लॉकडाउन के बाद भगवद् गीता की ये 21 बातें जीवन के लिए बहुत जरूरी हैं

डॉ. छाया मंगल मिश्र
shreemad bhagvad geeta
-डॉ. छाया मंगल मिश्र
 
 विश्व की अमूल्य धरोहर श्रीमद् भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का एक भाग है। महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास ने और लेखन भगवान श्री गणेश ने किया। 
 
युद्ध के समय जब सेनाएं आमने-सामने खड़ी हो गईं ....तो अर्जुन के विषाद को दूर करने के लिए योगेश्वर श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया जो आज भी व्यवहारिक जीवन की समस्याओं के लिए समाधानकारक है। 
१. साहसी होना 
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते। 
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।
(अध्याय 2, श्लोक 3)
 
कायरता, कायरता है। चाहे वह करुणाजनित हो, या भय जनित। अत: अपने स्वत्व और अधिकारों की रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। अन्याय का सदैव प्रतिकार करना चाहिए और पलायन नहीं पुरुषार्थ का चयन करना चाहिए।
 
२. कर्मठ होना
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
माकर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संड्गोत्स्वकर्माणि।।
(अध्याय 2, श्लोक 47)
 
केवल मनुष्य को ही यह सौभाग्य प्राप्त है कि वह नए कर्म करने के लिए स्वतंत्र है। जिससे उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होकर उपलब्धियों के कीर्तिमान रचकर इतिहास में अद्वितीय स्थान प्राप्त कर सकता है। अत: अकर्मण्य नहीं, कर्मठता से कार्य करते रहना चाहिए। 
 
३. स्वविवेक से निर्णय लेना
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैमदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
(अध्याय 18, श्लोक 6३)
 
सलाह और विचार-विमर्श तथा मार्गदर्शन भले ही सबसे लेते रहें, लेकिन निर्णय स्वयं की  बुद्धि से लेना चाहिए। श्री कृष्ण ने अर्जुन को पूरा ज्ञान देने के बावजूद यह स्वतंत्रता दी थी कि वह स्वविवेक से निर्णय ले और कार्य करे। पराश्रित नहीं, स्वआश्रित होने का आह्वान कर व्यक्ति को स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनने का संदेश दिया है। 
४. मधुर और हितकर वाणी
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्भ्यसनं चैव वांगमयं तप उच्यते।।
(अध्याय 17, श्लोक 15)
 
तप तीन प्रकार के बताए गए है- शरीर, वाणी और मन। तीनों का उपयोग लोकहित में करना चाहिए। वाणी मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र है। इससे व्यक्ति सारे संसार को अपना मित्र बना सकता है या शत्रु बना सकता है। अत: बोली की महत्ता, शब्दों का प्रभाव और वाणी को नियंत्रित और मर्यादित रखें। 
५. दुर्गुणों का त्याग करना
दंभो दर्पोभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदामासुरीम्।।
(अध्याय 16, श्लोक 4)
 
पाखंड, घमंड, अभिमान, क्रोध, कठोर वाणी और अज्ञान- इनसे मनुष्य को दूर रहना चाहिए। सदगुणों को अपने जीवन में उतारना चाहिए जिससे जीवन में परम शांति का अनुभव होता है। 
६. ज्ञान पिपासु और जिज्ञासु होना
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिन: ।।
(अध्याय 4, श्लोक 34)
 
सच्चा ज्ञान आसानी से नहीं मिलता क्योंकि केवल सूचनाओं को पढ़ कर ज्ञानी नहीं बना जा सकता। इसके लिए विशेषज्ञों के पास तथा विधा पारंगतों के पास विनम्रता और श्रद्धापूर्वक हमें जाना चाहिए। तभी सही लक्ष्य एवं वास्तविक शिखर स्पष्ट दिखाई देने लगेगा। 
नहि ज्ञानेने सदृशं पवित्रमिह विद्यते।  (अध्याय 4, श्लोक 38)
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला दूसरा कोई साधन नहीं है। 
श्रद्धावॉंल्लभते ज्ञानं... (अध्याय 4, श्लोक 39)
ज्ञान के प्रति जिज्ञासा होगी तभी ज्ञान प्राप्त होगा।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति। (अध्याय 4, श्लोक 39)
क्योंकि शांति साधनों से नहीं ज्ञान से प्राप्त होती है। 
७. व्यवहारिक ज्ञान में कुशल
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्म्यहम्।। 
(अध्याय 4, श्लोक 11)
 
मनुष्य को व्यवहार करते समय बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि जैसा व्यवहार करोगे, वैसा ही तुम्हारे साथ भी होगा।
८. निर्भय होना
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृत निश्चय:।।
(अध्याय 2, श्लोक 37)
 
निर्भीक होकर कर्म करने से असफलता भी कीर्ति  यश और मान दिलाती है। भयग्रस्त मन-मस्तिष्क से किए कए काम में सफलता मिल भी जाए तो वह सम्मानीय, वंदनीय नहीं हो सकती। 
 
९. व्यक्तित्व का विकास
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।
(अध्याय 2, श्लोक 56)
 
आदर्श व्यक्तित्व वाला व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में विचलित नहीं होता। राग, भय, क्रोध- जब समाप्त हो जाते हैं तो व्यक्ति स्थिर बुद्धि वाला हो जाता है। तथा वह संकट और संतापों से प्रतिकूलता और अनुकूलता में संतुलन बनाए रखेगा। 
१०. स्वयं के प्रति उत्तरदायी
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।
(अध्याय 6, श्लोक 5)
 
अपने उत्कर्ष एवं अपकर्ष के लिए मनुष्य स्वयं उत्तरदायी होता है। दूसरे का अहित किए बिना स्वयं का उद्धार अपने प्रयत्न और बुद्धि बल से करना चाहिए। क्योंकि मनुष्य आप ही अपना मित्र और आप ही अपना शत्रु है। 
११. वफादारी से कार्य करना
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
(अध्याय 9, श्लोक 22)
 
यह एक व्यवहारिक सत्य है। जो व्यक्ति अपने स्वामि की कृपा का चिंतन करते हुए पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम करता है उसे स्वामि का पूर्ण संरक्षण मिलता है और स्वामि सदैव उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखता है। 
१२. एकाग्रचित्त कार्य करना
असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम्।
अभ्याभ्सेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
(अध्याय 6, श्लोक 35)
 
किसी भी संकल्प को पूरा करने के लिए मन का स्थिर और अचल होना आवश्यक है। उद्देश्य प्राप्ति के लिए हमें निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए। मन को बार बार अन्य बिंदुओं से हटाकर अपने लक्ष्य पर केंद्रित करने की प्रक्रिया को दोहराते रहना चाहिए। इस प्रक्रिया का चमत्कारिक प्रभाव देखने को मिलता है। और कार्य तल्लीनता से संपन्न होता है। इसलिए लक्ष्य के प्रति रुचि जागरुक करना चाहिए। 
१३. तनाव रहित रहें
अश्योच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:।।
(अध्याय 2, श्लोक 11)
 
आगत-विगत कि चिंता से मुक्त होकर कर्मपथ पर आगे बढ़ते जाना चाहिए। घटनाएं प्रकृति के घटनाक्रम की कड़ी हैं और वे समयानुसार घटती रहती हैं। अनावश्यक चिंताओं में उलझना जीवन के अमूल्य समय को नष्ट करना है। इसलिए तनाव रहित होकर अपना कर्म करते जाना चाहिए। 
१४. प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।।
(अध्याय 3, श्लोक 11)
 
पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, अग्रि, वनस्पति आदि जीवन के आधार स्तंभ हैं। इनके बिना जीवन संभव नहीं। और हमारी संस्कृति में इन्हें देवता माना गया है। सृष्टि में साम्य बनाए रखने के लिए जीवन, जगत एवं प्रकृति में साम्य जरूरी है। इसलिए प्रकृति का सम्मान करो और पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त करो।
१५. स्वकर्म को प्राथमिकता
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:। 
(अध्याय 18, श्लोक 45)
 
दूसरे का कर्म यदि अपने कर्म से श्रेष्ठ भी प्रतीत हो तो भी अपना कर्म त्याग कर उसे अपनाने के लिए आतुर नहीं होना चाहिए। अपने कर्म में प्रवीणता हासिल कर के उसी में अपनी पहचान बनानी चाहिए। स्वकर्म को करते हुए ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। 
१६. संचयवृत्ति का त्याग
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
(अध्याय 3, श्लोक 13)
 
जीवन में परोपकार और समाज कल्याण का व्रत भी लेना चाहिए क्योंकि मनुष्य जो भी अर्जित करता है उसमें समाज का योगदान होता है। इसलिए समाज का भी उसपर अधिकार है। इसलिए उसका कुछ अंश समाजसेवा में भी लगाया जाना चाहिए। यह एक आदर्श समाजवाद का उदाहरण प्रस्तुत करता है। 
१७. राग-द्वेष रहित जीवन
अद्वेष्टा सर्वभूतानां (अध्याय 12, श्लोक 13)
किसी भी प्राणी से राग-द्वेष न रखें
निर्वैर: सर्वभूतेषु (अध्याय 11, श्लोक 55)
बैर-भाव रहित होकर रहो
सर्वभूतहितेरता: (अध्याय 5, श्लोक 25)
सभी प्राणियों का कल्याण करो
ये तीनों सूत्र तीन महा मंत्र हैं। जिनके आचरण करने से व्यक्ति और समाज शांत और सुखी रहेगा। क्योंकि बैर-भाव, राग-द्वेष सारे झगड़े-फसाद की जड़ है। 
१८. कठोर प्रभावी नीति से प्रतिद्वंद्वता का सामना
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युभ्त्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्म्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
(अध्याय 4, श्लोक 7,8)
 
दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं- सज्जन और दुर्जन। जब तक सज्जन जागरुक और सक्रीय होते हैं तब दुष्ट अपनी दुष्ट प्रवृतियों से समाज को त्रस्त नहीं कर पाते। लेकिन सज्जनों की थोड़ी सी निष्क्रीयता और उदासीनता दुष्टों का प्रभाव बढ़ाने लगती है। फिर सज्जन बचाव का मार्ग अपनाने लगते हैं और हताश और निराश होकर सदकार्यों को छोड़ समाज को दुष्टों के भरोसे छोड़ देते हैं। दुष्टों पर नियंत्रण रखने और अपना कार्य जारी रखने के लिए कठोर और प्रभावी नीति अपनानी चाहिए। 
१९. स्वस्थ तन, स्वस्थ मन
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
(अध्याय 6, श्लोक 17)
 
जीवन में प्रगति के लिए मन-मस्तिष्क के साथ साथ तन का स्वस्थ रहना भी जरूरी है। कोई भी कार्य शरीर के द्वारा किया जाता है। यदि शरीर अस्वस्थ है तो वह कभी भी कोई कार्य नहीं कर पाएगा। अत: शरीर साधना बेहद जरूरी है। 
२०. कर्म और लोक कल्याण में समन्वय
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मनुस्मर युद्ध च। 
(अध्याय 8, श्लोक 7)
 
जीवन में यदि सफलता चाहते हैं तो कर्म और लोक कल्याण में समन्वय जरूरी है। तभी जीवन का समग्र विकास हो पाएगा। दोनों में से यदि कोई एक ही कार्य करते रहें या तो लोक कल्याण या कर्म , तो दोनों ही स्थितियां कभी भी आदर्श नहीं मानी जाती । इसलिए इनमें सामन्जस्य होना जरूरी है। 
 
२१. चारित्रिक बल से आदर्श नेतृत्व
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।। 
(अध्याय 3, श्लोक 21)
 
कोई भी राष्ट्र केवल आर्थिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रकृति से उन्नत नहीं हो जाता। जब तक कि वह आध्यात्मिक एवं नैतिक रूप से सबल नहीं हो उसकी प्रगति अधूरी है। वर्तमान में भारत के पास सब कुछ है परंतु धीरे-धीरे नैतिक और चारित्रिक बल की कमी हमें महसूस होने लगी है। अत: चरित्रवान बनकर आदर्श नेतृत्व प्रदान करना होगा, क्योंकि जो श्रेष्ठ पुरुष आचरण करते हैं लोग भी उनका अनुसरण करते हैं। अपने आचरण से ऐसे मूल्य स्थापित करने चाहिए जिनसे अन्य लोग प्रेरणा ले सकें। 
 
आपका जीवन मंगलमय हो।

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