सच चाहे किसी भी धर्म के बारे में हो, उसे स्वीकार करने में उक्त धर्म के अनुयायियों को बहुत कठिनाई होती है। आज का दौर धार्मिक कट्टरता का दौर है ऐसे में सभी अपने अपने कुएं में बंद हैं। कोई भी सच को जानना नहीं चाहता, क्योंकि इससे उसके जीवन के अब तक बनाए गए आधार गिरते हैं। वह खुद को असहाय महसूस करते हैं और इस तरह उनमें दूसरे धर्म के अनुयायियों के प्रति नफरत का जन्म होता है। क्योंकि बचपन से जो अब तक उन्होंने सीखा, वह कैसे गलत हो सकता है? सच में वही व्यक्ति धार्मिक है, जो किसी धर्म से बंधा नहीं होकर सत्य से बंधा है। जिसमें विचार करने और समझने की क्षमता है वहीं मनुष्यों में श्रेष्ठ है।
जीसस का नाम जीसस क्यों है? क्राइस्ट का नाम क्राइस्ट क्यों है? यीशु का नाम यीशु क्यों है? ईसा मसीह क्यों है? और यह नाम किसने व कब रखे? आप कुछ भी कहानी गढ़ सकते हैं। तर्क का काम होता है सही को गलत और गलत को सही सिद्ध करना। लेकिन हम यहां तथ्यों की बात करेंगे कुतर्कों की नहीं।
ईसा मसीह ने 13 साल से 30 साल की उम्र के मध्य में क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने येरुशलम में यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुंचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।
रविवार को यीशु ने येरुशलम में प्रवेश किया था। इस दिन को 'पाम संडे' कहते हैं। शुक्रवार को उन्हें सूली दी गई थी इसलिए इसे 'गुड फ्रायडे' कहते हैं और रविवार के दिन सिर्फ एक स्त्री (मेरी मेग्दलेन) ने उन्हें उनकी कब्र के पास जीवित देखा। जीवित देखे जाने की इस घटना को 'ईस्टर' के रूप में मनाया जाता है। उसके बाद यीशु कभी भी यहूदी राज्य में नजर नहीं आए। कुछ लोग कह सकते हैं कि उन्हें और भी लोगों ने देखा था, तो कोई बात नहीं देखा होगा।
जब ईसा मसीह थे तब संपूर्ण विश्व में बौद्ध धर्म अपने चरम पर था। उत्तरी ईरान, उत्तरी अफगानिस्तान, उत्तरी पाकिस्तान, भारत (कश्मीर, बिहार, मध्यप्रदेश, पूर्वोत्तर के राज्य), तिब्बत, चीन, श्रीलंका, बर्मा, ल्हासा आदि सभी जगह बौद्धों के बड़े-बड़े धर्म स्थल, मठ, स्तूप और रहस्यमयी गुफाएं थी। उस काल में प्रत्येक विद्वान, बुद्धिवादी, संत आदि सभी बुद्ध की प्रज्ञा और उनके प्रभाव से बच नहीं पाए थे। उनके वैचारिक और आध्यात्मिक विस्फोट के चलते दुनिया में नए-नए धर्मों की उत्पत्ति का मार्ग खुल गया था। ईसाई धर्म पर बौद्ध और हिन्दू धर्म की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
बाइबिल के बाद ईसा मसीह का जिक्र भविष्य पुराण में मिलता है। भविष्य पुराण कब लिखा गया इस पर विवाद हो सकता है, पर यह तो तय है कि इसे ईसा मसीह के बाद लिखा गया था। यह संभवत: मध्यकाल में लिखा गया होगा। इसमें हिमालय क्षेत्र में ईसा मसीह की मुलाकात उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के पौत्र से होने का छोटा-सा वर्णन मिलता है। इससे यह भी तय हो गया कि विक्रमादित्य के पौत्र के बाद या उसके काल में लिखा गया होगा। हिन्दू लोग भले ही कहते रहे हैं कि इसे वेद व्यास ने लिखा था, लेकिन सच तो सच ही होता है।
इसके बाद एक ईसाई ने किया जब शोध...
क्या कृष्ण भक्त थे यीशु : लुईस जेकोलियत (Louis Jacolliot) ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाइबिल इन इंडिया' (The Bible in India, or the Life of Jezeus Christna) में लिखा है कि जीसस क्रिस्ट और भगवान श्रीकृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राइस्ट पर एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। 'जीसस' शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राइस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है। इसका संस्कृत में अर्थ होता है 'मूल तत्व'।
इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राइस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है, हालांकि उन्होंने कृष्ण की जगह क्रिसना शब्द का इस्तेमाल किया। भारत में गांवों में कृष्ण को क्रिसना ही कहा जाता है। यह क्रिसना ही योरप में क्राइस्ट और ख्रिस्तान हो गया। बाद में यही क्रिश्चियन हो गया। लुईस के अनुसार ईसा मसीह अपने भारत भ्रमण के दौरान जगन्नाथ के मंदिर में रुके थे।
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निकोलस नोतोविच का शोध : एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्घ आश्रम में रखी पुस्तक 'द लाइफ ऑफ संत ईसा' पर आधारित फ्रेंच भाषा में 'द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट' नामक पुस्तक लिखी है।
हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थित है। किताब के अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहां रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा।
1887 में निकोलस नातोविच ने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाइफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि जीसस ने अपने जीवन के 17-18 वर्ष भारत में बिताए अर्थात अपनी उम्र के 13 साल से 30 वर्ष। उस वक्त जीसस प्राचीन व्यापारिक मार्ग 'सिल्क रूट' से भारत आए थे।
30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुंचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।
इससे पहले वे जब येरुशलम जा रहे थे तब रास्ते में पर्सिया यानी वर्तमान ईरान में रुके। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया।
18 वर्ष उन्होंने भारत के काश्मीर और लद्दाख के हिन्दू और बौद्ध आश्रमों में रहकर बौद्घ एवं हिन्दू धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का गहन अध्ययन किया। निकोलस लिखते हैं कि वे लद्दाख के बौद्ध हेमिस मठ में रुके थे। वहां उन्होंने ध्यान साधना की। अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था।
निकोलस अपनी किताब में यहां तक लिखते हैं कि सूली पर चढ़ाए जाने के बाद यह माना गया कि ईसा की मौत हो गई है लेकिन असलियत यह है कि ईसा सूली पर चढ़ाए जाने के बाद भी जीवित रह गए थे।
सूली पर चढ़ाए जाने के 3 दिन बाद ये अपने परिवार और मां मैरी के साथ तिब्बत के रास्ते भारत आ गए। भारत में श्रीनगर के पुराने इलाके को इन्होंने अपना ठिकाना बनाया। 80 साल की उम्र में जीसस क्राइस्ट की मृत्यु हुई। उन्हें वहीं दफना दिया गया और उनकी कब्र आज भी वहीं पर है। लोग इस पर विश्वास करे या न करें लेकिन यह सूरज के दिखने जैसा सत्य है।
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लातोविच ने तिब्बत के मठों में ईसा से जुड़ी ताड़ पत्रों पर अंकित दुर्लभ पांडुलिपियों का दुभाषिए की मदद से अनुवाद किया जिसमें लिखा था, 'सुदूर देश इसराइल में ईसा मसीह नाम के दिव्य बच्चे का जन्म हुआ। 13-14 वर्ष की आयु में वो व्यापारियों के साथ हिन्दुस्तान आ गया तथा सिंध प्रांत में रुककर बुद्ध की शिक्षाओं का अध्ययन किया। फिर वो पंजाब की यात्रा पर निकल गया और वहां के जैन संतों के साथ समय व्यतीत किया। इसके बाद जगन्नाथपुरी पहुंचा, जहां के पुरोहितों ने उसका भव्य स्वागत किया। वह वहां 6 वर्ष रहा। वहां रहकर उसने वेद और मनु स्मृति का अपनी भाषा में अनुवाद किया।'
वहां से निकलकर वो राजगीर, बनारस समेत कई और तीर्थों का भ्रमण करते हुए नेपाल के हिमालय की तराई में चला गया और वहां जाकर बौद्ध ग्रंथों तथा तंत्रशास्त्र का अध्ययन किया फिर पर्शिया आदि कई मुल्कों की यात्रा करते हुए वह अपने वतन लौट गया।
लातोविच के बाद रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी अभेदानंद ने 1922 में लद्दाख के होमिज मिनिस्ट्री का भ्रमण किया और उन साक्ष्यों का अवलोकन किया जिससें हजरत ईसा के भारत आने का वर्णन मिलता है और इन शास्त्रों के अवलोकन के पश्चात उन्होंने भी लातोविच की तरह ईसा के भारत आगमन की पुष्टि की और बाद में अपने इस खोज को बांग्ला भाषा में 'तिब्बत ओ काश्मीर भ्रमण' नाम से प्रकाशित करवाया।
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मिर्जा गुलाम अहमद कादियान का शोध : लुईस जेकोलियत और निकोलस नातोविच के शोध के बाद पाकिस्तान के आध्यात्मिक गुरु मिर्जा गुलाम अहमद ने इस पर गहन शोध किया। उनके अनुसार ईसा मसीह 120 वर्ष तक जीए और कश्मीर के रौजाबल में उनकी कब्र है। कादियान के अनुसार ईसा मसीह यूज आसफ (शिफा देने वाला) नाम से यहां रहते थे। इसके लिए उन्होंने कई पुख्ता दलीलें पेश कीं। अपने तमाम शोधों को पुख्ता प्रमाणों के साथ उन्होंने 'मसीह हिन्दुस्तान' नाम से लिखी अपनी किताब में लिपिबद्ध किया है।
अहमद कादियान को मानने वालों को अहमदिया मुसलमान कहते हैं। आजकल पाकिस्तान में इनका कत्लेआम किया जा रहा है, क्योंकि ये परंपरागत बातों से हटकर धर्म को नए रूप में देखते हैं। लाखों अहमदी मुसलमानों को भागकर चीन की शरण में जाना पड़ा है।
सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आए। यह अपने योग बल से भारत आ गए और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया।
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कश्मीरी विद्वानों का मत : कश्मीरी विद्वानों के अनुसार ईस्वी सन् 80 में कश्मीर के कुंडलवन में हुए चतुर्थ बौद्ध संगीति में ईसा ने भी हिस्सा लिया था। (श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार के खंडहर हैं, मान्यता है कि इसी स्थान पर हुए उक्त बौद्ध महासंगीति में हजरत ईसा ने भाग लिया था।)
हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थित है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहां रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। यहाँ से शिक्षा लेकर वे जेरूसलम पहुंचे और वहां वे धर्मगुरु तथा इसराइल के मसीहा या रक्षक बन गए।
पहली बार हुआ विवाद : सिंगापुर स्पाइस एयरजेट की एक पत्रिका में इसी बात की चर्चा की गई थी कि यीशु को जब क्रूस पर चढ़ाने के लिए लाया जा रहा था तब वे क्रूस से बचकर भाग निकले और कश्मीर पहुंचे और बाद में वहां उनकी मृत्यु हो गई। उनका मकबरा कश्मीर के रौजाबल नामक स्थान में है।
कैथोलिक सेकुलर फोरम नामक एक संस्था ने इस खबर का कड़ा विरोध किया। भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में इस पत्रिका के खिलाफ प्रदर्शन भी हुआ। विरोध के बाद स्पाइस एयरजेट के डायरेक्टर अजय सिंह ने माफी मांगी और कहा कि पत्रिका की करीब 20 हजार प्रतियों का वितरण तुरंत बन्द कर दिया गया है।
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मेहर बाबा (मेरवान एस. ईरानी) का वक्तव्य : पारसी परिवार में जन्में मेहर बाबा को एक रहस्यमयी और चमत्कारिक संत माना जाता है। 30 वर्षों तक मेहर बाबा मौन रहे और मौन में ही उन्होंने देह त्याग दी। उन्होंने एक किताब लिखी जिसका नाम 'गॉड स्पीक' है। मेहर बाबा अनुसार ईसा मसीह सूली से बच गए थे। उन्होंने भारत में रहकर तप साधना की थी। जिसके माध्यम से उन्होंने सूली पर निर्विकल्प समाधी लगा ली थी। इस समाधी में व्यक्ति 3 दिन तक मृत समान रहता है। बाद में उसकी चेतना लौट आती है और उसके अंग-प्रत्यंग फिर से कार्य करने लगते हैं। आमतौर पर बहुत ज्यादा बर्फिले इलाके में भालू ऐसा करते हैं। समाधी से जागने के बाद ईसा मसीह फिर से भारत आ गए थे। यहां आकर उन्होंने रंगून की यात्रा की फिर पुन: भारत लौटकर उन्होंने अपना बाकी जीवन नार्थ कश्मीर में ही बिताया।
मेहर बाबा की बातों का अभयानंद, सत्यसाईंबाबा, शंकराचार्य, आदि ने समर्थन किया। फिदा हसनैन, अजीज कश्मीरी, जेम्स डियरडोफ, मंतोशे देवजी आदि ने भी माना है कि कश्मीर के रौजाबल में जो कब्र है वह ईसा मसीह की ही है। खैस, कोई ईसाई इसे नहीं मानता है तो यह एक ऐतिहासिक और पवित्र स्थल को खो देने की बात होगी। नहीं मानने का कोई तो ठोस कारण होना चाहिए?
जर्मन विद्वान होल्गर कर्स्टन का शोध...
होल्गर कर्स्टन : एक जर्मन विद्वान होल्गर कर्स्टन ने 1981 में अपने गहन अनुसन्धान के आधार पर एक पुस्तक लिखी 'जीसस लिव्ड इन इण्डिया: हिज लाइफ बिफोर एंड ऑफ्टर क्रूसिफिक्शन' में ये सिद्ध करने का प्रयास किया कि जीसस ख्रीस्त ने भारत में रहकर ही बुद्ध धर्म में दीक्षा ग्रहण की और वे एक बौद्ध थे।
उन्होंने बौद्धमठ में रहकर तप-योग ध्यान साधना आदि किया। इस योग साधना के कारण ही क्रॉस पर उनका जीवन बच गया था जिसके बाद वो पुनः अपने अनुयायियों की सहायता से भारत आ गए थे और लदाख में हेमिस गुम्फा नामक बौद्ध मठ में रहे। बाद में श्रीनगर में उनका वृद्धवस्था में देहांत हुआ। वहां आज भी उनकी मजार है।
तिब्बत में ल्हासा में दलाई लामा के पोटाला पेलेस में एक दो हजार वर्ष पुराना हस्त लिखित ग्रंथ था जिसमें ईसा मसीह की तिब्बत यात्रा का विवरण दर्ज था। इसको यूरोप के कुछ पादरियों ने तिब्बत भ्रमण के समय देखा था और उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी, लेकिन प्रकाशित होने से पूर्व ही पोप को पता चल गया और तब उस पुस्तक की सभी प्रतियां नष्ट करा दी गयीं।-कादम्बिनी अगस्त 1995.
लॉस एंजिलिस निवासीफिलिप गोल्ड़बर्ग का एक व्याख्यान टूर भारत में आयोजित किया गया था उन्होंने ‘अमेरिकन वेद’ सहित उन्नीस पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने बताया की आज अमेरिकावासी नाम के लिए ईसाई हैं जबकि व्यव्हार में बहुलवादी वेदांत को अपना चुके हैं। चर्च ने सत्य को छुपाने के अनेक उपाय किए।
अगले पन्ने पर, ओशो ने क्या कहा इस विषय पर...
कश्मीर में उनकी समाधि को बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई थी। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को 'रौजाबल' के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहां ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।
आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर हैं जहाँ यह सम्मेलन हुआ था।
पहलगाव था पहला पड़ाव : पहलगाम का अर्थ होता है गडेरियों का गाँव। जबलपुर के पास एक गाँव है गाडरवारा, उसका अर्थ भी यही है और दोनों ही जगह से ईसा मसीह का संबंध रहा है। ईसा मसीह खुद एक गडेरिए थे। ईसा मसीह का पहला पड़ाव पहलगाम था। पहलगाम को खानाबदोशों के गाँव के रूप में जाना जाता है। बाहर से आने वाले लोग अक्सर यहीं रुकते थे। उनका पहला पड़ाव यही होता था। अनंतनाग जिले में बसा पहलगाम, श्रीनगर से लगभग 96 कि.मी. दूर है।
पहलगाम चारों तरफ पहाड़ों से घिरा है। यहां की सुंदरता और प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। यहां के पहाड़ों के दर्रों से पाक अधिकृत कश्मीर या तिब्बत के रास्ते जाया जा सकता है। इसके आसपास बर्फीले इलाके की श्रृंखलाबद्ध पहाड़ियां है। यही से बाबा अमरनाथ की गुफा की यात्रा शुरू होती है। मान्यता है कि ईसा मसीह ने यही पर प्राण त्यागे थे और ओशो की एक किताब 'गोल्डन चाइल्ड हुड' अनुसार मूसा यानी यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी यहीं पर प्राण त्यागे थे। दोनों की असली कब्र यहीं पर है।
'पहलगाम एक छोटा-सा गांव है, जहां पर कुछ एक झोपड़ियां हैं। इसके सौंदर्य के कारण जीसस ने इसको चुना होगा। जीसस ने जिस स्थान को चुना वह मुझे भी बहुत प्रिय है। मैंने जीसस की कब्र को कश्मीर में देखा है। इसराइल से बाहर कश्मीर ही एक ऐसा स्थान था जहां पर वे शांति से रह सकते थे। क्योंकि वह एक छोटा इसराइल था। यहां पर केवल जीसस ही नहीं मोजेज भी दफनाए गए थे। मैंने उनकी कब्र को भी देखा है। कश्मीर आते समय दूसरे यहूदी मोजेज से यह बार-बार पूछ रहे थे कि हमारा खोया हुआ कबिला कहां है (यहूदियों के 10 कबिलों में से एक कबिला कश्मीर में बस गया था)।
यह बहुत अच्छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी है। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्तु दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्का की ओर होता है। केवल वे दोनों कब्रें ही कश्मीर में ऐसी है जो मुसलमान नियमों के अनुसार नहीं बनाई गई।'- ओशो
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ईसा का नामकरण : यीशु पर लिखी किताब के लेखक स्वामी परमहंस योगानंद ने दावा किया गया है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुंचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुंचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम 'ईसा' रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ 'भगवान' होता है।
एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें 'ईशा' नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालांकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम 'ईश उपनिषद' है। 'ईश' या 'ईशान' शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है।
कुछ विद्वान मानते हैं कि ईसा इब्रानी शब्द येशुआ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है होता है मुक्तिदाता। और मसीह शब्द को हिंदी शब्दकोश के अनुसार अभिषिक्त मानते हैं, अर्थात यूनानी भाषा में खीस्तोस। इसीलिए पश्चिम में उन्हें यीशु ख्रीस्त कहा जाता है। कुछ विद्वानों अनुसार संस्कृत शब्द 'ईशस्' ही जीसस हो गया। यहूदी इसी को इशाक कहते हैं।
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द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट : स्वामी परमहंस योगानंद की किताब 'द सेकंड कमिंग ऑफ क्राइस्ट: द रिसरेक्शन ऑफ क्राइस्ट विदिन यू' में यह दावा किया गया है कि प्रभु यीशु ने भारत में कई वर्ष बिताएं और यहां योग तथा ध्यान साधना की। इस पुस्तक में यह भी दावा किया गया है कि 13 से 30 वर्ष की अपनी उम्र के बीच ईसा मसीह ने भारतीय ज्ञान दर्शन और योग का गहन अध्ययन व अभ्यास किया।
उक्त सभी शोध को लेकर 'लॉस एंजिल्स टाइम्स' में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हो चुकी है। 'द गार्जियन' में भी स्वामीजी की पुस्तक के संबंध में छप चुका है।
अगले पन्ने पर सेंट थॉमस...
सूली के बाद ही उनके शिष्य ईसा की वाणी लेकर 50 ईस्वी में हिन्दुस्तान आए थे। उनमें से एक 'थॉमस' ने ही भारत में ईसा के संदेश को फैलाया। उन्हीं की एक किताब है- 'ए गॉस्पेल ऑफ थॉमस'। चेन्नई शहर के सेंट थामस माऊंट पर 72 ईस्वी में थॉमस एक भील के भाले से मारे गए। मेरी मेग्दालिन भी ईसा की शिष्या थीं जिन्हें उनकी पत्नी बताए जाने के पीछे विवाद हो चला है। उक्त गॉस्पल में मेरी मेग्दालिन के भी सूत्र हैं।
दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च, सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देती है। थॉमस ने एक हिन्दू राजा के धन के बल पर भारत के केरल में ईसाइयत का प्रचार किया और जब उस राजा को इसका पता चला तो थॉमस बर्मा भाग गए थे।
इसके बाद सन 1542 में सेंट फ्रेंसिस जेवियर के आगमन के साथ भारत में रोमन कैथोलिक धर्म की स्थापना हुई जिन्होंने भारत के गरीब हिंदू और आदिवासी इलाकों में जाकर लोगों को ईसाई धर्म की शिक्षा देकर सेवा के नाम पर ईसाई बनाने का कार्य शुरू किया। इसके बाद भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान इस कार्य को और गति मिली। फिर भारत की आजादी के बाद 'मदर टेरेसा' ने व्यापक रूप से लोगों को ईसाई बनाया।
अगले पन्ने पर फिफ्त गॉस्पल...
फिफ्त गॉस्पल : ये फिदा हसनैन द्वारा लिखी गई एक किताब है जिसका जिक्र अमृता प्रीतम ने अपनी किताब 'अक्षरों की रासलीला' में विस्तार से किया है। ये किताब जीसस की जिन्दगी के उन पहलुओं की खोज करती है जिसको ईसाई जगत मानने से इंकार कर सकता है, मसलन कुंवारी मां से जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जीवित हो जाने वाले चमत्कारी मसले। किताब का भी यही मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र तक ईसा भारत भ्रमण करते रहे।
ऐसी मान्यता है कि उन्होंने नाथ सम्प्रदाय में भी दीक्षा ली थी। सूली के समय ईशा नाथ ने अपने प्राण समाधि में लगा दिए थे। वे समाधि में चले गए थे जिससे लोगों ने समझा कि वे मर गए। उन्हें मुर्दा समझकर कब्र में दफना दिया गया।
महाचेतना नाथ यहुदियों पर बहुत नाराज थे क्योंकि ईशा उनके शिष्य थे। महाचेतना नाथ ने ध्यान द्वारा देखा कि ईशा नाथ को कब्र में बहुत तकलीफ हो रही है तो वे अपनी स्थूल काया को हिमालय में छोड़कर इसराइल पहुंचे और जीसस को कब्र से निकाला। उन्होंने ईशा को समाधि से उठाया और उनके जख्म ठीक किए और उन्हें वापस भारत ले आए। हिमालय के निचले हिस्से में उनका आश्रम था जहां ईशा नाथ ने अनेक वर्षों तक जीवित रहने के बाद पहलगाम में समाधि ले ली।
उक्तरोक्त बातों में कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते, लेकिन यह विचारणीय तथ्य है कि हमें विचार तो करना ही चाहिए कि आखिर सत्य से हम क्यों बचना चाहते हैं?