प्राचीन समय की बात है। दक्षिण भारत की तुंगभद्रा नदी के तट पर एक नगर में आत्मदेव नामक एक व्यक्ति रहता था, जो सभी वेदों में पारंगत था। उसकी पत्नी का नाम धुन्धुली था। धुन्धुली बहुत ही सुन्दर लेकिन स्वभाव से क्रूर और झगडालू थी। घर में सब प्रकार का सुख था लेकिन वह व्यक्ति अपनी पत्नी से तो दुखी था ही साथ ही साथ उसे कोई संतान का सुख भी नहीं था। वह चिंता में रहता था कि यदि उम्र ढल गई तो फिर संतान का मुख देखने को नहीं मिलेगा।
यह सब सोचकर उसने बड़े दुखी मन से अपने प्राण त्यागने के लिए वह वन चला गया। वन में एक तालाब में वह कूदने ही वाला था कि तभी एक संन्यासी ने उसे देखकर उससे पूछा, कहो वीप्रवण तुम्हे ऐसी कौन-सी भारी चिंता है जिसके कारण तुम प्राण त्याग रहे हो?
आत्मदेव ने कहा, ऋषिवर मैं संतान के लिए इतना दुखी हो गया हूं कि मुझे अब अपना जीवन निष्फल लगता है। संतानहीन जीवन को धिक्कार है और मैंने जिस गाय को पाल रखा है वह भी बांझ है। यह तो ठीक है मैं जो पेड़ लगता हूं उस पर भी फल-फूल नहीं लगते हैं। मै घर में जो फल लाता हूं वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। इन सब बातों से में दुखी हो चुका है। ऐसा कहकर वह व्यक्ति रोने लगता है।
वह संत उसकी बात सुनकर उसके ललाट की रेखाओं को देखता है। रेखाओं को देखकर वह कहता है कि वीप्रवण कर्म की गति बड़ी प्रबल है, वासना को छोड़ दो, सुनो। मैंने तुम्हारा भाग्य देख लिया है, इस जन्म में तो क्या अगले सात जन्मों तक तुम्हारे कोई संतान किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती।
तब ब्राह्मण कहता है कि फिर मुझे प्राण त्यागने दीजिए या आप किसी भी यत्न से मुझे पुत्र प्राप्त का मार्ग बताएं।...जब वह संत देखता है कि यह व्यक्ति किसी भी प्रकार से समझाने पर भी प्राण त्यागने को अमादा है तो वह अपन झोली से फल निकालकर कहता है कि अच्छा ठीक है। तुम यह फल लो और इसे अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा।
आत्मदेव वह फल लाकर अपनी पत्नी को दे देता है लेकिन उसकी पत्नी वह मन ही मन सोचती है कि यदि मैंने ये फल खा लिया और गर्भ रह गया तो मुझसे खाया नहीं आएगा और मैं मर भी सकती हूं। यह सोचकर वह तय करती है कि मैं ये फल नहीं खाऊंगी इसीलिए वह आत्मदेव से कई तरह के तर्क और कुतर्क करती है। आत्मदेव के कहने पर वह फल तो रख लेती है लेकिन खाती नहीं है।
एक दिन उसकी बहन उसके घर आती है जिसे वह सारा किस्सा सुनाती है। बहन उससे कहती है कि- मेरे पेट में बच्चा है, प्रसव होने पर वह बालक मैं तुम्हे दे दूंगी, तब तक तुम गर्भावती के समान घर में रहो। मैं कह दूंगी, मेरा बच्चा मर गया और तू ये फल गाय को खिला दे। आत्मदेव की पत्नी अपनी बहन की बात मानकर ऐसा ही करती है। उस फल को वह गाय को खिला देती है।
समय व्यतीत होने पर उसकी बहन ने बच्चा लाकर धुन्धुली को दे दिया। पुत्र हुआ है यह सुनकर आत्मदेव को बड़ा आनंद हुआ। धुन्धुली ने अपने बच्चे का नाम धुंधकारी रखा। इसके तीन माह व्यतीत होने के बाद एक दिन आत्मदेव सुबह गाय को चारा डालने गा तो उसने देखा कि गाय के पास एक बच्चा है जो कि मनुष्याकार है, लेकिन बस उसके कान ही गाय के समान थे। उसे देखकर वह आश्चर्य में पड़ जाता है। हालांकि उसे बड़ा आनंद भी होता है। वह उस बच्चे को उठाकर घर में ले जाता है। उसका नाम वह गोकर्ण रखता है। अब उसके दो बाल हो जाते हैं। एक धुंधकारी और दूसरा गोकर्ण।
गोकर्ण बड़ा होकर विद्वान पंडित और ज्ञानी निकलता है जबकि धुंधकारी दुष्ट, नशेड़ी और क्रोधी, चोर, व्याभिचारी, अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाला, माता पिता को सताने वाला निकलता है। वह माता पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर देता है।
एक दिन वह पिता को मार मार कर घर से बहार निकाल देता है। पिता रोने लगता है और कहता है कि मेरी पत्नी का बांझ रहना ही अच्छा था। तभी वहां गोकर्ण आ जाता है। वह पिताजी को वैराग्य का उपदेश देता है और कहता है कि आप सभी छोड़कर प्रभु की शरण में वन चले जाएं और भागवत भजन करें। भगवत भजन ही सबसे बड़ा धर्म है। गो से उत्पन्न पुत्र गोकर्ण की बात मानकर आत्मदेव वन चले जाते हैं। बाद में उसकी पत्नी धुन्धली को धुंधकारी सताने लगता है तो वह कुएं में कुंदकर आत्महत्या कर लेती है।
तब धुंधकारी पांच वेश्याओं के साथ रहने लगता है। वेश्याएं उसे अपने तरीके से संचालित करती थी। धुंधकारी उन वेश्याओं के लिए ही धन जुटाने लगता है। वह उनके लिए डाका डालता और चोरी करता है। बाद में वे वेश्याएं सोचने लगती है कि यदि एक दिन यह पकड़ा गया तो राजा इसके साथ हमें भी दंड देगा। यह सोचकर वह वेश्याएं सोते हुए धुंधकारी को रस्सियों से उसका गला दबाने का प्रयास करती है। जब वह गला दबाने से भी नहीं मरता है तो वे सभी मिलकर उसे दहकते अंगारों में डाल देती है। वहां वह तड़फतड़फ कर मर जाता है। बाद में उसे गड्डा खोदकर गाड़ दिया जाता है।
मरने के बाद धुंधकारी भयंकर दुख देने, झेलने और अपने कुकर्मो के कारण एक प्रेत बन जाता है। प्रेत बनने के बाद भूख और प्यास से वह व्याकुल हो जाता है। रह रहकर वह चिल्लाता भी रहता है क्योंकि उसे अंगारों से जलाया गया था इसीलिए उसकी अनुभूति उसे अभी भी सताती रहती है। उसे लगता है कि अभी भी मेरा शरीर जल रहा है।
एक दिन उसका भाई गोकर्ण उसके गांव में कथा करते हुए आते हैं। गोकर्ण सबसे नजर बचाते हुए अपने पुश्तेनी मकान में सोने चले जाते हैं। अपने ही घर में अपने भाई को सोया हुआ देखकर धुंधकारी खुश हो जाता है और आवाज लगाता है।
गोकर्ण यह आवाज सुनकर पूछता है कि तुम कौन हो?
धुंधकारी कहता है, मैं तुम्हारा भाई हूं, मेरे कुकर्मो की गिनती नहीं की जा सकती, इसी से में प्रेत-योनी में पड़ा ये दुर्दशा भोग रहा हूं, भाई। तुम दया करके मुझे इस योनी से छुड़ाओ।
गोकर्ण कहता है कि मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है मैंने तुम्हारे लिए विधिपूर्वक गयाजी में श्राद्ध किया फिर भी तुम प्रेतयोनी से मुक्त कैसे नहीं हुए, मैं कुछ और उपाय करता हूं। कई उपाय करने के बाद भी जब कुछ नहीं होता है तो अंत में वह सूर्येदेव से पूछते हैं तो सूर्यदेव कहते हैं कि केवल श्रीमद्भागवत कथा सुनने से मुक्ति हो सकती है। इसलिए तुम सप्ताह पारायण करो।
तब गोकर्णने व्यास गद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे देश, गांव से बहुत लोग कथा सुनने आने लगे इतनी भीड़ हो गई कि सब आश्चर्य करने लगे तब वह प्रेत भी वहां आ पहुंचा वह इधर-उधर स्थान ढूंढने लगा इतने में उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गांठ के बांस पर पड़ी वह वायु रूप से उसमें जाकर बैठ गया।
जब शाम को कथा को विश्राम दिया गया, तो एक बड़ी विचित्र बात हुई। सबके देखते-देखते उस बांस की एक गांठ तड़-तड़ करती फट गई इसी प्रकार सात दिनो में सातों गांठे फट गई और बारह स्कंद सुनने से पवित्र होकर धुंधकारी एक दिव्य रूप धारण करके सामने खड़ा हो गया। उसने भाई को प्रणाम किया तभी बैकुण्ठवासी पार्षदों के सहित एक विमान उतरा। सबके देखते ही धुंधकारी विमान पर चढ़ गए।
उन पार्षदों को देखकर उनसे गोकर्ण ने कहा, भगवान के प्रिय पार्षदों यहां हमारे अनेकों शुद्ध हृदय श्रोतागण है उन सबके लिए एक साथ बहुत से विमान क्यों नहीं लाए? यहां सभी ने समान रूप से कथा सुनी है फिर फल में इस प्रकार का भेद क्यों?
भगवान के पार्षदों ने कहा, इस फल भेद का कारण इनमें श्रवण का भेद है श्रवण सबने समानरूप से ही किया किन्तु इसके जैसा मनन नहीं किया। इस प्रेत ने सात दिन तक सुने हुए विषय का स्थिरचित्त से खूब मनन भी करता रहा। यह कहकर वे सब पार्षद बैकुंठ को चले गए।
श्रावण माह में गोकर्ण ने फिर से उसी प्रकार सप्ताह क्रम से कथा कही वहां भक्तों से भरे हुए विमानों के साथ भगवान प्रकट हो गए उस गांव में कुत्ते और चण्डाल पर्यंन्त जितने भी जीव थे सभी दिव्य देह धारण करके विमान पर चढ़ गए भगवान उन सभी को योगिदुर्लभ गोलोक धाम में ले गए।
निष्कर्ष : अपने माता-पिता को कष्ट देने वाला, शराब पीने वाला, वेश्यागामी आदि पुरुष प्रेतयोनी प्राप्त कर अनंतकाल तक भटकते रहते हैं। अब न हो गोकर्ण की तरह कथा सुनाने वाले हैं और न सुनने वाले। धुंधकारी को उसके पापों की सजा तो मिली ही साथ ही उसने प्रेतयोनी में रहकर भी सजा भुगती। बाद में जब उसे पछतावा हुआ तो भागवत कथा सुनकर मन निर्मल हो गया। निर्मल मन होने से उसके सारे संताप जाते रहे।