'दो पल का साथ'

दीपालपाटिल

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इंदौर-मुंबसेंट्रअवंतिका एक्सप्रेस कबोगनं. 5 बारातियों से भरी थी। शुभदा भारी बनारसी साड़ी में लिपटी सहमी सी बैठी थी जैसे ही ट्रेन ने इंदौर स्टेशन छोड़ रफ्तार पकड़ ली उसकी आँखों से बहती धाराओं ने भी गति बढ़ा दी। यूँ तो अनु दीदी भी उसके साथ थी पर ये शहर हमेशा के लिए छूटा जा रहा था।

शुभदा की माँ को गुजरे पाँच महीने बीत गए थे। नन्ही इशिता भी अब चार महीने की हो चुकी है। इस डिलेवरी के लिए ही तो अनुपमा भारत आई थी। इसी बीत माँ का देहान्त हो गया। तभी अनुपमा ने शुभदा की शादी कर देने व पिता को अपने साथ एमस्टरडम ले जाने का निर्णय कर लिया।

पेशे से साफ्‍टवेयर इंजीनियर विजित रिश्ते में अनुपमा का चचेरा देवर था। कुछ समय बाद वह भी एमस्टरडम शिफ्ट होने वाला था। सब कुछ अनु का देखा भाला था। शुभदा भी विजित के मम्मी-पापा को पसंद थी पर विजित पाँच साल से फ्लोरिडा में था इसलिए दोनों ने एक-दूसरे को देखा नहीं था।

माँ के गुजरने के बाद शुभदा अनुपमा की जिम्मेदारी हो गई थी। इसलिए वो चाहती थी कि ये रिश्ता हो जाए तो शुभदा हमेशा उसकी आँखों के सामने रहेगी।

सब कुछ इतनी जल्दी हो जाएगा इसकी कल्पना भी शुभदा ने नहीं की थी। विजित पंद्रह दिनों की छुट्‍टी लेकर आया था। शुभदा पसंद आते ही उन्हीं पंद्रह दिनों में शादी की जिद पकड़ ली विजित के मम्मी-पापा ने।

अनुपमा भी यही चाहती थी। जल्द ही तैयारियाँ शुरू हो गईं। शुभदा की खामोशी को सबने माँ की कमी का खलना समझकर नजरअंदाज कर दिया। फिर शुभदा के पास भी कहाँ ऐसा कोई कारण था कि वो इस शादी से इंकार करती।

'शुभदा! क्या देख रही हो बाहर विजित तो अंदर है' - 'विजित की बहन हँसते हुए बोली' रतलाम आते ही खाने के पैकेट्‍स खुल गए थे। विजित भी बहाने से उठकर शुभदा के पास चला आया। उसने जब शुभदा की ओर देखा तो शुभदा की आँखों में अचानक वही अनजाना सा चेहरा उभर आया। उसे लगा कि अभी भी वो यहाँ से गुजर जाए तो उसे पहचानने में पल भर देर न लगेगी उसे।

पहली नजर का प्यार पहले एक सिरफिरी रोमांटिक कल्पना के अलावा कुछ न था शुभदा के लिए। वेलेंटाइन डे लोग क्यूँ मनाते हैं इतने उपहार क्यों खरीदतहैं उसे समझ में ही नहीं आता था।

एमएससी का आखिरी पेपर देकर नेट की तैयारी शुरू कर दी थी उसने। पर एक ही दिन में उसकी जिंदगी बदल गई थी। माँ को नींद में ही दिल का दौरा पड़ा और फिर वो कभी नहीं उठी। अनु दी की डिलेवरी नजदीक ही थी। तेरहवीं तक रुककर उसकी सास ने उसे अपने साथ मुंबई ले जाना ही ठीक समझा।

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थोड़े समय बाद ही शुभदा एक प्यारी सी भांजी की मौसी बन गई। रोहित के एम्स्टरडम से आते ही उसका नामकरण था। इसी नामकरण में जाने के लिए ही तो शुभदा पिछली बार इस ट्रेन में सवार हुई थी 20 दिन पहले की बात है मगर लगता है एक युग बीत गया।

एक ठंडी साँस लेकर शुभदा ने ट्रेन के अंदर झाँका। बारातियों का शोर थमने लगा था। सब सोने की तैयारी में थे। शुभदा की आँखों में नींद नहीं थी, था तो वह 20 दिन पुराना सफर जो पूरी तरह अतीत नहीं हुआ था।

वह सफर माँ की यादों से भरा था। न उसे किसी से बात करने का मन था न बाहर कुछ देखने का। नींद भी ठीक से नहीं आई थी। सुबह पाँच बजे से ही मुंबई शुरू हो चुकी थी अपने दिनभर के सफर के लिए। रात का अँधेरा ऊँची इमारतों, फ्लायओवरों पर जलती स्ट्रीट लाइटों की रोशनी में घुला जा रहा था।

लोगों ने बर्थ के नीचे से अपना सामान निकालना शुरू कर दिया था। विरार...नाला सोपारा... वसई ... एक-एक स्टेशन तेजी से पीछे छूटता जा रहा था।

शुभदा भी उठ गई थी। फ्रेश होने के लिए जा रही थी कि सामान दरवाजे तक लाने के लिए धक्कामुक्की कर रहे लोगों को साइड देने के लिए एक कम्पार्टमेंट में थोड़ा अंदर मिडिल बर्थ पकड़ कर खड़ी हो गई।

उस बर्थ पर सोया हुआ व्यक्ति उठने की तैयारी में था शायद। उसका हाथ शुभदा के हाथ पर पड़ा अचानक ही और वह हड़बड़ाकर मुँह पर से चादर हटाते हुए उठकर बैठने लगा। और उसका सिर बर्थ से जा टकरायाशुभदा ने एक नजर उसे देखा और उसे हँसी आ गई। वह भी झेंप मिटाने के‍ लिए मुस्कुरा दिया।

बोरीवली में शुभदा को भी उतरना था। अत: औरों की तरह वह भी दरवाजे के पास वाली बर्थ पर आ बैठी। नीली ‍जर्किन पहने भरी कद-काठी का वह साँवला सा लड़का भी दरवाजे के बीच आकर खड़ा हो गया। वह कनखियों से कभी शुभदा को देखता तो कभी बाहर।

शुभदा को भी समझ में नहीं आ रहा था कि फास्ट लोकल के धड़धड़ करते हुए इतने पासे गुजर जाने पर उसकी धड़कन तेज हो जाती है या उस युवक के इस तरह देखने से।

बोरीवली आते ही गाड़ी प्लेटफार्म नं. 6 पर जाकर धीमी हो गई। बाहर खड़े लोग अपनरिश्तेदारों को ढूँढ़ते हुए उनकी बोगियों की तरफ दौड़ रहे थे। वह भी दादा कहकर किसको आवाज देते हुए हाथ हिला रहा था। गाड़ी भी रुक गई थी।

लोगों की धक्कामुक्की में वह भी ट्रेन से उतर गया। और उसका सामान अंदर ही रह गया। शुभदा ने अपने सामान के साथ धकेलकर उसका सामान दरवाजे तक ला पहुँचाया। गाड़ी ने व्हिसील दी। पीछे से धक्का लगा और घबराहट में शुभदा के हाथ से गाड़ी का हैंडिल छूट गया और सीढ़ियों से उसका पैर फिसल गया।

शुभदा का हाथ थामकर उस लड़के ने उसे गिरने से तो बचा लिया पर फिर भी किसी सामान से टकराकर उसके पैर में चोट लग गई थी। उसने शुभदा को एक तरफ खड़ा कर दिया
'आप यहीं रुकिए मैं कुछ लेकर आता हूँ' कहकर पीछे से आकर उसने बैग उठा लिए'
'जीजू वो.... शुभदा ने पैर के अँगूठे की तरफ इशारा कर दिया।
ओह... चलो गाड़ी में फर्स्ट एड बॉक्स है कहकर रोहित आगे बढ़ गए।
मजबूरी में शुभदा को भी कदम बढ़ाने पड़े। स्टेशन से निकलकर कार में बैठने तक भी शुभदा की नजरें उसे ही ढूँढ रही थी। उसने शुभदा को ढूँढा होगा क्या, उसका सामान भी तो वहीं था।

उसे अपने आप पर गुस्सा भी आया कि उसने उस लड़के का इंतजार क्यों नहीं किया। रोहित से कुछ कहा क्यों नहीं उसकी आँखों से आँसू बह निकले।

रुक भी जाती तो क्या हो जाता, उन दो पलों में। क्या जरूरी है कि जो शुभदा के दिल में है वही उसके दिल में भी हो। फिर भी उसके हाथ का जो स्पर्श शुभदा के दिल को छू गया था, उसकी आँखों में जो अपनापन था उससे शायद वह अपने को अलग नहीं कर पा रही थी।

गेटवे ऑफ इंडिया, महालक्ष्मी जहाँ भी जाती उसे लगता एक बार वो मिल जाए। पहली बार उसे लगा कि उसके साथ वेलेंटाइन डे मनाना कितना रोमांटिक होगा। उस अजनबी के साथ जिंदगी बिताना कितना सुखद होगा।

इशिता के नामकरण के साथ ही दोनों परिवारों में विजित और शुभदा की शादी को लेकर चर्चा चलने लगी थी। विजित के आते ही सब तय हो गया। शुभदा भी क्या कहकर इंकार करती। अनु दी बहुत पीछे पड़तीं विजित के साथ जाकर नया फ्‍लैट देखकर आ।'

पर यहाँ कहाँ हमेशा रहना है देख लूँगी कभी यह कहकर वह विजित के साथ घूमने से बचती।

'शुभदा उठ बोरीवली आने वाला है' अनु दी उसे उठा रही थी' जाने कब उसकी आँख लग गई थी। उस दिन की तरह आज भी ट्रेन रुकी थी बोरीवली, पर आज शुभदा को सेंट्रल तक जाना था।

मुंबई सेंट्रल आते ही मेहमान व सामान कार से रवाना हो गए। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ आगे की रस्मों पर विचार कर रही थीं। कुछ तैयारियाँ बाकी थीं इसलिए शुभदा गृह प्रवेश नहीं कर सकती थी। अत: उसे सामने वाले फ्लैट में एक-दो घंटे रुकना था।

विजित ने जैसे ही बेल बजाई दरवाजा खोलने वाले व्यक्ति को देखकर शुभदा के पैर लड़खड़ा गए। दरवाजे की चौखट थामकर वह वहीं खड़ी हो गई। वह भी हतप्रभ सा उसे देख रहा था।

'शुभदा ये आराध्य है मेरा पड़ोसी है और कॉलेज का फ्रेंड भी। हमारी शादी में नहीं आ सका क्योंकि 20 दिन पहले स्टेशन पर किसी लड़की को ढूँढते हुए सामान से भरी ट्राली से जा टकराया। लड़की तो मिली नहीं हाथ भी फ्रेक्चर हो गया। - 'विजित हँसते हुए बोला।

हाँ, उसको दुल्हन बनाकर इस घर में लाने का सपना एक बार मैंने भी देखा था। पर प्यार का मतलब सिर्फ पाना नहीं होता दोस्त वह जहाँ भी रहे खुश रहे कहकर उसने अपना बायाँ हाथ विजित की तरफ बढ़ा दिया, उसके दाएँ हाथ में फ्रेक्चर था।
शुभदा को अंदर आने के लिए कहकर वह एक तरफ हो गया। दुल्हन के रूप में अंदर कदम रखती शुभदा से उसकी आँखों की भीगी कोरें छुपन रह सकी।

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