नक्सली आतंक पर सैन्य कार्रवाई

नक्सली आतंकवादी कोबाद गाँधी को गिरफ्तार किए जाने की आलोचना कर रहे कुछ प्रगतिशील संपादक और एक्टिविस्ट झारखंड में एक साधारण पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इंदवार का गला काटे जाने पर चुप हैं।

फ्रांसिस दिल्ली में नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले कई प्रगतिशील लोगों से दस गुना अधिक गरीब और कमजोर था। उसे सरकारी बाबूगिरी के चक्कर में पिछले 6 महीनों से तनख्वाह तक नहीं मिली थी। उसके परिवार में मातम चल ही रहा था कि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में सक्रिय नक्सलियों ने सुरेश अलामी नाम के एक निरीह व्यक्ति का सिर धड़ से अलग कर दिया और 40 पुलिसकर्मियों को भून दिया।

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मानव अधिकारों के नाम पर हिंसक अपराधियों, नक्सलियों और तालिबानी आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वालों की आँखों में शर्म के आँसू भी नहीं दिखाई देते। दो सप्ताह पहले ही गृहमंत्री पी. चिदंबरम के साथ वरिष्ठ संपादकों की बातचीत और दो-तीन टीवी इंटरव्यू के दौरान बार-बार सवाल उठाए गए कि "क्या सरकार नक्सलियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ना चाहती है।

चिदंबरम नाजुक मसले पर 'युद्ध' शब्द का प्रयोग करने से बचते रहे और नक्सल प्रभावित इलाकों में हिंसा रोकने के लिए हरसंभव पुलिस और अर्द्धसैनिक बल तैनाती पर जोर देते रहे। सरकार यह भी मानती रही है कि सीमा पार से घुसपैठ करने वाले आतंकवादियों और आठ राज्यों के करीब 180 जिलों में हिंसक तरीकों से तबाही मचा रहे नक्सलियों से निपटने के तरीके भिन्न हैं।

सीमा पर आतंकवादियों को रोकने और उनसे निपटने के लिए सेना सक्षम है, जबकि राज्यों में तालिबानी शैली में छोटे-छोटे गाँवों और जंगलों पर कब्जा किए हिंसक तत्वों को निकालकर जनजीवन सामान्य बनाना तथा विकास प्रक्रिया को बढ़ाना कठिन होता गया है।

नक्सलवादी हिंसा का सिलसिला यों 1967 से चल रहा है। करीब एक दशक तक पश्चिम बंगाल और आसपास के क्षेत्रों में उसका प्रभाव बढ़ा और सिद्धार्थ शंकर रे की बेहद कड़ी कार्रवाई ने इसे कुछ ठंडा कर दिया था, लेकिन पिछले 12-15 वर्षों में यह आग कई राज्यों में फैल गई।

छत्तीसगढ़, आंध्र, उड़ीसा, झारखंड जैसे राज्यों के कुछ जिलों में नागरिक प्रशासन की बात तो दूर रही, सरकारी सेवा का कोई शिक्षक, डॉक्टर, कंपाउंडर, नर्स, इंजीनियर और पटवारी तक नहीं घुस पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों में आर्थिक विकास न होने का तर्क देना अपने को धोखे में रखने जैसा है।

नक्सलवादी हिंसा का सिलसिला यों 1967 से चल रहा है। करीब एक दशक तक पश्चिम बंगाल और आसपास के क्षेत्रों में उसका प्रभाव बढ़ा और सिद्धार्थ शंकर रे की बेहद कड़ी कार्रवाई ने इसे कुछ ठंडा कर दिया था, लेकिन पिछले 12-15 वर्षों में यह आग कई राज्यों में फैल गई।
कतिपय प्रगतिशील लोगों की दलील रहती है कि पहले सामंती व्यवस्था और फिर प्रशासन व पुलिस की ज्यादतियों से ही नक्सलियों को इन क्षेत्रों में प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिला। फिर इन इलाकों के जंगलों में उद्योग-धंधे लगने से गरीबों का शोषण बढ़ेगा और उनकी संस्कृति नष्ट होगी। पहला मुद्दा कुछ क्षेत्रों में गड़बड़ियों और ज्यादतियों का है।

पुलिस ज्यादतियाँ तो दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में भी होती रहती हैं, लेकिन इस वजह से क्या सब थाने और पुलिस हटा दिए जाएँ? स्कूल-कॉलेज में अनियमितताएँ और गड़बड़ियाँ हों, तो क्या सारे शिक्षक बर्खास्त कर संस्थाएँ बंद कर दी जाएँ? अत्याचार मुगल या ब्रिटिश राज में हुए, तो क्या अब प्रजातांत्रिक व्यवस्था से किसी को राज चलाने की जिम्मेदारी नहीं दी जाए?

यदि 180 जिलों में कभी 500 अधिकारी बेईमान और जुल्म करने वाले रहे हों, तो क्या आज उनसे बेहतर और ईमानदार पाँच हजार युवा अधिकारी-कर्मचारी समाज में नहीं मिलते? भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं के रहते हुए देश में संघर्षशील सरकारी शिक्षकों, डॉक्टरों, अभियंताओं, न्यायाधीशों, कर्मचारियों की संख्या अच्छी-खासी है। सब बेईमान और अत्याचारी नहीं है। तभी तो देश चल रहा है।

तथाकथित प्रगतिशील लोग जरा याद करें कि नक्सली गुट 45 साल पहले कंबोडिया के तानाशाह पोल पोट द्वारा किए गए हिंसक विद्रोह की तर्ज पर 'लाल क्रांति' के पक्षधर रहे हैं। भारत में ऐसी क्रांति की जरूरत नहीं है, क्योंकि अब साठ-सत्तर करोड़ लोग वोट डालकर जब चाहें सत्ता बदल लेते हैं।

पिछले आम चुनावों ने कश्मीर से कन्याकुमारी और पूर्वोत्तर क्षेत्रों तक यह साबित कर दिया है कि जनता किसी भी शक्तिशाली सरकार, पार्टी और नेता को हटा सकती है। दूसरी तरफ देश के डेढ़ सौ से अधिक जिलों के पचासों गाँवों के भोले-भाले गरीब माओवादी (नक्सल) गुटों के आतंक में अधिक पिछड़ेपन और कष्टकारी परिस्थितियों से जूझ रहे हैं।

लगभग 20 हजार नक्सली आतंकवादियों ने भारतीय लोकतंत्र, संविधान और जनता पर हमला बोल रखा है, जबकि लोकतंत्र के नाम पर कुछ संगठन, पार्टियाँ तथा मुठ्ठीभर बुद्धिजीवी देश के दुश्मन तालिबानी शैली में नृशंस हत्या करने वालों के साथ बेहद नरम रुख अपनाने का दबाव बनाए हुए हैं। वे इन क्षेत्रों में विकास तथा नक्सली गुटों के साथ वार्ता की दुहाई देते हैं, लेकिन गृहमंत्री चिदंबरम या प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह का यह दावा सही है कि नक्सलियों के हथियार डाले बिना किस तरह का संवाद हो सकता है।

झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में जिस तरह का आतंक नक्सलियों ने फैलाया है, उतना जम्मू-कश्मीर या अफगानिस्तान के इलाकों में भी नहीं है। ऐसी स्थिति में सरकार को युद्ध की तरह सीधी कार्रवाई से संकोच क्यों करना चाहिए?
इसी तरह जब सरकारी प्रशासनिक तंत्र को किसी भी रूप में इन क्षेत्रों में काम करने के लिए घुसने की व्यवस्था नहीं होगी, तब किसी भी तरह का आर्थिक विकास कैसे होगा? इंजीनियर और कारीगर जाए बिना कौन-सा स्कूल या अस्पताल बन सकेगा? सड़क और पुल के साथ गरीबों के लिए मकान बनाने या इस क्षेत्र की वनोपज की बिक्री अथवा अति पिछड़ों को मुफ्त खाद्यान्न देने की व्यवस्था भी कैसे संभव होगी?

इस दृष्टि से अब केंद्र सरकार राज्यों की पुलिस के साथ 30 हजार सुरक्षा बलों को लगाने की तैयारी कर रही है। इन सुरक्षा बलों पर नक्सलियों के गोला-बारूद वाले घातक हमलों से बचाव के लिए वायुसेना के सहयोग के प्रस्ताव पर भी गंभीरता से विचार हुआ है। वायुसेना के अधिकारियों की यह माँग उचित ही है कि यदि उनके हेलिकॉप्टरों पर नीचे से हमला होता है तो बचाव में उन्हें भी जवाबी कार्रवाई की अनुमति होना चाहिए।

झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में जिस तरह का आतंक नक्सलियों ने फैलाया है, उतना जम्मू-कश्मीर या अफगानिस्तान के इलाकों में भी नहीं है। ऐसी स्थिति में सरकार को युद्ध की तरह सीधी कार्रवाई से संकोच क्यों करना चाहिए? भले ही आंतरिक मामला होने के कारण इसके लिए युद्ध शब्द का इस्तेमाल न हो।

पड़ोसी देश श्रीलंका की सरकार ने पिछले महीनों के दौरान बड़ी सैनिक कार्रवाई से लिट्टे आतंकवादियों की पूरी जमीन साफ कर दी। भारत सरकार और सेना क्या कुछ हजार नक्सलियों को हथियार डालने पर बाध्य नहीं कर सकती? आखिरकार, धार्मिक कट्टरपंथी तालिबानी हिंसा को भारत का कोई प्रगतिशील उचित नहीं कहताष फिर गला काटू नक्सली हिंसा को क्या जायज मानता है? किसानों की जमीन हड़पना, लोगों का अपहरण, घिनौने न्याय के नाम पर दस अपराधियों की अदालत बना निहत्थे लोगों के नाक-कान, हाथ-पैर, गला काटने या सामूहिक नरसंहार करने वालों से क्या आतंकवादियों की तरह नहीं निपटना चाहिए?

बहरहाल, लोकतंत्र में यह संभव है कि हजारों हत्याएँ कर चुके नक्सलियों द्वारा हथियार डालने पर विशेष अदालतें बनाकर कानूनी कार्रवाई हो और उन्हें उचित दंड मिले। कानून और एक सामाजिक-रानजीतिक व्यवस्था के बिना किसी देश का विकास नहीं हो सकता। राष्ट्र और लोकतंत्र की रक्षा के लिए हर तरह के आतंकवादी गिरोह से युद्ध जरूरी है।

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