विवाह के लिए खरीदा जाता है कन्या को

उत्तराखंड के नैनीताल, पौड़ी गढ़वाल और देहरादून की ग्रामीण बस्तियों में निवास करने वाली बुक्सा जनजाति में विवाह करने के लिए आज भी कन्या को खरीदा जाता है। इसका कारण यह है कि इस जनजाति में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या काफी कम है।

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बुक्सा जनजाति की कन्या विवाह से पहले परिवार के आर्थिक उत्पादन में महत्वपूर्ण स्थान रखती है, लेकिन विवाह के बाद कन्या पक्ष कन्या के सहयोग से मिलने वाले लाभ से वंचित हो जाता है जिसकी भरपाई के रूप में कन्या का पिता कन्या का मूल्य पाने का अधिकारी माना जाता है। यह राशि विवाह से पहले वर पक्ष कन्या पक्ष को देता है, जिसे 'मालगति' कहा जाता है।

इस जनजाति में पुरुष का विवाह तभी संभव है, जब उसके पास खेती के लिए इतनी भूमि हो कि वह अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके। यह भी महत्वपूर्ण बात है कि इस जनजाति में विवाह अपेक्षाकृत अधिक उम्र में किए जाते हैं। कन्या के विवाह की उम्र अमूमन 18-20 और वर की उम्र 20-24 वर्ष होती है।

अंतरजातीय और बहिर्गोत्रीय विवाह की प्रथा इस आदिवासी समाज में प्रचलित है। इनमें रक्त संबंधियों के बीच विवाह नहीं होता और एक ही गाँव में भी विवाह निषिद्ध है। इनमें दहेज प्रथा भी प्रचलित है, जो साधारणतः वस्त्राभूषण आदि के रूप में दिया जाता है।

बुक्सा जनजाति में विवाह विच्छेद की सुविधा या छूट है, लेकिन विवाह विच्छेद नहीं के बराबर है। इसकी कई वजहें हैं। क्रय विवाह में जिस कन्या को धन देकर खरीदा जाता है, उसे छोड़ने का मतलब प्रत्यक्ष आर्थिक क्षति है। इसलिए कोई भी पति आसानी से अपनी विवाहिता को तलाक नहीं दे सकता।

इस जनजाति में बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन भी नहीं है। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि इस समाज में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से काफी अधिक है। इसलिए विवाह विच्छेद के बाद पुरुष का विवाह कठिन हो जाता है। इनमें विधवा का विवाह तो आसानी से हो जाता है, लेकिन विधुर का विवाह सरलता से नहीं हो पाता है। पत्नी के संबंध तोड़ने पर पूर्व पति उसके पिता या नए पति से क्षतिपूर्ति की माँग कर सकता है और यदि पत्नी पति को छोड़े दे तो उसके पिता को 'मालगति' वापस करनी पड़ती है।

सन् 1991 की जनगणना के अनुसार बुक्सा जनजाति की कुल आबादी 42027 है और इसका 60 प्रतिशत भाग नैनीताल जिले के विभिन्न विकासखंडों में निवास करता है। जिन क्षेत्रों में यह जनजाति बसी है, उसे 'भोक्सार' कहते हैं। इनकी भाषा हिन्दी और कुमाउंनी का सम्मिश्रण है, लेकिन जो लोग पढ़ना-लिखना जानते हैं। वे देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करते हैं।

बुक्सा जनजाति की उत्पत्ति के विषय में ब्रिटिश इतिहासकार विलियम क्रुक ने बताया है कि यह अपने को राजपूतों का वंशज मानती है, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि इस जनजाति के लोग दक्षिण से आए हैं जबकि कुछ का मत है कि ये उज्जैन में धारानगरी के मूल निवासी थे। कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि देश पर मुगलों के आक्रमण के समय चितौड़ की राजपूत जाति की अनेक स्त्रियाँ निम्न वर्ग के अनुचरों के साथ भाग आईं और उन्होंने तराई क्षेत्र में शरण ली। बुक्सा जनजाति के लोग उन्हीं के वंशज हैं। शायद इसीलिए इस जनजाति की पारिवारिक योजना में स्त्रियों की प्रधानता है और पुरुषों को अब भी घर के बाहर भोजन करना पड़ता है।

बुक्सा जनजाति में पिता के नाम पर वंश चलता है। परिवार का ज्येष्ठ पुरुष मुखिया होता है और असीमित अधिकारों के साथ एक निरंकुश शासक की तरह काम करता है। उसके आदेश का परिवार के सभी लोगों को पालन करना पड़ता है। परिवार की समस्त आमदनी उसी को सौंपी जाती है, जिसे वह उचित समय पर व्यय करता है। इस आदिवासी समाज में संयुक्त और वैयक्तिक दोनों प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। परिवार के सभी सदस्य खेती करते हैं और खेती पर सभी का अधिकार माना जाता है।

बदलते दौर में अब बुक्सा जनजाति में भी संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवार लेते जा रहे हैं। हालाँकि इन परिवारों में पुरुषों की प्रधानता है, लेकिन स्त्रियाँ भी कम महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखती है। परिवार में उनकी बात अधिक मानी जाती है। अशिक्षित होते हुए इस जनजाति की महिलाओं में पर्दा प्रथा बिल्कुल नहीं है। बुक्सा स्त्रियाँ पुरुषों की न तो दासियाँ हैं और न ही स्वामिनी बल्कि वह बराबरी का स्थान हासिल किए हुए हैं।

इस जनजाति में रिश्तेदारी संबंधी प्रथाओं का भी बड़ा महत्व है। परिवार की पुत्रवधू अपने ससुर और जेठ को न तो देख सकती है, न बात कर सकती है और न ही उनके सामने चारपाई पर बैठ सकती है। जेठ और ससुर से वह सास या ननद के माध्यम से अपनी बात कह सकती है। इन लोगों में भी जीजा-साली और देवर-भाभी के बीच परिहास प्रचलित है। इसलिए इस जनजाति में देवर-भाभी के बीच पति-पत्नी संबंध संभावित माना गया है, लेकिन देवर-भाभी और जीजा-साली में विवाह से पहले यौन संबंध अवैध माना जाता है।

शादी, तलाक और आपसी झगड़े बिरादरी की पंचायत तय करती है। दस-बीस गाँवों के बीच इस प्रकार की एक बिरादरी पंचायत होती है, लेकिन अब इस तरह की पंचायत का महत्व कम होने लगा है। इनके स्थान पर नैनीताल जिले के तराई क्षेत्र में पंचायती राज और बुक्सा परिषद् की स्थापना की गई है जो महत्वपूर्ण कार्य कर रही है।

बुक्सा जनजाति का धर्म हिन्दू है। उसकी ईश्वर में आस्था है जिसकी पूजा कई देवी-देवताओं के रूप में की जाती है। शंकर, काली माई, दुर्गा, लक्ष्मी, राम और कृष्ण की इस आदिवासी समाज में पूजा की जाती है। होली, दीपावली, दशहरा और जन्माष्टमी उनके मुख्य त्योहार हैं, लेकिन 25 दिसम्बर को ईसाइयों के समान बड़ा दिन भी वह मनाते हैं। इसकी वजह यह है कि बुक्सा जनजाति के लोग बहुत दिनों तक अंग्रेज अधिकारियों के सम्पर्क में रहे थे।

इस जनजाति में कई प्रकार के जादू, टोने और अंधविश्वास भी प्रचलित हैं। इनमें यह धारणा है कि झाड़, फूँक से रोग ठीक हो जाते हैं। वैद्य या चिकित्सक से परामर्श करने से पहले इस जनजाति के लोग रोगी को 'स्थाने', स्थानीय भाषा में 'भंडारे' को दिखाते हैं, जो उसकी नब्ज देखकर तंत्र-मंत्र से झाड़-फूँक करता है। स्थाने के आदेश पर देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मुर्गे या बकरे की भेंट चढ़ाई जाती है।

इस जनजाति के लोग कोई काम बिगड़ने, दुर्घटना होने या रोग होने का कारण भूत-प्रेत की अप्रसन्नता को मानते हैं और उसे खुश करने के लिए मुर्गा, वस्त्रादि निश्चित एकांत स्थान पर रखे जाते हैं। उनका विश्वास है कि प्रेतात्माएँ उसे ग्रहण करने वहाँ जाती हैं। बकरे की बलि चढ़ाकर उसे देवी या आत्मा के प्रसाद के रूप में वितरित और स्वयं ग्रहण किया जाता है। बुक्सा लोग शक्ति के प्रतीक के रूप में पीपल के पेड़ की पूजा करते हैं।

बुक्सा जनजाति के लोगों की अर्थव्यवस्था जंगलों पर आधारित है, लेकिन धीरे-धीरे जंगलों के कटने से अब वे केवल खेती या खेतों में मजदूरी करने के लिए बाध्य हो गए हैं। उनके पास खेती योग्य भूमि की कोई कमी नहीं थी, लेकिन आलस्य, उधार, कर्ज तथा नशे की आदत और अशिक्षित होने के कारण उनकी अधिकतर भूमि पहाड़ियों और पंजाबी शरणार्थियों ने हथिया ली।

बुक्सा चावल और मछली बड़े चाव से खाते हैं और अपने भोजन में दाल, रोटी और सब्जी का प्रचुरता से इस्तेमाल करते हैं। नशीले पदार्थों और द्रव्यों में पुरुष देसी हुक्के, बीडी, सिगरेट, शराब, कच्ची ताड़ी और सुल्फे का प्रयोग अधिक करते हैं।

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