अश्वपति ने दिया था पूर्णरूपी आत्मा का ब्रह्मोपदेश

- वियोगी हरि

कैकय देश में अश्वपति नाम का राजा था। वह बड़ा सदाचारी, प्रजावत्सल और उच्च कोटि का ब्रह्मज्ञानी था। उसने वैश्वानर (सभी मनुष्यों में व्यापक) आत्मा की सफलतापूर्वक खोज की थी। स्वयं आत्म-दर्शन किया था और बड़े-बड़े वेदज्ञ पंडितों को भी आत्मतत्व की दीक्षा दी थी।

उस समय प्राचीनशाल, सत्ययज्ञ, इंद्रद्युम्न, जन और बुडिल नाम के पांच महापंडित एकसाथ बैठकर विचार किया करते थे कि आत्मा क्या है, ब्रह्म क्या है?

यह सुनकर कि उद्दालक ऋषि वैश्वानर आत्मा के शोध में आजकल लगे हुए हैं, वे पांचों आत्मतत्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनके पास पहुंचे।

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परंतु उद्दालक उनकी शंका का समाधान न कर सकें। उन्होंने सुन रखा था कि कैकय देश का राजा अश्वपति ही इस विषय का समाधान कर सकता है अत: वे पांचों पंडित और उद्दालक आत्मतत्व की खोज में कैकय देश पहुंचे।

राजा अश्वपति ने उनका यथोचित आतिथ्य किया। राजा ने उनसे कहा कि मेरे राज्य में न तो कोई चोर है, न कोई कृपण और न कोई मद्य ‍पीने वाला। सभी नित्य यज्ञ करते हैं। मेरे यहां कोई अविद्वान नहीं मिलेगा। प्रजाजनों में कोई व्यभिचारी नहीं है, फिर व्यभिचारिणी कहां से होगी?

उन पंडितों और उद्दालक को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और हर्ष भी कि वे निस्संदेह एक ऐसे रा‍जर्षि के पास पहुंचे हैं, जो उनको आत्मतत्व का सच्चा और पूरा ज्ञान करा सकता है।

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अश्वपति ने एक-एक पंडित से अलग-अलग पूछा कि वे किसको आत्मा मानकर उसकी उपासना करते हैं।

उन्होंने जो उत्तर दिए, उससे मालूम हुआ कि प्राचीनशाल द्युलोक की उपासना करता था। नक्षत्रों और तारों से प्रकाशमान आकाश को वह आत्मा मानता था।

सत्ययज्ञ ने आदित्य अर्थात सूर्य को आत्मा मान लिया था और वह उसी का उपासक था।

इंद्रद्युम्न ने वायु को आत्मा माना और उसी की उपासना की थी।

जन ने अंतरिक्ष को आत्मा मान लिया था और उसी की उपासना में वह संलग्न था।

बुडिल जल को आत्मा मानता था।

और, उद्दालक ने पृथ्वी को आत्मा मान लिया था। वह केवल पृथ्‍वी का उपासक था।


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अश्वपति ने उनसे कहा कि वे अलग-अलग, एक-एक अंश को आत्मा मान रहे हैं। वे संपूर्ण को नहीं जानते इसलिए उनकी साधना अधूरी है। उसने बताया कि द्युलोक, आदित्य, वायु, आकाश, अंतरिक्ष, जल और पृथ्वी को आत्मा मानकर वे धन-धान्य, रथ, बड़े-बड़े भवन और दूसरी सांसारिक समृद्धि पाकर उनको भोग सकते हैं, परंतु उस परम लाभ को वे इनकी उपासना से नहीं पा सकते जिसे पाकर फिर कुछ पाने के लिए शेष नहीं रहता। एक-एक तत्व और देवता की अलग-अलग उपासना वे भले ही करें, किंतु उनका संशय तब तक दूर नहीं होगा, जब तक वे वैश्वानर को, विश्वमानुष को अर्थात समष्टिरूप आत्मा को नहीं जानते, उसका साक्षात्कार नहीं करते और उसकी उपासना नहीं करते।

अश्वपति के उपदेश का सारांश यह है कि हमारा यह शरीर नर है और वैनाश्वर है समष्टि चैतन्य। व्यष्टि का समष्टि में लीन हो जाना, पिंड का ब्रह्मांड में तदाकार हो जाना ही वैश्वानर की सच्ची उपासना है। अपनी आत्मा को ही देखकर हमें वहां नहीं रुक जाना चाहिए।

पूरी तृप्ति तो हमारी तभी होगी, जब विश्वमात्र में व्याप्त नर की, वैश्वानर की खोज हम करेंगे और उसी के लिए यज्ञ करेंगे और परितृप्त भी उसी से होंगे। मतलब यह कि आत्मा के अपूर्ण रूप की उपासना न कर हम उसके पूर्ण रूप की उपासना करें। संपूर्ण जगत को तृप्त करने के लिए हम तृप्तकर्म करें।

उन पांच महापंडितों और उद्दालक की जिज्ञासा का पूरा समाधान हो गया। वे वैश्वानर के उपासक हो गए।

यह कथा छांदोग्य उपनिषद से ली गई है
(समाप्त)

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