हमारी सभ्यता का आईना हैं हमारे शहर

जगमोह
पूर्व केंद्रीय शहरी विकास मंत्र

ND
शहरों में अतिक्रमण और अवैध निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। भूमि व निर्माण माफिया उठ खड़े हुए हैं। शहरी अपराध पहले से अधिक परिष्कृत और चालाकीपूर्ण हो गए हैं। नगर निकायों में भ्रष्टाचार कई गुना बढ़ गया है। शहरों के प्रशासन के लिए सुसंगत, समन्वित तथा जीवंत व्यवस्था की दरकार होती है मगर हमारे शहरों के पास हैं विखंडित, विभंजित और जड़बुद्धि प्राधिकारी, जो किसी भी समस्या से दो-दो हाथ करने में अक्षम हैं

शहर राष्ट्र की आध्यात्मिक कार्यशालाएँ होते हैं। वे लोगों के मन और उत्प्रेरण का आईना होते हैं। एक पुरानी कहावत है, 'मुझे अपने शहर बताओ, मैं तुम्हें तुम्हारे सांस्कृतिक लक्ष्यों के बारे में बताऊँगा।' शहर सभ्यताओं को आकार देते हैं और सभ्यताएँ शहरों को। शहर और सभ्यता इस कदर एक-दूसरे में गुत्थम-गुत्था होते हैं कि एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बीमार और अमानवीय सभ्यताएँ रुग्ण एवं निष्प्राण शहरों को ही जन्म देती हैं और ऐसे शहर सभ्यताओं की दूषितता व दिग्भ्रमितता को ही बढ़ाते हैं। दोनों एक-दूसरे की कमजोरियों को पुष्ट करते हैं। एक दुश्चक्र चल पड़ता है। आज के शहरी भारत की त्रासदी इसी दुश्चक्र में निहित है। हम अपने आसपास जो कूड़ा-करकट, प्रदूषण, झोपड़पट्टियाँ, अतिक्रमण आदि देख रहे हैं, वह हमारी सभ्यतागत खामियों तथा हमारे शहरों की खामियों का मिला-जुला नतीजा ही हैं।

हमारी शहरी प्रशासनिक मशीनरी ने सभ्यताओं और शहरों के बीच मौजूद गहरे अंतर्संबंधों की ओर से आँखें मूँद ली हैं। उसने शहरों की सतह के नीचे बहने वाले सभ्यता के प्रवाह के शुद्धिकरण के लिए कुछ नहीं किया है। न ही वह तीव्र शहरीकरण के विश्वव्यापी चलन से उठ खड़ीहुई चुनौतियों को ठीक तरह समझ सकी है। शहरी तथा ग्रामीण बसाहटों में एक साथ जनसंख्या वृद्धि की भारतीय विशेषता की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया है। कड़ा अनुशासन लागू करने, कार्यान्वयन मशीनरी को कारगर बनाने और नए वित्तीय, तकनीकी तथा प्रबंधकीय संसाधनों की तलाश के मामले में भी यही स्थिति है। पूरा मामला कमतर दूरदृष्टि, उदासीन समझ तथा व्यापक लापरवाही का है।

यह तो काफी हद तक निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि इक्कीसवीं सदी का विश्व शहरी विश्व होगा। 1950 से 1990 के बीच शहरों का विकास गाँवों की तुलना में दोगुनी से भी ज्यादा गति से हुआ। 1990 से 2000 के दशक में तो विश्व की शहरी आबादी में कोई 83 प्रतिशत वृद्धि हुई।

इस दौरान शहरों में औसतन 8.1 करोड़ लोग प्रति वर्ष बढ़े। शहरी जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के चलन और उससे जन्म लेती जटिल समस्याओं से भारत भी अछूता नहीं रहा है। हालाँकि कुल जनसंख्या में शहरी जनसंख्या का प्रतिशत तो अधिक नहीं बढ़ा है (यह 1951 में 14 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में 28 प्रतिशत हुआ है), लेकिन संख्या के हिसाब से देखें तो बहुत अधिक वृद्धि हुई है। आज भारत की शहरी आबादी लगभग 30 करोड़ है, जो कि स्वतंत्रता के समय भारत की कुल आबादी से अधिक है। गत 50 वर्षों में भारत प्रति वर्ष औसतन 50 से 60 लाखलोग अपने शहरों में जोड़ता जा रहा है। आज हमारे यहाँ चार 'मेगा सिटी' (50 लाख से अधिक जनसंख्या), 19 'मेट्रो सिटी' (10 लाख से अधिक जनसंख्या) और 300 बड़े शहर हैं। इसके अलावा छोटे व मध्यम आकार की 3396 शहरी बसाहटें हैं। हमारे चार शहर (मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नाई) विश्व के 30 सबसे बड़े शहरों में से हैं।

भारत की परिस्थितियों को देखते हुए उसे शहरों को लेकर एक स्पष्ट दृष्टि विकसित करना चाहिए थी। साथ ही इस दृष्टि को वास्तविकता में परिवर्तित करने के लिए एक तगड़ी इच्छाशक्ति भी उसमें होना चाहिए थी। दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं सका। नतीजा यह है कि हमारे शहरोंकी हालत खस्ता है। आज हमारी 52 प्रतिशत शहरी आबादी के लिए सफाई व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है। जल-मल निकासी व्यवस्था का लाभ वर्ग-4 शहरों में 35 प्रतिशत और वर्ग-1 शहरों में 75 प्रतिशत लोगों तक ही पहुँच पाया है। लगभग 34 प्रतिशत शहरी आबादी के पास तो वर्षा जलकी निकासी की भी सुविधा नहीं है। हमारे 60 प्रतिशत शहरी निकाय प्रतिदिन निकलने वाले ठोस अपशिष्ट के 40 प्रतिशत से भी कम का निपटारा कर पाते हैं। कम से कम 28 प्रतिशत शहरी अपशिष्ट सड़क किनारे, घरों व फैक्टरियों के आसपास पड़ा सड़ता रहता है। इसका काफी बड़ाहिस्सा नालियों में जाकर उन्हें अवरुद्ध कर देता है और चारों ओर कीचड़ व बदबू फैलाता है, साथ ही मच्छर, मक्खियों, कॉकरोचों आदि के फलने-फूलने के लिए आदर्श वातावरण निर्मित करता है।

हमारी सघनता दर विश्व में सर्वाधिक है। कोई 19 प्रतिशत भारतीय परिवार 10 वर्ग मीटर से भी कम जगह में रहते हैं। शहरी क्षेत्रों में 44 प्रतिशत परिवार एक ही कमरे के घरों में गुजारा करते हैं। शहरों की जनसंख्या जिस रफ्तार से बढ़ रही है, झोपड़पट्टियों व अतिक्रमणों की संख्या उससे दोगुनी से भी ज्यादा रफ्तार से बढ़ रही है। शहरों की कम से कम 35 प्रतिशत आबादी झोपड़पट्टियों में ही रह रही है। गरीबों के लिए शहर व गाँव दोनों जगह जीवन-स्तर एक जैसा ही होता है। ये महज गाँव की नर्क समान जिंदगी छोड़कर शहर की नर्क समान जिंदगी जीने चले आते हैं।

शहरों के पर्यावरण में भी तेजी से बिगाड़ आया है। विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया है कि भारतीय शहरों की प्रदूषित वायु के कारण प्रति वर्ष 40000 व्यक्ति असामयिक मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। जल प्रदूषण की स्थिति इस बात से समझी जा सकती है कि हमारी नदियाँ सालमें अधिकांश समय विशाल नालों के समान दिखती हैं। ध्वनि प्रदूषण भी शहरों में जीवन-स्तर को खराब कर रहा है। राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के एक सर्वेक्षण के मुताबिक दिल्ली, मुंबई और कोलकाता विश्व के सर्वाधिक शोर-शराबे वाले शहर हैं।

कम ही भारतीय शहर उच्च श्रेणी के शहरी अनुशासन को बनाए रखने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन हाल ही में तो व्यवस्थित नागरिक जीवन के सिद्धांतों की खुल्लम-खुल्ला धज्जियाँ उड़ाई गई हैं। अतिक्रमण और अवैध निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। भूमि व निर्माण माफिया उठ खड़े हुए हैं। शहरी अपराध पहले से अधिक परिष्कृत और चालाकीपूर्ण हो गए हैं। नगर निकायों में भ्रष्टाचार कई गुना बढ़ गया है। शहरों के प्रशासन के लिए सुसंगत, समन्वित तथा जीवंत व्यवस्था की दरकार होती है मगर हमारे शहरों के पास हैं विखंडित, विभंजित और जड़बुद्धि प्राधिकारी, जो किसी भी समस्या से दो-दो हाथ करने में अक्षम हैं।

मध्यप्रदेश में केवल 44 प्रतिशत शहरी घरों को पेयजल, बिजली और सफाई व्यवस्था की सुविधा उपलब्ध है। पन्ना, रीवा और सतना जैसे छोटे शहरों में तो मात्र 30 प्रतिशत घरों में ही ये सुविधाएँ उपलब्ध हैं। भोपाल, इंदौर, ग्वालियर तथा जबलपुर तेजी से मुख्य शहरी केंद्रों तथा अपने-अपने क्षेत्रों के विकास केंद्रों के रूप में विकसित हो रहे हैं। समय की माँग है कि राज्य के सभी शहरों का विस्तार से नियोजन किया जाए और उनके मास्टर प्लान को कड़ाई से लागू किया जाए। जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन के तहत केंद्र से मिलने वाली वित्तीय सहायता का भी कुशलतापूर्वक दोहन किया जाना चाहिए।

आज भारतीय शहरों के समक्ष विकट समस्याएँ खड़ी हैं। इनका प्रभावी तरीके से सामना किया जा सकता है बशर्ते हमारा राष्ट्र स्वस्थ सांस्कृतिक एवं सभ्यतागत संस्कार प्राप्त करे। अंततः राष्ट्र की अंतःप्रेरणा ही तय करती है कि उसके शहर पतन को प्राप्त होंगे या उत्थान को

दर कोई बुलबुला नहीं है। यह कायम रहेगी। यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि आज हम उद्योग के मोर्चे पर जो आधार खड़ा कर चुके हैं, वह टिकाऊ और दीर्घावधि वाला है। हमें संरक्षणवाद के युग से हटकर प्रतिस्पर्धा के युग में प्रवेश करना होगाः देश के भीतर ही नहीं, विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा के युग में। यदि ये परिवर्तन आ जाएँ, तो भारत विश्व और उसकी अर्थव्यवस्था में अपना अर्थपूर्ण योगदान दे सकेगा।