मोदक प्रिय श्री गणेशजी विद्या-बुद्धि और समस्त सिद्धियों के दाता हैं तथा थोड़ी उपासना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें हिन्दू धर्म में प्रथम पूज्य देवता माना गया है। किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के पूर्व उन्हीं का स्मरण और पूजन किया जाता है। गणेशजी ने तीनों युग में जन्म लिया है और वे आगे कलयुग में भी जन्म लेंगे। धर्मशात्रों के अनुसार गणपति ने 64 अवतार लिए, लेकिन 12 अवतार प्रख्यात माने जाते हैं जिसकी पूजा की जाती है। आओ जानते हैं उनके सतयुग के अवतार महोत्कट के बारे में संक्षिप्त जानकारी।
बड़े होकर दोनों पुत्र भी विद्वान निकले और इंद्रलोक तक इसकी खबर पहुंची तो देवर्षि नादर देखने आए और उन्होंने दोनों की कुंडली देखकर रुद्रकेतु से कहा कि तुम्हारे दोनों पुत्र पराक्रमी और साहसी निकलेंगे किंतु अनिष्ट का संकेत भी है। यह सुनक रुद्रकेतु ने कहा कि इसका समाधान तो नारदमुनि ने कहा कि इन दोनों बालकों को शिवजी की तपस्या करना चाहिए। उनकी प्रसन्नता से ही अनिष्टकारी योग समाप्त हो सकता है।
तब दोनों ही शिवजी की तपस्या करते हैं। शिवजी प्रसन्न हो प्रकट होकर कहते हैं कि मांगों क्या मांगते हों। यह सुनकर दोनों कहते हैं कि यदि आप हम पर सच में ही प्रसन्न हैं तो ऐसा वर दीजिये की हम तीनों लोकों पर शासन कर सकें। देव, असुर, यक्ष, राक्षस पिशाच और गंधर्व किसी से भी हमारी मृत्यु ना हो। हम अजेय हों। यह सुनकर भगवान शंकर ने कहा तथास्तु।
इसके बाद नरांतक कहता है कि मैं इंद्र की अमरावती पर कब्जा करता हूं और तुम धरती के अन्य राजाओं से निपटों। इस तरह दोनों भाइयों का आतंक शुरू हो जाता है और दोनों भाइयों का तीनों लोक पर कब्जा हो जाता है। धरती, पाताल और स्वर्ग तीनों पर उनका अधिकार रहता है। फिर वे तीनों मिलकर वैदिक धर्म को भंग करके असुर रीति को लागू करते हैं और तब सभी ऋषि मुनियों पर अत्याचार बढ़ जाते हैं।
कहते हैं कि भगवान श्री गणपति ने कृतयुग अर्थात सतयुग में कश्यप व अदिति के यहां श्री अवतार महोत्कट विनायक नाम से जन्म लिया। इस अवतार में गणपति ने देवतान्तक व नरान्तक नामक राक्षसों का संहार कर धर्म की स्थापना की व अपने अवतार की समाप्ति की। कृतयुग में भगवान गणपति अपने महान उत्कट ओजशक्ति के कारण वे 'महोत्कट' नाम से विख्यात हुए, उन महातेजस्वी प्रभु के दस भुजाएं थीं, उनका वाहन सिंह था, वे तेजोमय थे। उन्होंने देवांतक तथा नरान्तक आदि प्रमुख दैत्यों के संत्रास से संत्रस्त देव, ऋषि-मुनि, मनुष्यों तथा समस्त प्राणियों को भयमुक्त किया। देवांतक से हुए युद्ध में वे द्विदंती से एकदंती हो गए।