मैंने हमेशा चाहा कि तुम मुझे पुकारो किसी स्नेहिल नाम से लेकिन तुम हमेशा औपचारिकताओं के सुसज्जित, सुव्यवस्थित परिवेश में रहने वाले आत्मीयता की मिठास भला कैसे समझ पाते... शायद फरवरी-मार्च के महीने में एक बार तुमने मुझे एकटक निहारते हुए कह ही दिया था फाल्गुनी....। मैं आज तक उस मीठे से संबोधन को अपने कलेजे के अंतिम कोने में दबाए बैठी हूँ आज जब तुम मेरा नाम भी नहीं लेते होंगे शायद याद भी नहीं करते होंगे ऐसे में फरवरी से लेकर मार्च तक मैं रोज सुबह तुम्हारा वह बरसों पुराना संबोधन उठाकर लाती हूँ कलेजे के अंतिम कोने से और फैला देती हूँ उसे अपने समूचे अस्तित्व पर और महसूसती हूँ फरवरी-मार्च के बीच का वह सुहाना, सुरीला सलोना सा दिन जब तुमने कह ही दिया था फाल्गुनी!!! तब फागुन कितना रंगीन हो गया था! याद है तुम्हें? मुझे याद है हमेशा रहेगा...।