भगवान को केवल भगवान की कृपा से ही जाना जा सकता है। उनकी कृपा भक्त पर तभी होती है जब वह मन, बुद्धि से शरणागत होता है।
अगर साधक मन और बुद्धि से समर्पण नहीं करता तो वह भगवान की कृपा नहीं पा सकता। उसके बाद वह दुनिया को दिखाने के लिए चाहे मंदिर में जाकर कितना ही माथा टेके, उसको भगवान नहीं मिलेंगे। भगवान न ही अकारण किसी पर कृपा करते हैं और न ही अकारण करुणा करते हैं।
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जब बच्चा संसार में आता है। उस समय उसकी जो अवस्था होती है उसे देखकर ही मां उस पर कृपा करती है। उसी प्रकार जब साधक मन के व्यसनों का त्याग करके भगवान की शरण में जाता है, तब उनकी कृपा साधक पर होती है।
भगवान ने गीता में कहा भी है - जो मेरी शरण में आते हैं, वे भवसागर पार कर लेते हैं, क्योंकि जिस प्रकार किसी अबोध बच्चे की सारी जबाबदारी उसकी माता वहन करती है। उसी प्रकार मन और बुद्धि से जब भक्त भगवान के शरण में जाता है, तब उसकी सारी जिम्मेदारी वे खुद उठाते हैं।
जिस प्रकार इंद्र की लाख कृपा के बाद भी उल्टे घड़े में एक बूंद भी पानी नहीं जा सकता है। उसी प्रकार मन, बुद्धि से भोग करने वालों को भगवान का अनुराग नहीं मिल सकता।