बंदूक का नशा छोड़ अब नशाखोरी में डूबा कश्मीर

सुरेश एस डुग्गर

बुधवार, 3 जून 2020 (11:39 IST)
जम्मू। कश्मीर में बंदूक के नशे का खुमार धीरे-धीरे खत्म तो हो रहा है लेकिन कश्मीरी युवकों में अब नशाखोरी एक बड़ी समस्या बनकर उभरती दिखाई दे रही है। नशाखोरी को अपनी समस्याएं दूर करने के तरीके के तौर पर, मानसिक सुकून पाने के विकल्प के तौर पर या खुद को शांत दिखाने के लिए युवक इस विकृति के जाल में फंसते चले जा रहे हैं। घाटी में पिछले साल इस समस्या में 35 से 40 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया है।

प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता यासिर अराफात जहांगीर ने बताया कि घाटी में कोकीन जैसे नशीले पदार्थों के अलावा दवाइयों का भी नशाखोरी के लिए जमकर उपयोग किया जा रहा है। इनमें कोरेक्स, कोडेन, एल्प्राजोलम, अल्प्राक्स, कैनेबिस आदि का प्रमुख रूप से उपयोग किया जा रहा है। कश्मीर के सरकारी मनोचिकित्सकीय रोग अस्पताल के मनोवैज्ञानिक डॉ. अरशद हुसैन की सुनें तो नशाखोरी ने पूरे शहर को अपने आगोश में ले लिया है। हुसैन कहते थे कि निःसंदेह कश्मीर में नशाखोरी में वृद्धि हुई है। इसके आंकड़े चिंतनीय हैं। इसके जाल में 18 से 35 वर्ष के युवक फंस रहे हैं, जिसके चलते युवकों की मौत की खबरें मिल रही हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक कश्मीर के चर्चित स्कूल के कक्षा 9 के ज्यादातर विद्यार्थी निकोटीन और सूंघने वाले नशीले तत्वों की गिरफ्त में हैं। मात्र 14 साल की उम्र से नशाखोरी के चंगुल में फंसे मुबाशिर ने कहा कि मैंने एक बार गलती की और अब यह मेरी मजबूरी बन गई है। मुबाशिर का कहना है मैंने तरल इरेजर, पेट्रोल ओर फेविकोल से शुरुआत की। मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था। सभी लोग कहते थे कि मैं बहुत बुद्धिमान हूं, लेकिन अब इसका कोई उपयोग नहीं है। मैं एक क्रिकेटर बनना चाहता था, लेकिन अब मैं ऐसा करने में सक्षम नहीं हूं।

संयुक्त राष्ट्र नशाखोरी नियंत्रण कार्यक्रम की ओर से कराए गए एक सर्वे के मुताबिक कश्मीर में नशाखोरों की संख्या 2.60 लाख के आसपास है। सामाजिक कार्यकर्ता जहांगीर का कहना है कि पिछले ढाई सालों में हमने 2198 मरीजों का इलाज किया और हमारे पास लगभग 3500 मरीज आए।

दरअसल कश्मीर घाटी तीन दशकों से जारी सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल और हिंसा की कीमत अपनी दिमागी सेहत खोकर चुका रही है। कश्मीर में नशे के शिकार लोगों का आंकड़ा खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। पोस्त और भांग की खेती तो बढ़ ही रही है, नशीली दवाओं ने भी हजारों लोगों को गुलाम बना लिया है। इनमें छात्रों की संख्या सबसे ज्यादा है।

नशा छुड़ाने वाले परामर्शकारों का अनुमान है कि कश्मीर में स्कूल और कॉलेज के 40 फीसदी छात्र ड्रग्स की चपेट में हैं। वादी में उभर रहे हालात पर अमेरिका की कार्नेल यूनिवर्सिटी से शोध कर रहे छात्र सैबा वर्मा कहते हैं कि अकेले श्रीनगर में नशे के आदी लोगों की संख्या कम से कम 60 हजार हो सकती है। मगर समाज के साथ-साथ सरकार भी सामने दिखती इस चुनौती की तरफ से आंखें मूंदे हुए है।

आलम यह है कि समस्या से निबटने की बात तो दूर, समस्या कितनी गंभीर है, इस बारे में एक भी विस्तृत सर्वेक्षण नहीं किया गया है। अधिकतर डॉक्टरों और मानसिक रोग विशेषज्ञों का कहना है कि 70 से 80 प्रतिशत लोग आसानी से मिलने वाली दवाओं मसलन अल्कोहल आधारित कफ सीरपों, दर्दनिवारक दवाओं, निशान मिटाने वाले केमिकल, नेल और शू पालिश से नशा करते हैं बाकी लोग या तो शराब लेते हैं या घाटी में उगने वाली भांग और तंबाकू के मिश्रण से काम चलाते हैं।

श्रीनगर में पुलिस कंट्रोल रूम में चलाए जा रहे एक नशा मुक्ति केंद्र में काम करने वाले डॉ. मुजफ्फर खान कहते हैं कि हमारी एक पूरी पीढ़ी नशे की भेंट चढ़ने वाली है। नौजवानों में इतनी ज्यादा असुरक्षा काफी हद तक सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल की वजह से पैदा हुई है। नशे के आदी अधिकतर लोग 18 से 35 साल के बीच के हैं। अख्तर का ही उदाहरण लीजिए जिन्हें अक्सर सख्त घेराबंदी और सुरक्षाबलों के तलाशी अभियान और आतंकी हमलों से पैदा होने वाली तनावजनक परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ता था।

2008 तक उनके सिर में लगातार दर्द रहने लगा था और इससे निजात पाने के लिए वे दर्दनिवारक दवाओं की मात्रा लगातार बढ़ा रहे थे। अख्तर बताते हैं कि फिर एक-दूसरे ड्राइवर ने सलाह दी कि मैं कुछ और स्ट्रांग चीज लूं। धीरे-धीरे वे दवा के ऐसे आदी हो गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने अपने घरवालों के साथ बुरा बर्ताव करना शुरू कर दिया।
अख्तर की कहानी यह भी बताती है कि राज्य के स्वास्थ्य विभाग के पास नशामुक्ति और पुनर्वास के लिए कोई प्रभावी कार्यक्रम नहीं है। तनाव से मुक्ति के लिए अख्तर ने एक एनजीओ ऑल जेएंडके यूथ वेलफेयर द्वारा चलाए जा रहे राहत नामक नशा मुक्ति केंद्र की सहायता ली थी पर जल्दी ही वे वहां से भाग आए क्योंकि उन्हें पहले दिन ही कैदियों की तरह जंजीर में बांध दिया गया था।

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