जगह मोमबत्ती एवं बिजली के फानूस ने ले ली है। इस कारण भी कुंभकारों की जिंदगी में दिन प्रतिदिन अंधेरा फैलता जा रहा है और वे अपनी पुस्तैनी इस कला एवं व्यवसाय से विमुख हो रहे हैं। 
 
दीपावली में मिट्टी के बने लक्ष्मी-गणेश के पूजन का विशेष महत्व है। इसको लेकर बाजार में तरह-तरह की मूर्तियां एवं दीपों का बाजार सज चुका है। हालांकि इस वर्ष इन मूर्तियों की कीमत बढ़ी हुई है, जिससे सामान्य एवं मध्यम वर्ग के लोगों के माथे पर पसीना भी आ रहा है लेकिन मूर्तियां खरीदना और उसका पूजन करना, दीप जलाना यह हमारी परंपरा है जिसका पालन करना है।
 
मूर्तियों में सर्वाधिक शुद्ध माने जाने वाली एवं दरभंगा के अधिकांश लोगों की विशेष पसंद 'मोती महल' नामक मूर्ति है जिसकी कीमत पिछले वर्ष की तुलना में 20 से 30 रुपए अधिक बताई जा रही है। वहीं सिंहासन वाली मूर्ति, पत्ती वाली मूर्ति, गणेश वाहन चूहा एवं हाथी युक्त मूर्तियों की कीमत भी 15 से 20 रुपए अधिक है। पिछले वर्ष मोती महल मूर्ति का सेट 100 से 120 रुपए का था जो बढ़कर 140 से 160 रुपए हो गया है। 
 
मिट्टी के दीपों एवं कुलियों पर भी आधुनिकता का प्रभाव पड़ा है और जिसके कारण अब मिट्टी के कुलियों का व्यवसाय लगभग ठप पड़ गया है। अब शहर में प्लास्टर ऑफ पेरिस (पीओपी) से बनी मूर्तियों की मांग काफी बढ़ गई है। इसकी एक वजह इसके कम कीमत और बेहतर लुक को माना जाता है। 
 
शहर में इन मूर्तियों के सबसे पुराने निर्माताओं में से एक रामविलास पंडित बताते हैं कि इन दिनों मिट्टी से लेकर जलावन तक की कीमत काफी बढ़ी हुई है जबकि प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों की लागत थोड़ी कम पड़ती है और निर्माण के समय रबर के डाई के माध्यम से मनमाफिक रूप दिया जा सकता है। जिससे यह लोगों को अधिक आकर्षित करता है। हालांकि विकास पंडित इस बात से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि हम हाथों से भी मूर्तियों को मन माफिक रूप दे सकते हैं। 
 
शहर के हसनचक एवं मौलागंज के मूर्ति निर्माताओं का कहना हैं कि महंगाई के कारण हर चीज की कीमत बढ़ी है, तो मूर्तियों की कीमत बढ़ना भी स्वभाविक है। मंहगाई का असर मूर्ति निर्माण सामग्री पर भी खासा पड़ा है, इसलिए दाम अपने आप बढ़ जाएंगे। कुंभकारों के अनुसार कुम्हरौटी मिट्टी को जो पिछले वर्ष 600-800 रुपए प्रति ट्रेलर के हिसाब से मिलती थी, अभी 800-1000 रुपए प्रति ट्रेलर मिल रही है। फैब्रिक रंग जो 10 रुपए प्रति दस ग्राम मिलता था, वह अब 30 रुपए प्रति दस ग्राम का मिल रहा है। ऐसे में दीपों का प्रचलन का बंद होना दुखदायी बन सकता है।
 
पिछले साल की तरह इस साल भी चीनी सामानों का बहिष्कार करने और देशी सामानों के इस्तेमाल पर जोर देने के आह्वान का ख़ास असर दिख रहा है। घरों में मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा का फिर से प्रचलन बढ़ रहा है। (वार्ता)

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